scorecardresearch

वोटिंग के बाद उंगली पर लगने वाली स्याही की कहानी

कर्नाटक सरकार के तहत आने वाली कंपनी मैसूर पेंट्स एंड वार्निश लिमिटेड इस स्याही को बनाती है और 25 से ज्यादा देशों में इसका निर्यात भी होता है

प्रतीकात्मतक तस्वीर
प्रतीकात्मतक तस्वीर
अपडेटेड 23 अप्रैल , 2024

दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक पर्व कहा जाने वाला लोकसभा चुनाव 2024 शुरू हो गया है. पहले चरण का मतदान 19 अप्रैल को हो चुका है और अभी छह चरणों की वोटिंग बची है. इस बीच कई सारे नए मतदाता, जो पहली बार वोट दे रहे हैं, उन्हें आपने सोशल मीडिया पर अपनी स्याही लगी ऊंगली दिखाते हुए तस्वीरें खिंचवाते देखा होगा.

यह स्याही दरअसल अमिट होती है (करीब 72 घंटे तक) और इसलिए लगाई जाती है ताकि उन मतदाताओं की पहचान की जा सके और मत देने की प्रक्रिया में किसी भी तरह की धांधली या दोहराव की स्थिति न बन पाए. लेकिन क्या कभी आपने सोचा है कि यह स्याही बनाता कौन है और इसकी शुरुआत कब हुई थी?

बाएं हाथ की तर्जनी पर गाढ़ी नीली/बैंगनी रंग की यह स्याही आज भारत में चुनावी प्रक्रिया का पर्याय बन चुकी है. पहले आम चुनाव (1951-52) में भारतीय चुनाव आयोग (ईसीआई) की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि इस स्याही को कांच की सलाई से लगाया जाता था. इस रिपोर्ट के मुताबिक, "यह स्याही काफी संतोषजनक साबित हुई है, इसका प्रमाण इस तथ्य से मिलता है कि इसका इस्तेमाल कई स्थानीय निकायों के चुनावों में भी किया जा रहा है.'' राज्यों के पहले चुनावों में इस स्याही की कुल 3,89,816 बोतलें चुनाव आयोग ने खरीदी थी.

अभी की बात करें तो 2024 के आम चुनावों के लिए कर्नाटक सरकार के तहत आने वाली कंपनी मैसूर पेंट्स एंड वार्निश लिमिटेड ने 10 एमएल की 26.5 लाख फायल्स (छोटी-छोटी शीशियां) तैयार किए हैं. हर फायल की कीमत करीब 174 रुपए हैं. स्याही लगाने की प्रक्रिया की बात करें तो सबसे पहले वोटर मतदान केंद्र पर अपनी पहचान की जांच कराता है. इसके बाद ईवीएम पर बटन दबाकर अपना वोट डालने से पहले, उसकी उंगली पर यह स्याही लगाई जाती है. यही प्रक्रिया सालों से अपनाई जा रही है, भले ही ईवीएम ने बैलट पेपर्स की जगह ले ली हो.

इस स्याही के बारे में 1951 के रिप्रेजेंटेशन ऑफ पीपल्स एक्ट (जनप्रतिनिधित्व कानून) में जिक्र किया गया है. इस कानून की धारा 61 के तहत यह कहा गया है कि मतदान के लिए बैलट पेपर दिए जाने से पहले प्रत्येक मतदाता के अंगूठे या किसी दूसरी उंगली पर निशान लगाने के लिए इसी अधिनियम के तहत नियम बनाए जा सकते हैं. अगर किसी मतदाता की उंगली पर पहले से ही यह स्याही लगी हुई है तो उसे बैलट पेपर ना दिए जाने की बात भी यह कानून करता है.

आपको बता दें कि यहां बार-बार ईवीएम को छोड़ बैलट पेपर का जिक्र इसलिए आ रहा है क्योंकि इस कानून के बनने से लेकर कई सालों तक मतदान के लिए बैलट पेपर का ही इस्तेमाल किया जाता था.

इस स्याही को बनाने में सिल्वर नाइट्रेट का इस्तेमाल किया जाता है. यह ऐसा रंग-विहीन केमिकल है जो पराबैंगनी किरणों या सूर्य की रौशनी में आने के बाद नजर आने लगता है. जितनी ज्यादा इस सिल्वर नाइट्रेट की मात्रा स्याही में होगी, स्याही की गुणवत्ता उतनी ही बेहतर होगी. इसके अलावा स्याही में अल्कोहल भी होता है ताकि स्याही उंगली पर लगते ही सूख जाए. करीब 72 घंटों तक यह स्याही साबुन, डिटर्जेंट और अन्य हैंड वाश लगाने से भी नहीं धुलती.

माई-गव वेबसाइट के मुताबिक, फर्जी मतदान से बचने के लिए 1960 के दशक में सीएसआईआर के वैज्ञानिकों ने इस स्याही पर काम शुरू किया. इस स्याही के लिए भारतीय चुनाव आयोग ने दरख्वास्त की थी. बाद में इसे नेशनल रिसर्च डेवलेपमेंट कॉर्पोरेशन ने पेटेंट करवा लिया. तीसरे आम चुनाव के लिए 1962 में पहली बार मैसूर पेंट्स एंड वार्निश लिमिटेड को यह स्याही तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी और तभी से यही कंपनी इस चुनावी स्याही में रंग घोल रही है.

ऐसा नहीं है कि सिर्फ भारत में ही इस अमिट स्याही का इस्तेमाल चुनाव के दौरान किया जाता है. माई-गव वेबसाइट के मुताबिक, मैसूर पेंट्स की बनाई इस स्याही का 25 से ज्यादा देशों में निर्यात किया जाता है जिसमें कनाडा, नेपाल और दक्षिण अफ्रीका भी शामिल हैं. हालांकि स्याही लगाने का तरीका हर देश में अलग-अलग है.

Advertisement
Advertisement