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“सरकार सफाईकर्मियों की बदहाली की बात मानती ही नहीं, ऐसे में हालात कैसे बदलेंगे?”

रेमन मैग्सेसे अवार्ड से सम्मानित और देश भर में सफाईकर्मियों की बेहतरी के लिए काम करने वाले बेजवाड़ा विल्सन से हिमांशु शेखर की बातचीत

बेजवाड़ा विल्सन (फाइल फोटो)
बेजवाड़ा विल्सन (फाइल फोटो)
अपडेटेड 9 जनवरी , 2024

सरकार भी कहती है कि वह मैला ढोने वालों को इस दुर्दशा से निकलना चाहती है और जो लोग इस काम में हैं, वे भी निकलना चाह रहे हैं. कानून भी है. इसके बावजूद अपेक्षित परिणाम नहीं मिल रहे क्योंकि कहीं न कहीं एक गैप रह जा रहा है. इस गैप को कैसे भरा जाए?

इसके लिए मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है. अगर राजनीतिक नेतृत्व यह तय कर ले कि हमें इस स्थिति को बदलना है तो ब्यूरोक्रेसी तैयार हो जाएगी. फिर एक मानसिकता का सवाल है. कुछ लोगों ने इसे सेवा और आध्यात्मिक संतुष्टि से जोड़ दिया है. उन्हें यह करके लगता है कि वे गंदगी साफ करके पुण्य का काम कर रहे हैं. इस मानसिकता को भी तोड़ना होगा. सरकार ने जैसे मिशन मोड में स्वच्छ भारत अभियान चलाकर करोड़ों शौचालय बनवाए, उसी तरह से इस कुप्रथा को खत्म करने के लिए भी मिशन मोड में सरकार को काम करना पड़ेगा. अगर शीर्ष नेतृत्व से ऐसा आह्वान हो तो यह काम पूर्ण हो सकता है. हम सही ढंग से इस सामाजिक समस्या को खत्म करने के लिए आगे नहीं बढ़ रहे हैं. भारत में आर्थिक बदलाव की गति तो तेज है लेकिन सामाजिक बदलाव की गति बहुत धीमी है. कोई भी सरकार आए, वह चाहती है कि सामाजिक बदलाव की गति धीमी रहे. 

सरकार की कई सारी योजनाएं हैं जो मैला ढोने में लगे लोगों को इससे निकालने, उनका पुनर्वास कराने जैसे प्रावधानों से भरी हैं. आप जमीनी स्तर पर इन योजनाओं को कितना प्रभावी पाते हैं?

सरकार की एक योजना का प्रावधान है कि मैला ढोना छोड़कर जो बाहर आएगा, उसके पुनर्वास के लिए एक लाख रुपये से लेकर 25 लाख रुपये तक का कर्ज दिया जा सकता है. इसमें 50 प्रतिशत तक की सब्सिडी है. बहुत अच्छी योजना है. लेकिन ये लोन देते नहीं हैं. 40,000 रुपये वन टाइम सहयोग का प्रावधान है. यह तो मिल जाता है लेकिन लोन नहीं मिलता. देश भर में ऐसे 58,000 लोगों की पहचान की गई जिनका पुनर्वास किया जाना था. इनमें से 56,000 का पुनर्वास कर दिया गया. आपको यह जानकर हैरानी होगी कि इनमें से अधिकांश ऐसे हैं जिन्हें सिर्फ 40,000 रुपये मिले हैं. स्वच्छ भारत योजना की वजह से भी यह काम ठीक से नहीं हुआ. स्वच्छ भारत में फोकस साइड इंसान नहीं है, फोकस साइड टॉयलेट बनाना है.

सीवेज की सफाई करने वाले लोग जानलेवा परिस्थितियों में काम करते हैं और कई बार सफाई के दौरान उनकी जान गंवाने की खबरें भी आती हैं. इस बारे में आपके क्या अनुभव हैं और इस स्थिति को आखिर कैसे बदला जाए?

