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‘आक्रामक’ पेड़-पौधों से भारत की 14 करोड़ आबादी बेहाल; इनसे निपटना मुश्किल क्यों?

इनवेसिव प्लांट या आक्रामक पौधे (विदेशी खरपतवार, झाड़-झंखाड़) हर साल भारत में हजारों वर्ग किमी तक का इलाका निगल रहे

असम में इनवेसिव प्लांट या आक्रामक पौधों की सफाई करते वन विभाग के कर्मचारी (फाइल फोटो)
अपडेटेड 10 दिसंबर , 2025

भारत की इनवेसिव प्लांट या आक्रामक पौधे (विदेशी खरपतवार, झाड़-झंखाड़) से लड़ाई अब तक बिखरे हुए तरीके से चलती रही है, कहीं कोई पहाड़ी साफ कर दी, कहीं कोई तालाब से खरपतवार निकाल दिया. लेकिन एक नई राष्ट्रीय स्टडी कहती है कि ऐसे टुकड़ों में किए गए प्रयास अब उस संकट के मुकाबले बहुत छोटे पड़ रहे हैं, जो देश के बड़े हिस्से में फैल चुका है.

दिसंबर 2025 में नेचर सस्टेनेबिलिटी में छपी इस स्टडी में बताया गया है कि भारत में हर साल लगभग 15,500 वर्ग किमी प्राकृतिक इलाका नए विदेशी (एलियन) पौधों के कब्जे में जा रहा है, यह दुनिया में दर्ज सबसे तेज दरों में से एक है. देश के करीब दो-तिहाई प्राकृतिक इकोसिस्टम में अब 11 बड़े आक्रामक पौधे डेरा जमा चुके हैं, जिनमें लैंटाना कैमारा, क्रोमोलिना ओडोराटा और प्रोसोपिस जूलिफ्लोरा शामिल हैं.

इस अध्ययन के लीड ऑथर निनाद मुंगी इसे एक पीढ़ी के लिए बड़ा मोड़ बताते हैं. उनका कहना है, “अगर यही रफ्तार जारी रही तो एक पीढ़ी के भीतर पूरे इकोसिस्टम पूरी तरह मूल वनस्पतियों से आक्रामक पौधों के कब्जे में बदल सकते हैं.” वे चेतावनी देते हैं, “ये पौधे हमारी मैनेजमेंट क्षमता और मॉनिटरिंग, दोनों के मुकाबले तेजी से आगे बढ़ रहे हैं.”

अध्ययन टीम ने 2006 से 2022 तक टाइगर मॉनिटरिंग सर्वे के दौरान जुटाए गए दस लाख से ज्यादा वनस्पति रिकॉर्ड का विश्लेषण किया. फिर यह मॉडल तैयार किया कि आक्रामक प्रजातियां कैसे जलवायु गरम होने, बदली हुई बारिश, मिट्टी की नमी में गिरावट, जंगलों में आग रोकने की नीति और बढ़ती खेती के साथ फैलती हैं.

सबसे बड़ा झटका सिर्फ जंगलों को नहीं, लोगों को भी है. 2022 तक आक्रामक पौधों का फैलाव 14.4 करोड़ लोगों, 27.9 लाख पशुधन और 2 लाख वर्ग किमी छोटे किसानों की जमीन को प्रभावित कर रहा था. इसका मतलब हैः कम चारा, खराब मिट्टी, ईंधन और पानी की किल्लत, और रोजमर्रा की जिंदगी चलाने के लिए ज्यादा समय और ज्यादा खर्च.

लेखकों का अनुमान है कि आक्रामक प्रजातियां 1960 से 2020 के बीच भारत को 127.3 अरब डॉलर (मौजूदा दर पर लगभग 11.4 लाख करोड़ रुपए) का नुक्सान पहुंचा चुकी हैं. ग्रामीण गरीब परिवारों के लिए, हर एक हेक्टेयर जमीन का कांटेदार प्रोसोपिस या घनी लैंटाना में बदल जाना उनकी आमदनी और पोषण पर सीधा असर डालता है.

जंगल भी इसी मुश्किल में फंस रहे हैं. हर साल लगभग 11,700 वर्ग किमी क्षेत्र, जहां जंगल के शाकाहारी जानवर चरते हैं, नई आक्रामक प्रजातियों के कब्जे में चला जाता है. करीब 6,000 वर्ग किमी टाइगर रेंज भी हर साल इन पौधों की चपेट में आती है. इससे फूड चेन सबसे निचले स्तर से दबने लगती है. लैंटाना और क्रोमोलिना की घनी झाड़ियां जंगलों की जमीन को ढक देती हैं और तरह-तरह की चारे वाली वनस्पतियों की जगह लगभग एक ही किस्म का जंगल तैयार हो जाता है.

लंबे समय में इसका असर यह होता है कि शाकाहारी जानवरों की संख्या कम होती जाती है और शिकारी जानवर मवेशियों और फसलों की तरफ धकेले जाते हैं. सह-लेखक वाइ.वी. झाला कहते हैं, “आक्रामक प्रजातियां किसी सीमा को नहीं मानतीं. ये खेत, जंगल और संरक्षित इलाकों, सबको काटते हुए फैलती हैं. अगर हम इन्हें नहीं संभाल पाए, तो जैव विविधता, आजीविका और इंसान–जानवर के बीच नाजुक संतुलन, सबको खतरा होगा.”

