इस लेख को लिखते वक्त खुशकिस्मती से पाकिस्तान भारतीय मीडिया की सनसनीखेज सुर्खियों में शामिल नहीं है. बीएसएफ (सीमा सुरक्षा बल) के मुताबिक उन्हें एक सुरंग मिली है जिसका इस्तेमाल सीमा पार से घुसपैठ के लिए किया जाना था. लेकिन यह सुरंग कहां से शुरू होती है और कहां निकलती है, इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है और यह बात इस मुद्दे को थोड़ा रहस्यमय बनाती है.
इस सुरंग के बनने की जानकारी न होने से जुड़ी सरकार की कमजोरी को लेकर काफी शोर होगा लेकिन शुक्र है कि कोई सुरंग सेक्सी नहीं होती. संभव है कि भविष्य में इससे कोई बड़ी कहानी निकले लेकिन उसे हम फिलहाल आगे के लिए छोड़ देते हैं.
जिस दिन पाकिस्तान खबरों में छाया नहीं रहता, वह एक अच्छा दिन होता है. किसी भी दिन जब खून-खराबे का जश्न मनाती खबरों की बजाए पाकिस्तान से जुड़ी खबरें-गेंद से छेड़खानी, मैच-फिक्सिंग या फिर इस बात पर बहस कि हमें आपस में क्रिकेट खेलना चाहिए या नहीं-या सिर्फ मनोरंजन- आपसी साझेदारी, वीना मलिक का टैटू या बगैर टैटू वाली न्यूड तस्वीर, बॉलीवुड की हस्तियों के साथ मौज-मस्ती जैसी खबरों तक सीमित रहती है, वह एक खुशनुमा दिन लगता है. सबसे अच्छा पड़ोसी, शांत रहने वाला पड़ोसी ही होता है.
यह सच है कि कुछ बड़े दांवपेच चलते रहते हैं-2008 के हमले के मसले को किसी तरह से खत्म करने की निरंतर मांग, सऊदी अरब में जबीउद्दीन अंसारी की गिरफ्तारी, कभी रुकती, कभी शुरू होती शांति प्रक्रिया क्योंकि सभी को अफगानिस्तान के स्थिर होने का इंतजार है-और देर-सबेर ये मामले हर चैनल और अखबार के माध्यम से पूरे देश में छा जाएंगे और नफरत एक बार फिर सेक्सी हो जाएगी.
जब भी अगला गंभीर टकराव सामने आएगा-और यह आएगा-जाने-माने एंकर टीवी पर चिल्लाते और हाथ लहराते नजर आएंगे, कठोर जवाब की मांग, इंटरनेट और नफरत से भर जाएगा, सरकार की ओर से भी दोगली बातों की झ्ड़ी लग जाएगी, और अधिक नपुंसक गुस्सा, और ज्यादा अंतरराष्ट्रीय खोखले विलाप, हाल ही में हमले के शिकार बने शहर की जिजीविषा का असहाय उत्सव और पहले से ज्यादा सामूहिक प्रार्थनाएं कि भारत संयमित रहे और सांप्रदायिक दंगों की साजिशों का शिकार न बने.
देशभक्ति के नाम पर पहले से ज्यादा सीना ठोका जाएगा, बिना जवाब वाले और अधिक सवाल, सुरक्षा एजेंसियों पर मिलकर काम करने के लिए पहले से ज्यादा दबाव. और फिर हममें से कुछ ऐसे लोग जो फिर अपने रोजाना के जीवन में व्यस्त हो जाएंगे. यह एक रटा-रटाया ढर्रा है जिससे हम अच्छी तरह से वाकिफ हैं, एक चक्र है, जिससे हम ताउम्र परिचित रहे हैं. आज मीडिया में काम करने वाले ज्यादातर लोग इसी माहौल में पले-बढ़े हैं और उनके अनुभव ही इन खबरों को आकार देते हैं. वे बदल चुके हैं इसलिए खबरें भी बदल चुकी हैं
अस्सी के दशक में पैदा हुई पीढ़ी के लिए पाकिस्तान सुदूर पश्चिम में स्थित एक बुरी नजर वाला हास्यास्पद दुश्मन था और जहां रहने वाला हर शख्स जावेद मियांदाद था. हालांकि किन्हीं कारणों से अमेरिका उसे पसंद करता था, और वास्तव में हममें से बहुतों के लिए यही इस बात का शुरुआती संकेत था कि पाकिस्तान के बारे में हम जो जानते हैं, वहां उससे भी ज्यादा कुछ है.