भारत में कोई भी ऐसा शहर नहीं है जिसने सीवेज का फुल कवरेज किया हो. दिल्ली में भी ऐसा नहीं है. दिल्ली के कई बाहरी इलाकों में ड्रेनेज नहीं है और वहां अब भी सेप्टिक टैंक हैं. हर शहर में दोनों मॉडल है. दोनों का मैनेजमेंट अलग—अलग होगा. सीवेज की सफाई करने के लिए ट्रीटमेंट प्लांट चाहिए और अंदर कोई समस्या हो तो उसकी सफाई करने के लिए मशीन की जरूरत पड़ती है. सेप्टिक टैंक की सफाई तीन-चार साल में भरने के बाद सकर मशीन के जरिए की जाती है. ये सब मशीन पर्याप्त संख्या में उपलब्ध नहीं हैं. सीवर के लिए जो मशीनें हैं, वे बड़ी हैं और तंग गलियों में नहीं जा पाती. छोटी मशीन की बात की जाती है लेकिन प्रभावी तौर पर वे काम करते हुए कहीं नहीं दिखतीं. इस वजह से सीवर या सेप्टिक की सफाई के लिए जब कोई उनके अंदर जाता है तो मीथेन जैसी जहरीली गैसों का शिकार कई बार हो जाता है. सरकार कहने को कहती है कि सीवर के अंदर इंसान नहीं जाते और मशीन से इसकी सफाई की जाती है. लेकिन सच्चाई यह है कि 2023 में सीवर की सफाई करते हुए 96 लोगों की मौत हुई है.

भारत में 4,000 से अधिक स्टैटूटरी टाउन्स (स्थानीय नागरिक निकाय वाले शहर) हैं और 6 लाख से अधिक गांव हैं. कई बड़े शहर भी हैं. लेकिन हमारे यहां सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट्स की संख्या 1,000 भी नहीं है. जो हैं भी, वे दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद, कोलकाता, बेंगलुरु जैसे बड़े शहरों में केंद्रित हैं. इनकी संख्या बढ़ानी होगी और छोटे शहरों तक लेकर इन्हें जाना होगा. एक और समस्या यह है कि सफाईकर्मियों की कभी सरकार ने गिनती नहीं कराई. अगर यह संख्या नहीं मालूम होगी तो फिर उनके कल्याण के लिए कैसे योजना बनेगी. संसद में भी सरकार बोल देती है कि ऐसा काम करने वाला कोई नहीं है. अगर सरकार के स्तर पर यह इनकार की स्थिति रहेगी तो फिर सुधार मुश्किल है. इनकार से स्थिति नहीं सुधरेगी, हमें समस्या को स्वीकार करके काम करना होगा.

सफाई के काम में अलग-अलग ढंग से लोगों के साथ ही काम करना है, यह विचार आपके मन में कैसे आया?

ऐसा नहीं था कि यह काम मेरा कोई बचपन का सपना था. लेकिन जब सफाईकर्मियों की स्थिति देखी और उनकी दयनीय दशा को महसूस किया तब यह लगा कि इनके लिए काम करना चाहिए. मैंने धीरे—धीरे इनके साथ काम करना शुरू किया और एक समय ऐसा आया जब मेरे लिए इससे बाहर आना मुश्किल हो गया.

जब आप स्कूल में पढ़ाई कर रहे थे तो जाति और पेशे से संबंधित भेदभाव को लेकर आपके क्या अनुभव रहे?

कर्नाटक के कोलार में मेरा जन्म हुआ. चौथी तक की पढ़ाई के बाद मेरी पढ़ाई छूट गई. बाद में फिर आंध्र प्रदेश के एक स्कूल में मेरा दाखिला कराया गया. स्कूल में अपना नाम, अपने पिता का नाम और पेशा बताना होता था. जब मेरी बारी आती थी तो मैं बचना चाहता था, क्योंकि मेरे माता—पिता भंगी का काम करते थे. मैं अपना सिर छिपा लेता था और बगल में बैठे बच्चे अपना परिचय बोलकर मेरा बचाव करते थे. क्योंकि उन्हें ये पता था. बाद के क्लास में कुछ बदमाश बच्चे भी मिले जिन्होंने मुझे अहसास कराया. कोई यह नहीं बोलता था कि जाति या पेशे का भेदभाव है लेकिन व्यवहार में यह दिखता था. रेड्डी, नायडू, राव, शास्त्री, ये टाइटल वाले बच्चे अपना नाम बोलते हुए गर्व महसूस करते थे. जब 22—23 साल की उम्र हुई, तब जाकर यह साहस आया कि अपनी जाति की वजह से सिर नहीं छिपाना है बल्कि सवाल उठाना है.

