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मिर्जापुर के 'दद्दा त्यागी' ने अमिताभ बच्चन के साथ काम करने से क्यों मना कर दिया था!

मिर्जापुर सीरीज के अपने किरदार 'दद्दा त्यागी' से फिर चर्चा में आए जाने-माने एक्टर-राइटर एम.एम. फारूक़ी (लिलिपुट) से सिकन्दर कुमार की बातचीत

मिर्जापुर-2 के एक सीन में मशहूर एक्टर और राइटर एम.एम. फारूकी उर्फ लिलिपुट
मिर्जापुर-2 के एक सीन में मशहूर एक्टर और राइटर एम.एम. फारूकी उर्फ लिलिपुट
अपडेटेड 4 दिसंबर , 2024

एम.एम. फारूकी, जिन्हें लोग उनके स्टेज नेम 'लिलिपुट' से ज्यादा जानते हैं, भारतीय सिनेमा इंडस्ट्री के एक शानदार अभिनेता और लेखक हैं. 90 के दशक में जब दूरदर्शन का सुनहरा दौर चल रहा था, उन्होंने कई लोकप्रिय धारावाहिकों में लेखन के साथ-साथ अभिनय भी किया. उन्होंने जहां पॉपुलर साइंस फिक्शन सीरीज इंद्रधनुष (1989) लिखी, तो मशहूर सिचुएशनल कॉमेडी देख भाई देख (1993) जैसे सीरियल में काम किया. 

लिलिपुट ने सागर (1985), बंटी और बबली (2005) सहित कई बॉलीवुड फिल्मों में भी काम किया. लेकिन उन्हें हाल फिलहाल में शोहरत मिर्जापुर-2 वेब सीरीज में निभाए उनके किरदार 'दद्दा त्यागी' के बाद मिली. उन्होंने खुद एक इंटरव्यू में माना भी कि मिर्जापुर के बाद उनकी एक नई जर्नी शुरू हुई है. इंडिया टुडे हिंदी से उन्होंने अपनी चार दशक लंबी फिल्मी यात्रा के बारे में काफी दिलचस्प बातचीत की. पेश है उसके संपादित अंश -

1. लिलीपुट नाम रखने का आइडिया कहां से और कैसे आया?

मैंने स्कूल में 'गुलिवर इन द लैंड ऑफ लिलीपुट' पढ़ा था. लिलीपुट मुझे याद रह गया. जब मैं इंडस्ट्री में आने लगा तो मैंने सोचा कि अपना नाम चेंज करूं. जब सबने किया है तो मैं कौन-सा तुर्रम खां हूं जो चेंज न करूं (हंसते हुए). तो मैंने भी अपना नाम 'लिलीपुट' रख लिया.

2. क्या आप मानते हैं कि अगर अमिताभ बच्चन के साथ काम करने का मोह न होता, तो आप करिअर में ज्यादा ऊंचाई हासिल करते? (एक समय लिलीपुट के पास काम बहुत था. लेकिन अमिताभ बच्चन के साथ जब सुभाष घई ने 'शेरबहादुर' बनाने का फैसला किया, जिसमें लिलीपुट भी काम करने वाले थे तब लिलीपुट ने उन सारे प्रोजेक्ट को हाथ से जाने दिया. बदकिस्मती से बाद में 'शेरबहादुर' भी ठंडे बस्ते में चली गई)

नहीं, ऐसा नहीं है. इस पर मैंने एक जोक बनाया था और अमित जी (अमिताभ बच्चन) को सुनाया भी था. वे इसपर बहुत हंसे थे. उनके साथ दो-तीन फिल्मों में ट्राई हुआ. एक फिल्म 'शेरबहादुर' थी, वो नहीं बनी. फिर मैंने अमित जी के साथ 'आलीशान' फिल्म की, जिसमें हम दोनों पैरलल रोल में थे. वो भी 12 दिन की शूटिंग के बाद बंद हो गई. फिर एक और अनाम फिल्म की बात हुई, लेकिन वो भी लॉन्च नहीं हुई. तब मैंने अमित जी से कह दिया - "नाऊ डोंट ट्राई टू एक्ट विद मी" (अब मेरे साथ काम करने का प्रयास मत कीजिए). (जोर से हंसते हुए)

3. वेस्टर्न फिल्मों या सीरीज में बौने किरदारों को काफी अहमियत दी जाती है, लेकिन भारत में उनके लिए संघर्ष कितना है?

