क्लीशे, यानी घिसी-पिटी उक्तियों से उन्हें चिढ़ सी है. लेकिन लिखने की ललक ऐसी, कि वे कहते हैं "नहीं लिखूंगा तो पागल हो जाऊंगा." और जब लिखा तो हमेशा अपनी एक नई लकीर खींची. फिर चाहे वो गैंग्स ऑफ वासेपुर का 'वुमनिया' गाना हो या दम लगा के हईशा का 'ये मोह मोह के धागे' और 'दर्द करारा'.
90 और 2000 के दशक का बॉलीवुड जहां दिल, जिगर और सनम जैसे शब्दों से पटा पड़ा है, लेकिन गीतकार, पटकथा लेखक और डायरेक्टर वरुण ग्रोवर बिना इन 'क्लीशे' शब्दों के गीतों की एक नई दुनिया रचते हैं जहां सुकून भी है और एहसास भी.
वरुण ग्रोवर को जानवरों से बहुत लगाव है. एक बार तोतों का एक झुंड सबसे छोटे तोते को छोड़कर उड़ गया, और वह बेचारा उड़कर बोरीवली, मुंबई में स्थित वरुण के घर जा पहुंचा. यह वरुण का इंसानों से इतर किसी दूसरी प्रजाति से पहला साबका था. उन्हें जल्द ही ये सुखद एहसास हुआ कि इंसानों के अलावा भी दुनिया में कितनी चीजें हैं जिनका एक्सपीरियंस किया जा सकता है. आज उनके घर में जानेमन, दिलबर और छेनापोड़ा नाम के बिल्ले-बिल्लियां हैं. वरुण और उनकी पत्नी ने तय किया है कि वे किसी संतान को जन्म नहीं देंगे.
वरुण ने कुछ कमाल के गीत तो लिखे ही हैं, मसान जैसी फिल्म के पटकथा लेखक भी हैं. 2023 में बतौर डायरेक्टर उनकी एक फिल्म भी आई - ऑल इंडिया रैंक. लेकिन इससे पहले वो एक शॉर्ट फिल्म 'KISS' (चुम्बन) के जरिए डायरेक्शन में कदम रख चुके थे. अब यही शॉर्ट फिल्म 1 जून को मूबी पर प्रीमियर हो रही है, जो सेंसरशिप के मुद्दे पर बेस्ड है.
इस मौके पर वरुण ग्रोवर ने इंडिया टुडे हिंदी के सब-एडिटर सिकन्दर के साथ KISS फिल्म से जुड़े तमाम पहलुओं पर दिलचस्प बातचीत की. उन्होंने सेंसरशिप के मुद्दे पर खुलकर अपनी राय रखी. और इस संजीदा राइटर-डायरेक्टर ने यह भी बताया कि वे अपने इंस्टाग्राम हैंडल पर 'विदूषक' क्यों लिखते हैं. बातचीत के संपादित अंश:
● आपकी एक शॉर्ट फिल्म KISS एक जून को मूबी पर प्रीमियर हो रही है, इसके बारे में बताएं?
यह बतौर डायरेक्टर मेरी पहली फिल्म है. यह एक शॉर्ट फिल्म है जो 16 मिनट की है. सेंसरशिप इसका मुद्दा है, जो मेरे दिल के बहुत करीब है. हमारे सिनेमा में, आर्ट में, कल्चर में जिस तरह से सेंसरशिप को लेकर बात होती है, और इसने जिस तरह से हमारे दिमाग में घर किया हुआ है, तो मैं इसकी तह में जाना चाहता था.
इस फिल्म में थोड़ा सटायर है, साइंस फिक्शन है और थोड़ा इमोशन है. ये सारी चीजें जोड़कर मैंने एक छोटी कहानी लिखी, और फिल्म बनाई. इसमें स्वानंद किरकिरे हैं, आदर्श गौरव हैं, शुभ्रज्योति बरात हैं और भी बहुत कमाल के एक्टर्स हैं. शॉर्ट फिल्म एहसानों से बनती है, अपने आप से नहीं बनती. बहुत से लोग सपोर्ट करते हैं तो शॉर्ट फिल्म बन जाती है.
● हाल ही हमने इंडियाज गॉट लेटेंट में रणवीर अलाहबादिया के कमेंट से उपजी कंट्रोवर्सी को देखा. किसी फिल्म या शो के लिए आप किस हद तक सेंसरशिप को जायज मानते हैं?