उस दौर में किस तरह के सवाल आप उठाने लगे?

सबसे पहले तो यही सवाल आया कि भंगी का काम हम ही क्यों करते हैं, सारे लोग क्यों नहीं करते ? थोड़े समय बाद यह समझ में आया कि हम नहीं करते हैं, वे करवाते हैं. फिर सवाल आया कि वे हमसे ही क्यों करवाते हैं? इसका भी जवाब मुझे नहीं मिला. जातिगत भेदभाव पिछड़ी जातियों का हर बच्चा महसूस करता है लेकिन ऐसा कोई तैयार सॉफ्टवेयर नहीं मिलता जिसकी मदद से इस पर खुलकर बातचीत की जा सके. स्कूल के पाठ्यक्रम में इसका उल्लेख नहीं है. फिर इसे काउंटर कैसे करें, यह और मुश्किल हो जाता है. काउंटर करने की शब्दावली तक नहीं होती.

आप बाबा साहब भीमराव आंबेडकर को लेकर काफी बातें करते हैं. उनको को पढ़ने की शुरुआत कब हुई और आपके काम पर उनका क्या प्रभाव है?

1990 में आंबेडकर का शताब्दी वर्ष मनाया जा रहा था. उस समय मैंने आंबेडकर को पढ़ना शुरू किया. हमारे यहां स्कूल में उनको नहीं पढ़ाया जाता था. आंबेडकर ने लिखा है कि आप मैला उठाने का काम इसलिए कर रहे हैं क्योंकि आप एक ऐसे परिवार में पैदा हुए हैं जो अछूत है और उसका काम किसी और ने तय करके रखा है. उस समय मुझे यह अहसास हुआ कि मैं यह काम इसलिए नहीं कर रहा कि मैंने इसे चुना है बल्कि इसलिए कर रहा हूं क्योंकि इसे जबरन किसी और ने हम पर थोप दिया है.

इसके पहले तक मुझे अपने समाज के लोगों से नाराजगी रहती थी. मुझे लगता था कि ये लोग पागल हैं, पता नहीं ये काम क्यों करते हैं, क्यों पढ़ाई नहीं करते. मैं कहता था कि मैला ढोने का काम काम इनको आसान लगता है क्योंकि दो घंटे काम करके गुजारा हो जाता है और मेहनत से बचने के लिए ये दूसरा काम नहीं करते. लेकिन आंबेडकर को पढ़ने के बाद मेरी राय बदली. मेरा गुस्सा खत्म हुआ और सहानुभूति पैदा हुई. आंबेडकर ने बताया कि काम छोड़ना उनके हाथ में नहीं है, उनसे यह काम कोई और करवा रहा है. यहां से मुझे लगने लगा कि भंगी हम नहीं बने बल्कि हमें बनाया गया. इसके बाद अपने समाज के लोगों के प्रति मेरे मन में स्नेह पैदा हुआ. यह मेरे लिए एक टर्निंग प्वाइंट था.

उस दौर के मुकाबले जब मौजूदा समय में आप समाज में जाते हैं तो क्या बदलाव महसूस करते हैं?

जमीनी स्तर पर भी काफी बदलाव हुआ है. लेकिन चिंता की बात यह है कि कई मामलों में समाज पीछे जा रहा है. मैला ढोने वाले विषय पर लोगों में जानकारी बढ़ी है, जागरूकता आई है और समाज में संवेदना भी बढ़ी है. लेकिन जो समाज यह काम कर रहा है, उसमें अपेक्षित बदलाव नहीं हुआ है. उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, जम्मू कश्मीर, झारखंड जैसे राज्यों में शुष्क शौचालय साफ करने में आज भी लोग लगे हुए हैं. इसलिए समाज की व्यापक संवेदना के बावजूद इस वर्ग के जीवन में कोई बड़ा बदलाव नहीं आ रहा है. अच्छी बात यह है कि बदलावों के लिए समाज तैयार है. पहले ऐसा होता था कि सरकार कोई बदलाव करना चाहे तो समाज से उसका विरोध हो जाता था. अब यह स्थिति नहीं है. 

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