यह कैसे हुआ कि मिथुन चक्रवर्ती, माधुरी दीक्षित और कपिल देव का देश भारत कथाओं, जो पूरी तरह भला और हर तरह से परिपूर्ण था, रैम्बो आर मिस्टर टी वाले देश की बजाए विज्ञान की गंभीर किताबों, विज्ञान और स्पेसक्राफ्ट वाले सोवियत देश यूएसएसआर का बेहतर मित्र था? क्या दुनिया जैसा हम सोचते थे, उस तरह दोहरेपन का शिकार नहीं है?
भारतीय मीडिया ने भी हमारे साथ ही अपनी किशोरावस्था में प्रवेश किया था और अचानक ही दुनिया कुछ ज्यादा ही जटिल हो गई. सीमा पार के जो लोग थे वे लोग बन गए, वे सिर्फ सनी देओल की हैंडपंप हिंसा के शिकार नहीं बने. कारगिल हुआ और हमने जश्न नहीं मनाया, लोग मारे गए और किसी की भी जीत नहीं हुई. और यह भावना घर करने लगी कि यह टकराव जो हमारे जन्म लेने से पहले ही शुरू हो चुका था हमारे जीवन में नहीं खत्म होने वाला.
सरकारें आईं और गईं, दोनों देशों ने पीड़ा झेली और दोनों देश आगे बढ़ गए. हमारा मीडिया जबरदस्त रफ्तार से बदला है. अचानक ही पत्रकार अब रूखे आंकड़े देने वाला, सख्त छवि वाला विशेषज्ञ नहीं रह गया है. वह भी इंसान बन गया-ऐसा आदमी जिसे हम जानते हैं, जिन्हें हम स्वीकार करते हैं, आदमी जिनसे हम नफरत या प्रेम करते हैं, सेलिब्रिटीज, विचारक, सेक्स सिंबल, नई अर्थव्यवस्था की हड़बड़ी में दुनिया ज्यादा खुली दिखने लगी.
हमारी आवाज तेज हो गई, हमारी रीढ़ तन गई और हमारी चमड़ी मोटी हो गई. हम आत्ममुग्ध भी हुए और खुद की आलोचना करना भी सीखा. नई आवाजें, नई भाषाएं, नए विचार मुख्यधारा में आने लगेः हमारी पसंद का निर्धारण कोई दूसरा नहीं कर रहा था और हम आगे बढ़ते हुए खुद फैसला कर रहे थे कि हम खुद के लिए क्या पसंद करते हैं. हमने भारत को परिभाषित करने की कोशिशों को छोड़ दिया था और हमने भारत से अपेक्षाएं करनी शुरू कर दीं. हम परिपक्व हो गए. और यह हमेशा एक निराशाजनक बात रही है.
भारतीय मीडिया का मुख्य उद्देश्य उसे खुद को भारतीय कंज्यूमर को बेचना है. जब पाकिस्तानी मीडिया ने भारतीय मीडिया को अति-राष्ट्रवादी, सरकार का चापलूस और झूठा बताया, जैसा 2008 के हमले के बाद भारतीय मीडिया ने किया, तब वह एक बात समझने से चूक गया. भारतीय मीडिया भारत सरकार का औजार नहीं है. यह कुछ लोगों का समूह है जो अपनी रोजी-रोटी चलाना चाहते हैं. और यदि नफरत बिकती है तो वे नफरत ही बेचेंगे. लेकिन शांतिकाल में उत्तेजक रॉक बैंड और तेज गेंदबाज ही उनके लिए खबर होंगे.