इसका जवाब देना जरा मुश्किल है क्योंकि हमारे यहां जो फिल्ममेकर्स हैं, उनको शायद बौने लोग इंसान नहीं लगते. हमारे जमाने में तो बहुत ही ज्यादा माहौल खराब था. अब तो बहुत बदलाव हुआ है. लोगों की मानसिकता बदली है. लोग हमें इनसान समझने लगे हैं, आदर देने लगे हैं, प्यार देने लगे हैं. हमारे जमाने में ऐसा नहीं था, बल्कि तब तो जीने का अधिकार ही छीन लेते थे. हॉलीवुड तो बहुत पहले से ही हमसे बहुत आगे रहा है. इस मामले में भी वे हमसे बहुत आगे हैं.

देखिए, लोगों की मूल सोच यही है स्क्रीन पर अच्छा दिखना बहुत जरूरी होता है. समाज में आदमी अच्छा दिखे या न दिखे, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है. दादी-नानी की कहानियों में मुख्य किरदार हमेशा घोड़े पर सवार, सुन्दर दिखने वाला होता था. फिल्मों की कहानियों में भी हीरो हैंडसम है, लंबा-चौड़ा है, मोटरबाइक उड़ा लेता है. अब उम्मीद ही कर सकते हैं कि लोग अगर फिक्शन डेवलप करें तो चीजें और बेहतर हो सकती हैं.

4. आपने कहा कि आपके जमाने में बौने किरदारों का जीने का अधिकार छीन लिया जाता था. कोई वाकया हो तो बताएं?

हुए हैं, पर अब बोलना नहीं चाहिए. जो हो गया सो हो गया. बीती हुई यादें हमें इतना न सताओ, चैन से रहने दो मेरे पास न आओ.

5. आपको जो फिल्में ऑफर हुईं, उनके किरदारों को देखकर कभी लगा कि आपके कद को लेकर स्टीरियोटाइप बनाने की कोशिश की जा रही है?

यह तो हुआ ही है. इंडस्ट्री में मुझे बहुत से ऐसे रोल ऑफर हुए, जिनमें वही छोटे कद को आधार बनाया गया था. लेकिन मैंने हमेशा ऐसी फिल्मों में काम करने से मना किया. मुझे खुद को एक एक्टर के रूप में स्थापित करना था. अगर मैं उस दुष्चक्र में फंस जाता तो मैं जो बनना चाहता था, वह नहीं बन पाता. फिल्मों को मना करने से मैं इंडस्ट्री में बदनाम भी हो गया कि देखो "इतना सा है लेकिन इसका घमंड कितना बड़ा है."

6. क्या यही वजह रही कि मनपसंद काम नहीं मिलने की वजह से आप लेखन की ओर मुड़े? जैसे चमत्कार (1992) आपने लिखी.

सच बताऊं तो लेखन मैंने पेट की आग बुझाने के लिए ही शुरू किया था. चमत्कार से पहले मैंने दूरदर्शन के लिए लिखा था इधर-उधर. फिर इसी बहाने लिखा, इंद्रधनुष लिखा. उसके बाद चमत्कार लिखी, फिर देख भाई देख लिखा. लेखन मैंने पैसों के लिए ही शुरू किया था, बेसिकली मैं लेखक हूं नहीं.

7. आपने कहा था कि मिर्जापुर-2 से आपकी नई जर्नी शुरू हुई, ओटीटी आने के बाद से क्या बदलाव देखते हैं?

ओटीटी के आने के बाद से मुझे ऑफर्स तो आए, लेकिन उस तरह के नहीं, जैसा मैं चाहता हूं. हां, ऑडिएंस या व्यूअर्स में बहुत ज्यादा इम्प्रूवमेंट हुआ. मैं यह कह सकता हूं कि मिर्जापुर के बाद मेरे चाहने वालों की संख्या चौगुनी हो गई.

8. आपने अपने लंबे करियर में सिनेमा, दूरदर्शन को करीब से पूरी तरह बदलते देखा है. अब तो ओटीटी भी आ गया है, इस पूरे दौर को आप कैसे देखते हैं?

