
बीते सोमवार को भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने 'गगनयान वर्ष' की सफल शुरुआत करते हुए श्रीहरिकोटा से इस साल का पहला उपग्रह प्रक्षेपित किया. इस उपग्रह का नाम एक्स-रे पोलारिमीटर सैटेलाइट (XPoSat) है, जो एक्स-रे ध्रुवीकरण (पोलाराइजिशेन) और ब्लैक होल की रहस्यमयी दुनिया का अध्ययन करेगा.
साल 2021 में नासा के इमैजिंग एक्स-रे पोलारिमेट्री एक्सप्लोरर (आईएक्सपीई) के बाद यह इस तरह का दुनिया का केवल दूसरा मिशन है. इस साल भारत कई उपग्रह लॉन्च करने के अलावा अपना पहला मानवयुक्त अंतरिक्ष मिशन 'गगनयान' भी लॉन्च करेगा. यही कारण है कि इस साल को 'गगनयान वर्ष' कहा जा रहा है.
ब्लैक होल के बारे में बात की जाए तो खगोल विज्ञान के क्षेत्र में यह हमेशा से एक रोमांचकारी और रहस्यमयी क्षेत्र रहा है, जिसमें अल्बर्ट आइंस्टीन से लेकर स्टीफन हॉकिंग तक तमाम वैज्ञानिकों की दिलचस्पी रही है. लेकिन भारतीय वैज्ञानिक भी इसमें पीछे नहीं रहे हैं. ब्लैक होल के क्षेत्र में भारतीय वैज्ञानिकों के योगदान पर एक नजर डालें उससे पहले इस खगोलीय पिंड या क्षेत्र के बारे में कुछ बुनियादी बातें समझ लेते हैं.
क्या है ब्लैक होल?
आपको वो 1756 का नवाब सिराजुद्दौला का किस्सा याद है, जब उसने फोर्ट विलियम के एक 14 गुणा 18 के संकुचित कमरे में 146 अंग्रेजों को ठूंस दिया था. एक छोटे से आयतन वाले कमरे में इतने लोगों को ठूंस देने से उनका सांस लेना भी मुश्किल हो गया था. उनमें से अधिकांश की मौत हो गई थी. इतिहास में यह घटना 'ब्लैक होल ऑफ कैलकेटा (कलकत्ता)' के नाम से दर्ज है. विज्ञान में भी ब्लैक होल की अवधारणा इसी से मिलती-जुलती है. कोई ऐसी वस्तु जो इतनी भारी और सघन हो कि उसके गुरुत्वाकर्षण से प्रकाश भी बच कर न निकल पाए, उसे ब्लैक होल कहते हैं. हालांकि, ब्लैक होल टर्म 1967 में अमेरिकी खगोल विज्ञानी जॉन व्हीलर ने दिया, उससे पहले इसे 'डार्क स्टार' या 'फ्रोजेन स्टार' कहा जाता था.
ब्लैक होल के क्षेत्र में भारतीयों का योगदान
सर आइजक न्यूटन ने कभी कहा था, "मैं दूसरों से दूर देखने में कामयाब इसलिए हो पाया, क्योंकि मैं दिग्गजों के कंधों पर बैठा हुआ था." ब्लैक होल के रहस्यों को जानने-सुलझाने के क्रम में कई सारे वैज्ञानिकों ने अपना योगदान दिया है. इनमें कुछ प्रमुख भारतीय नाम भी शामिल हैं. आइए उन प्रमुख नामों को जानते हैं.

सुब्रह्मणयम चंद्रशेखर
साल 1930 में मद्रास से बी.एससी करने के बाद एस. चंद्रशेखर उच्च अध्ययन करने के लिए इंग्लैंड के कैंब्रिज चले गए. यहां इन्होंने वाइट ड्वार्फ स्टार (श्वेत बौना तारा) पर कुछ दिलचस्प गणनाएं की. तब यह माना जाता था कि सभी तारे नष्ट होने के बाद वाइट ड्वार्फ बन जाते हैं. उस समय युवा चंद्रशेखर ने आइंस्टीन का सापेक्षता का सिद्धांत और क्वांट्म मैकेनिक्स को मिलाकर एक नया सिद्धांत गढ़ा और 1931 में एक दिलचस्प खोज सामने रखी. चंद्रशेखर ने बताया कि एक वाइट ड्वार्फ स्टार का अधिकतम द्रव्यमान सूर्य से 1.4 गुणा ज्यादा तक हो सकता है, इसके बाद वो 'ब्लैक होल' में बदल जाता है. इस लिमिट को 'चंद्रशेखर लिमिट' के नाम से जाना गया. इस खोज के करीब 50 साल बाद उन्हें साल 1983 में नोबेल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया.

प्रोफेसर सी.वी. विश्वेश्वर
1970 के दशक में विश्वेश्वर ने ब्लैक होल के अध्ययन में तब योगदान दिया जब वे मैरीलैंड विश्वविद्यालय में ग्रेजुएशन कर रहे थे. इस दौरान उन्होंने तीन रिसर्च पेपर प्रकाशित किए, जिनसे ब्लैक होल को समझने में आसानी हुई. बाद में स्टीफन हॉकिंग और पेनरोज ने भी इन पेपर्स का अध्ययन किया. विश्वेश्वर की गणनाओं ने यह दिखाया कि दो आपस में समाते हुए (मर्ज) ब्लैक होल्स से निकलने वाली किरणों को ग्राफ में कैसे सूचीबद्ध किया जा सकता है. आगे इसी को आधार बनाकर साल 2015 में ग्रैविटेशनल तरंगों की खोज की गई. विश्वेश्वर बेंगलोर में स्थित जवाहरलाल नेहरू प्लैनेटेरियम के संस्थापक निदेशक भी रहे.

प्रो. अमल कुमार रायचौधरी
प्रेसीडेंसी कॉलेज, कोलकाता में प्रोफेसर और एक बेहतरीन भौतिक विज्ञानी अमल कुमार चौधरी ने ब्लैक होल के फॉर्मेशन सिद्धांतों को समझने में अपना योगदान दिया. 1950 के दशक में इन्होंने 'रायचौधरी समीकरण' दिया, जो इनके ही नाम पर प्रसिद्ध हुआ. यह समीकरण एक तरह से ब्लैक होल में 'सिंगुलैरिटी' का आधार स्तंभ माना जाता है. सिंगुलैरिटी, ब्लैक होल के केंद्र में ऐसी एक आयामी (वन डायमेंशनल) जगह है, जहां विशाल द्रव्यमान स्थित होता है. इस जगह पर घनत्व और गुरुत्वाकर्षण अनंत होता है. साल 1965 में स्टीफन हॉकिंग और जॉर्ज एलिस ने अपने पेपर में इसी 'रायचौधरी समीकरण' का जिक्र किया. पांच साल बाद सर रोजर पेनरोज और स्टीफन हॉकिंग ने इसी समीकरण को अपने सिंगुलैरिटी थ्योरम के लिए संदर्भ बिंदु बनाया था.