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सम्पत सरल के 'तमाशेबाज राजा' में आपका किरदार कौन-सा है?

मौजूदा समय में हास्य व्यंग्य के शानदार रचनाकारों में से एक सम्पत सरल का व्यंग्य नाटक है - तमाशेबाज राजा. इसके जरिए उन्होंने बड़ी सरलता से कॉरपोरेट, राजनीति और धर्म की जुगलबंदी को बेपर्दा किया है

सम्पत सरल का व्यंग्य नाटक है : तमाशेबाज राजा
सम्पत सरल का व्यंग्य नाटक है : तमाशेबाज राजा
अपडेटेड 12 सितंबर , 2024

पिछले कुछ सालों में मशहूर व्यंग्यकार सम्पत सरल की एक हास्य रचना 'तमाशेबाज राजा' सोशल मीडिया पर खूब लोकप्रिय रही है. उस रचना की कुछ शुरुआती पंक्तियां यूं हैं - राजा छंटा हुआ तमाशेबाज था. वह अपनी प्रजा के मनोविज्ञान से अवगत था कि अमीर-गरीब, ज्ञानी-अज्ञानी कोई हों, सब तमाशा घुस के देखते हैं. उसे पता था कि तमाशेबाजी से एक बार प्रजा के सम्मोहित होते ही राजा और प्रजा में ऐसी ट्यूनिंग हो जाती है कि राजा सिर पीटने की बात भी कहे तो प्रजा तालियां पीटने लगती है. सम्पत सरल की यही रचना अब व्यंग्य नाटक के रूप में पाठकों के बीच है. नाटक का नाम भी 'तमाशेबाज राजा' ही है. 

इस नाटक के जरिए सम्पत ने काफी सरलता से कॉरपोरेट, राजनीति और धर्म की जुगलबंदी को बेपर्दा किया है. इस किताब में शायद ही ऐसा कोई संवाद हो जिसमें कोई चुटीली या फिर गूढ़ बात दर्ज न मिले. जैसे सम्पत अपने एक किरदार के हवाले से कहलाते हैं, "जिस राज्य की गद्दी पर अपना हित साधक राजा बिठाना हो, कोई कॉरपोरेटिया वहां के नागरिकों के गले में लटकाने के लिए घंटियों की सप्लाई शुरू करता है. वातावरण इस कदर घंटीमय हो उठता है कि जिन कवियों, पत्रकारों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों की जिम्मेदारी जिन घंटियों को कॉरपोरेटिये के गले में बांधने की होती है, वे तक उनसे उसकी आरती उतारने लगते हैं."

एक अन्य जगह राजा के रूप में उनका एक किरदार गुस्से में आकर कहता है, "मेरे होते राज्य में ऐसा लोक-कल्याणकारी काम कोई अन्य कैसे कर सकता है?" सम्पत ने मौजूदा समय के पाखंड पर चोट करने के लिए राजा-मंत्री जैसे किरदारों का ही सहारा लिया है जो अब स्मार्टफोन से लैस हो चुके हैं. बात-बात पर सेल्फी लेने वाला राजा जैसे तकिया कलाम के तौर पर ये वाक्य बार-बार दुहराता रहता है - मैं जीते-जी जल्द से जल्द अमर होना चाहता हूं.

नाटककार ने राजनीति, धर्म और कॉरपोरेट के मुख्य किरदारों से सजी फिल्म के पर्दे के पीछे के उन दृश्यों को, व्यंग्य के साफ-सुथरे पर्दे पर दिखाने में सफलता पाई है जो आम लोगों की नजरों में अक्सर आ नहीं पाता. सम्पत ने यह दिखाने की कोशिश की है कि कैसे कॉरपोरेट अपने हित के लिए एक राजा गढ़ता है. और वो राजा नागरिकताबोध विहीन किए जा चुके अपने भक्तों के सहारे सिंहासन पर टिका रहना चाहता है, प्रासंगिक बने रहने के लिए हर समय ऊटपटांग हरकतों पर उतारू रहता है.

चर्चा में बने रहने के लिए वो राजा जहां गुफा में 'ध्यान' करने जाता है, वहीं रेडियो पर अपनी 'मूड की बात' के जरिए लोगों को उपदेश भी देता रहता है. नाटक के एक दृश्य में (जब राजा के गुफा में ध्यान का लाइव टेलीकास्ट हो रहा होता है) एंकर जब ब्रीफकेस बाबा से ध्यान के प्रकार के बारे में पूछता है तो बाबा उसे कुछ यूं बताते हैं, "ध्यान के चार रूप होते हैं बच्चा. ध्यान लगाना, ध्यान रखना, ध्यान खींचना और ध्यान भटकाना. राजा गुफा में समारोहपूर्वक ध्यान लगा रहा है, कैमरों का बराबर ध्यान रख रहा है, खूबसूरती से लोगों का ध्यान खींच रहा है और सफलतापूर्वक प्रजा का मूल मुद्दों से ध्यान भटका रहा है."

एक दृश्य में 'मूड की बात' कार्यक्रम के दौरान राजा मेहनत के दुर्गुणों और कसरत के सद्गुणों पर अपने मूड की बात शेयर कर रहा होता है. वो कहता है कि चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद मनुष्य देह मिलती है. इसलिए मनुष्य-जीवन मेहनत करने में न गंवाएं. लेकिन यहीं इसी राजा से सम्पत बड़ी मारक बात भी कहलाते हैं. मुलाहिजा फरमाइए - कसरत के लाभ इससे समझे जा सकते हैं कि राज्य में दो फीसद कसरत करने वालों के पास 98 फीसद धन-संपत्ति है और 98 फीसद मेहनत करने वालों के पास सिर्फ दो फीसद. इसी क्रम में राजा एक जगह कहता है, "कसरती बदन का रौब पड़ता है, मेहनती बदन दया का पात्र बना रहता है."

सम्पत ने इस व्यंग्य नाटक में मीडिया को भी आड़े हाथों लेने में कोताही नहीं बरती है. एक टीवी डिबेट के दौरान एंकर टेबल पर मुक्का मारते हुए कहता है, "होश में रहो मांगीलाल (एक पैनलिस्ट). जानते नहीं, न्यूज चैनलों पर रोटी-कपड़ा-मकान, महंगाई-बेरोजगारी, शिक्षा-स्वास्थ्य की बात करना राजद्रोह है." 

आधुनिक समय में जब धर्म, राजनीति, मीडिया, कॉरपोरेट और दिखावापन का ऐसा नेक्सस हो चला है कि कोई अगर सीधे समस्या के बारे में बात करना चाहे तो इस राह में उसे ट्रोल, बाधाएं तमाम तरह की दुश्वारियां आ सकती हैं. ऐसे में सम्पत सरल ने इन सभी बातों और मौजूद समय के इन पाखंडों को दर्ज करने के लिए 'तमाशेबाज राजा' का आसरा लिया है. कहने को ये एक व्यंग्य नाटक है लेकिन असल में यह समाज की सच्चाई है जिसे सम्पत ने हंसते-हंसाते अपने नाम के उपनाम के अनुरूप बड़े सरल ढंग से पाठकों के हवाले कर दिया है.

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