देखिए, परिवर्तन प्रकृति का नियम है. यह होगा और होता ही रहेगा. समाज में कई चीजें बदल जाती हैं. पहले के दौर में थोड़ा सा फर्क यह था कि एक लेखक के रूप में हम देखते थे कि कोई ऐसी बात न हो जाए जिससे लोगों तक गलत सोच पहुंचे. तो समाज की एक फिक्र रहती थी. कोशिश यही रहती थी कि जितना अधिक शुद्ध, शाकाहारी मजाक हो और लोग एन्जॉय करें. साथ ही, भारतीय संस्कृति बनी रहे.

लेकिन धीरे-धीरे इंडस्ट्री का पश्चिम की ओर खिंचाव होता गया. अब फिल्में हिंदी में बनती हैं लेकिन सोच अंग्रेजियत वाली होती है. मुझे ऐसा लगता है कि हॉलीवुड की तुलना में हम (हिंदी सिनेमा) अपनी ही चीजों से हट गए हैं. दरअसल, यह बड़ा पेचीदा मामला है. मेकर्स कहते हैं कि जनता जो देखती है वही हम बनाते हैं. और जनता वही देखती है जो मेकर्स बना देते हैं. यह वही बात है कि पहले मुर्गी आई या अंडा!

9. दूरदर्शन समय के साथ प्रतिस्पर्धा क्यों नहीं कर पा रहा है?

दूरदर्शन अभी तक नानी-अम्मा की कहानी पर ही टिका हुआ है. नानी-अम्मा की कहानी तो अब बच्चे भी नहीं सुनते! वो (दूरदर्शन) अपनी चीज छोड़ना नहीं चाहते, हम वो देखना नहीं चाहते.

10. पिछले साल एक इंटरव्यू में आपने टीवी कलाकारों को मिलने वाले पैसे को लेकर शिकायत की थी, अब भी उस पर कायम हैं?

हां, बहुत बोला था मैं. फालतू में बहुत बदनाम भी हो गया. चैनल वालों ने तो मुझे काम भी देना छोड़ दिया कि ये तो बहुत बगावती है, झंडा उठा रहा है इसे दूर रखो. तो अब न बोलूंगा भैया (हंसते हुए).

11. आपको लगता है ओटीटी पर कंटेंट को लेकर कुछ सुधार होने चाहिए?

ओटीटी से मैं खुश हूं. इसलिए कि राइटर जो लिखना या कहना चाहता है, उसे करने दिया जा रहा है. डायरेक्टर जैसा बनाना चाहते हैं, वे बना पा रहे हैं. लोगों को थोड़ा सा ऑब्जेक्शन है कि ओटीटी पर किरदार गालियां बहुत देते हैं. लेकिन मेरा कहना है कि पहले समाज से गालियां खत्म कराओ. लोगों को समाज में गालियां सुनने से बुरा नहीं लगता लेकिन ओटीटी पर सुनने में बुरा लग रहा है. यह तो हिप्पोक्रेसी है. हम तो समाज से ही चीजें लेकर दिखाते हैं न!

12. लेकिन गाली तो पहले भी समाज में थी, पुरानी फिल्मों या धारावाहिकों ने इससे परहेज किया?

नहीं, इतनी नहीं थी. उस वक्त लोग फिर भी शरीफ थे. इस तरह से गालियां नहीं बकते थे. पहले बाप अपने बेटे के साथ शराब कहां पीता था...अब तो बाप-बेटे साथ बैठकर शराब पीते हैं. तो समाज तो बदला है न! और हम समाज से ही कैरेक्टर उठाते हैं. हम एक जाहिल किरदार को सॉफिस्टिकेटेड (परिष्कृत) जुबान कैसे दे सकते हैं. हां, एक चीज है जिससे मैं सहमत हूं. जो चीज परदे की है उसे परदे में ही रखें. सेक्स सीन की जो भरमार देखने को मिलती है वो उतना नहीं होना चाहिए.

13. सिनेमा इंडस्ट्री में अपनी अब तक की चार-पांच दशक लंबी जर्नी से आप कितना संतुष्ट हैं?

अगर इंसान संतुष्ट हो जाए तो फिर मर ही जाए! इंसान जब तक जीवित है, वह संतुष्ट नहीं होता है. वह और अच्छा करना चाहता है, और यही होना चाहिए. इस भावना को कभी मरने नहीं देना चाहिए.

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