भारतीयों के बीच भारत की कहानी ही बिकती है. और इस वक्त हम अपनी समस्याओं से ही घिरे हुए हैं. हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गुस्सा जाहिर करते हैं और एकमात्र चीज जो बदलती है वह है प्रतिदिन का विषय. निस्संदेह इस मानचित्र पर उठा-पटक करने वाला सबसे बड़ा खिलाड़ी भारतीय मीडिया ही है. हम भारत मंथन के जरिए भारत अध्ययन से आगे बढ़ गए हैं और भारत उदय से चीत्कार करते भारत की तरफ बढ़ गए. जहां तक मुझे याद है, राडियागेट से असम में एक अकेली लड़की पर एक जान-बूझ्कर उकसाई गई भीड़ का डरावना हमला होने के बीच में भारतीय मीडिया की साख अपने निम्नतम स्तर पर पहुंच चुकी है. इसी के साथ हम ऐसी पत्रकारिता भी देख रहे हैं जो अपनी पूर्ववर्ती पत्रकारिता से काफी ऊंचे स्तर की है. जैसा भारत के बारे में बताने वाली सबसे बुरी रूढ़ोक्ति कहती है कि हम भारतीय दोहरेपन में उस्ताद हैं.
यह देखना आसान है कि भारतीय मीडिया विश्वसनीयता के संकट से क्यों गुजर रहा है. पहला सवाल क्वालिटी का है. इसकी अनियमितताएं चकित कर देने वाली हैं. हर अच्छी खबर के बाद एक ऐसी खबर आती है जो सुस्त पत्रकारिता का बुरा उदाहरण होती है. सबसे बुरा है पेड न्यूज का खुला चलन. एक ऐसी भारतीय अवधारणा जिसमें बेशर्म भारतीय मीडिया संस्थान अपनी सेवाएं कॉरर्पोरेट्स के हाथों बेच देते हैं. और इसने सिर्फ उन लोगों पर दाग नहीं लगाया जो पेड न्यूज चलाते हैं बल्कि समूचा भारतीय मीडिया इससे दागदार हो गया है.
यह समय यह कहकर अपना बचाव करने का नहीं है कि किस तरह यह सब तो पश्चिम में भी प्रचलित है. लेकिन, यदि हम पश्चिम की तरफ देखते हैं तो वहां के टैबलॉयड भी अपने अखबारों के मानक स्तरों में सामंजस्य बनाए रखते हैं. सामंजस्य, तर्क, विवेक और दलीलः यह कुछ ऐसी चीजें हैं जिनकी भारतीय मीडिया को सख्त दरकार है. और इसे हासिल करने के लिए खुद के अंदर झंकने की जरूरत पड़ेगी. ऐसे दौर में जब मार्केटिंग और ऐड सेल्स संपादकों पर सतत दवाब बनाए रखते हैं और खराब पत्रकारिता ज्यादा लोगों को आकर्षित करती है, अपनी खामियों को देखना काफी मुश्किल है. लेकिन यही वह दौर भी है जब हर कोई ब्रॉडकास्टर है और कोई सुनना नहीं चाहता.
एक ऐसा दौर जब पाठकों और श्रोताओं के पास विकल्प और शक्ति है. ऐसे में अच्छी पत्रकारिता की बुनियाद और उसूलों की तरफ लौटना ही इस डिजिटल युग में किसी मीडिया संस्थान को बचा सकता है. मीडिया को तत्काल इस बात को लेकर जागने की जरूरत है वरना हमारे देश की कहानी और भी स्याह हो जाएगी.