हाल ही में रिलीज हुई फिल्म 'लापता लेडीज' की कहानी जिस जमीन से आती है, उसे निर्माता निर्देशक किरण राव बखूबी पहचानती हैं. अपने बेहतरीन प्लॉट की वजह से चर्चा में आई इस फिल्म के कलाकारों की भी तारीफ हो रही है. ग्रामीण पृष्ठभूमि पर आधारित ये फिल्म औरतों को लेकर पितृसत्तात्मक सोच, लैंगिक असमानता, शिक्षा, दहेज प्रथा, आत्मनिर्भरता, घरेलू हिंसा, हीनता जैसे तमाम मुद्दों पर सवाल खड़े करती है. पेश है किरण राव के साथ हुई खास बातचीत का एक हिस्सा -
आपकी फिल्म ‘लापता लेडीज’ समाज की जिस पितृसत्तात्मक सोच पर प्रहार करती दिखती है उसके बारे में क्या सोचती हैं?
अभी बहुत काम बाकी है औरतों को समान स्तर पर लाने के लिए. इसलिए हमने ये लापता लेडीज फिल्म बनाई. एक तरह से हम इस क्षेत्र में अपना योगदान देना चाहते हैं कि औरतों को बताया जाए, उनतक ये बात पहुंचे कि उनके बहुत सारे हक हैं. उनको अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जीने का हक है. ये बात हम अपनी फिल्म के जरिए करते हैं.
इस फिल्म की कहानी और उसे कहने का तरीका लोगों को पसंद आ रहा है, इस फिल्म का आइडिया कहां से आया?
आइडिया दरअसल, स्क्रिप्ट ओरिजिनल स्टोरी राइटर विप्लब गोस्वामी ने लिखी थी. जिसका टाइटल था- टू ब्राइड्स (दो दुल्हन). उसको हमने आगे डेवेलप किया. स्नेहा देसाई और दिव्यनिधि शर्मा के साथ. तो उनसे पूरी कहानी आई है. ये तीन राइटर्स ने पूरी कहानी लिखी है.
आपकी अधिकांश फिल्में कम बजट और इश्यू बेस्ड होती हैं. इन्हे बनाने में आपको क्या मुश्किलें आती हैं और इसके पीछे आपकी सोच क्या है?
बनाने में इतनी मुश्किल होती नहीं है क्योंकि आमिर ऐसे प्रोड्यूसर हैं जो बहुत भरोसा करते हैं ऐसे प्रोजेक्ट्स में. वो अपनी पूरी ताकत इनके पीछे डाल देते हैं. उनको बाहर पर्दे पर लाना मुश्किल हो जाता है क्योंकि अगर आप बड़े स्टार या एक्शन की फिल्में न बनाएं तो आपका ओपनिंग वीकेंड या फिर थियेटर में टिके रहना एक तरह से अपने आप में एक चुनौती होती है.
पहले इश्यू बेस्ड फिल्मों को पैरेलल सिनेमा कहकर एक खांचे में फिट कर दिया जाता था. क्या आज वो क्लासीफिकेशन खत्म हुआ है, या इन्हें 'लो बजट' कहकर एक नया वर्ग बना दिया गया है?
असल में फिल्में सिर्फ अच्छी या बुरी कहलाई जानी चाहिए. उनको लो बजट या इंडिपेंडेंट या हाई बजट कहना एक तरह से उनके कंटेंट पर ठप्पा लगाना है. ये नहीं होना चाहिए. फिल्में या तो अच्छी होती हैं या नहीं.
ग्रामीण पृष्ठभूमि पर आधारित कंटेंट ओटीटी पर खूब चलते हैं लेकिन सिनेमाघरों में इन्हें संघर्ष करना पड़ता है. ऐसे में दर्शकों को थियेटर तक कैसे लाया जा सकता है?
जी, वही एक मुश्किल होती है. चुनौतियां हमारे सामने ये है कि हम किस तरह से ऑडियंस तक पहुंचे. क्योंकि हमारे पास बजट मार्केटिंग और प्रमोशन के उतने होते नहीं हैं. हम मीडिया पर डिपेंडेंट होते हैं या सोशल मीडिया पर कि वो बात फैलाएं हमारी फिल्म के बारे में. अब सोशल मीडिया का दौर है तो उसके जरिए हम जितना कर सकते हैं, करते हैं. और फिर ऑडियंस पर छोड़ते हैं कि उन तक बात पहुंच जाए.