भारत की स्थिति दुनिया में बढ़ती चिंता की ही गूंज है. इंटरगवर्नमेंटल साइंस–पॉलिसी प्लेटफॉर्म ऑन बायोडाइवर्सिटी ऐंड इकोसिस्टम सर्विसेज (IPBES) की रिपोर्ट बताती है कि दुनिया में अब तक लगभग 37,000 विदेशी प्रजातियां पहुंच चुकी हैं, जिनमें से करीब 3,500 का प्राकृतिक दुनिया और लोगों पर नुक्सान साबित हो चुका है. आक्रामक प्रजातियों से जुड़ी वैश्विक सालाना लागत अब 423 अरब डॉलर (38.03 लाख करोड़ रुपए) से ऊपर पहुंच गई है और 1970 के बाद से हर दशक में यह लागत चार गुना बढ़ी है. IPBES का निष्कर्ष है कि आक्रामक प्रजातियां अब जैव विविधता खत्म होने के पांच सबसे बड़े कारणों में से एक हैं, जिनमें जमीन का बदलता इस्तेमाल और जलवायु परिवर्तन भी शामिल हैं.

भारत में यह आंकड़ा कच्छ, गुजरात की बन्नी घासभूमि जैसे इलाकों में साफ दिखता है, जो कभी एशिया की सबसे बड़ी उष्णकटिबंधीय घासभूमियों में से एक थी. आज प्रोसोपिस जूलिफ्लोरा यहां आधे से ज्यादा इलाके पर कब्जा कर चुका है. इससे खुली चराई वाली जमीन कांटेदार जंगल में बदल गई है और मिट्टी व पानी का नैचुरल सिस्टम भी बदल गया है. हालांकि प्रोसोपिस की लकड़ी और कोयला अब कई परिवारों के लिए आय का बड़ा स्रोत बन गए हैं, लेकिन यही पौधा स्थानीय घासों, डेयरी उत्पादन और उस सांस्कृतिक परिदृश्य को बर्बाद कर रहा है जिस पर चरवाहे सदियों से निर्भर थे.

बन्नी को बहाल करने के मॉडल बताते हैं कि रास्ता बेहद मुश्किल है. अगर प्रोसोपिस हटाया जाए तो घास और पशुधन की आमदनी बढ़ जाती है, लेकिन उन परिवारों के लिए कुछ समय के लिए जलवायु सहनशीलता कम हो सकती है, जिन्होंने अपनी जीवनशैली इसी आक्रामक पेड़ के हिसाब से ढाल ली है.

पानी से जुड़े इकोसिस्टम की कहानी भी कुछ अलग नहीं है. जुलाई में नेचर  में छपी एक रिसर्च बताती है कि केरल के कुट्टनाड इलाके में वाटर हाइसिंथ या जलकुंभी की मोटी चादरें नहरों और बैकवॉटर को जाम कर देती हैं. इससे नावों की आवाजाही रुकती है, पानी की गुणवत्ता गिरती है और मछली व खेती, दोनों की उत्पादकता कम होती है. सीधा असर उन समुदायों की रोजी पर पड़ता है जिनकी जिंदगी धान, मछली और नाव जैसे जुड़े हुए कामों पर टिकी है.

सरकार ने इस खतरे को स्वीकार तो किया है, लेकिन असरदार कदम अभी बाकी हैं. तमिलनाडु ने आक्रामक विदेशी पौधों के लिए एक राज्य नीति बनाई है और बड़े पैमाने पर लैंटाना, प्रोसोपिस और सेना स्पेक्टाबिलिस को हटाने की कार्रवाई शुरू की है. मद्रास हाइकोर्ट ने हाल ही में इन कोशिशों की सराहना की और साफ किया कि आक्रामक प्रजातियों को हटाना संरक्षण के लिहाज से कानूनी रूप से सही है.

नेशनल बायोडाइवर्सिटी अथॉरिटी ने “सबसे खतरनाक आक्रामक पौधों” को मैनेज करने की एक रणनीति जारी की है. गुजरात जैसे राज्यों ने कुछ ‌विदेशी पौधों, जैसे सजावटी कोनोकर्पस, को पर्यावरणीय नुक्सान की वजह से सार्वजनिक और निजी प्लांटेशन में लगाने पर रोक लगा दी है. लेकिन अभी भी कोई राष्ट्रीय संस्था या मिशन नहीं है जिसका काम सिर्फ आक्रामक प्रजातियों को संभालना हो. जमीनी स्तर पर चलने वाले अभियान भी अक्सर कुछ समय बाद रुक जाते हैं.

मुंगी का कहना है कि अब यह बिखरा हुआ तरीका चल नहीं सकता. वे कहते हैं, “भारत को एक नेशनल इनवेसिव स्पीशीज मिशन चाहिए, जिसमें वैज्ञानिक मॉनिटरिंग, सबूत आधारित मैनेजमेंट, क्वारंटीन टेक्नोलॉजी में सुधार, अलग-अलग विभागों के बीच तालमेल, लचीली नीतियां और रणनीतिक फंडिंग, सब एक छतरी के नीचे आएं.”

लेखकों का सुझाव है कि इस मिशन में तीन बातें खास तौर पर शामिल होंः समय रहते पहचान, वैज्ञानिक तरीके से कब्जा किए इलाकों को बहाल करना, और आक्रामक पौधों की बायोमास का समुदाय आधारित उपयोग, चाहे ऊर्जा के लिए हो, उद्योग के लिए या हस्तशिल्प के लिए. बस इतना ध्यान रहे कि उससे उनकी और फैलाव को बढ़ावा न मिले.

नई स्टडी ने 243 हाइ-रिस्क वाले इलाके और 167 संरक्षित इलाकों को मैप किया है, जहां आक्रामक प्रजातियों का फैलाव, गरीबी और वन्यजीव महत्व, तीनों एक साथ टकराते हैं. इससे सरकारों को फंड और श्रम लगाने के लिए एक ठोस शुरुआती बिंदु मिल जाता है.

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