मैं तो सेंसरशिप के पूरा खिलाफ हूं. फ्रीडम ऑफ स्पीच को लेकर हमारा संविधान या सुप्रीम कोर्ट कहता है कि इसके साथ एक कंडीशन है कि यह हिंसा को बढ़ावा देने वाला नहीं हो, किसी को एक्शन लेने के लिए उकसाने वाला नहीं हो. अगर कोई हेट स्पीच नहीं है, वायलंस स्पीच नहीं है, किसी व्यक्ति को उकसा नहीं रही है कि वो जाकर कोई बुरा काम कर दे, तो मुझे लगता है कि फिर चाहे वो कोई भी मीडिया हो, उसमें फ्री स्पीच की जगह मिलनी चाहिए.
अगर जनता को कोई चीज बुरी लगती है तो वो जरूर उसे जाहिर कर सकती है, क्योंकि वहां भी फ्री स्पीच है. जो भी कंटेंट क्रिएटर हैं, वे पब्लिक रिएक्शन से सेल्फ सेंसरशिप सीखेंगे. क्योंकि अल्टीमेटली सेंसर हमारे विवेक में है. अगर किसी का विवेक टूटा-बिखरा है और उसे नहीं पता है कि कहां क्या बोलना है क्या नहीं, तो समाज जब हल्ला मचाएगा तब वे सुधर जाएंगे. अगली बार वो नहीं करेंगे वैसा. अब इसमें पुलिस भी आ जाए, मंत्री भी आ जाएं तो मेरे हिसाब से ये थोड़ा सही नहीं है.
● अभी एजाज खान का हाउस अरेस्ट शो विवादों में आया, जिस पर आरोप लगा कि वहां 'सॉफ्ट पॉर्न' परोसा जा रहा है. अश्लीलता और इस तरह के शो पर सेंसरशिप की बाउंड्री तय करना कितना जरूरी है?
अश्लीलता के लिए बाउंड्री कहां है! मैंने ये शो तो नहीं देखा, लेकिन उल्लू एप के बारे में सब जानते हैं कि वहां इस तरह के उत्तेजक कंटेंट आते हैं जिन्हें आप 'अश्लील' कह सकते हैं. लेकिन इसके अलावा ये सब और कहीं नहीं आता क्या? इंटरनेट पर तो सारी पॉर्न वेबसाइट भी उपलब्ध हैं.
अगर कानून है कि अश्लीलता कहीं भी बिलकुल नहीं दिखानी है, तो फिर वो कानून है. अगर नहीं है तो फिर आप एक आदमी के लिए कानून बना रहे हैं, दूसरे के लिए नहीं, तो फिर ये मुझे नहीं पता. अश्लीलता बड़ा सब्जेक्टिव मामला है.
● ओटीटी के इस दौर में जो राइटर्स रूम कॉन्सेप्ट है, जिसमें 5-8 लेखक मिलकर किसी फिल्म या वेब सीरीज की स्क्रिप्ट लिखते हैं. क्या आप इस कॉन्सेप्ट से सहमत हैं. अगर हां, तो इसका कंटेंट पर क्या असर देखते हैं?
राइटर्स रूम कोई आज का कांसेप्ट नहीं है. आज से 40 साल पहले अमेरिका में जो 'साइनफेल्ड' शो आता थे, उसमें राइटर्स रूम होता था. अगर आपको शो लिखना है, तो राइटर्स रूम एक अच्छा कांसेप्ट है. क्योंकि शो में बहुत तरह के किरदार होते हैं, बहुत सारे विषय होते हैं. अगर तीन-चार लोग मिलकर लिखते हैं तो उससे कुछ फायदे होते हैं. अव्वल इससे शो में डायवर्सिटी आती है.
अगर राइटर्स रूम में चार लोग देश के अलग-अलग राज्यों से हैं, तो शो में उनके अपने-अपने पर्सपैक्टिव साथ में आते हैं. मेरे खयाल से राइटर्स रूम एक अच्छा कांसेप्ट है, अगर इसे अच्छे से इस्तेमाल किया जाए.
● एक तरफ मसान, उड़ान और गुलाल जैसी फिल्में हैं जो दर्शकों तक टॉरेंट, ओटीटी या रेकमेंडशन के तहत पहुंचती हैं. दूसरी तरफ बड़े बजट वाली और सितारों से सजी फिल्में, जो बड़े पैमाने पर दर्शकों तक पहुंचती हैं. क्या वजह है कि मसान जैसी फिल्में धीरे-धीरे दर्शकों में मकबूलियत पाती हैं?
ये तो मार्केट का मॉडल है. मैं 20 सालों से टीवी, स्टैंड-अप कॉमेडी और फिल्मों से जुड़ा हूं, और मुझे भी नहीं पता कि इसका क्या तरीका है. शायद किसी को भी नहीं पता. यह एक बड़ा ही वोलाटाइल (अस्थिर) मार्केट है. कभी चीजें हो जाती हैं कभी नहीं. इसका कोई जवाब नहीं है.
● किसी भी फिल्म में इमोशन का अहम रोल होता है. बतौर एक फिल्ममेकर दर्शकों को बताइए कि वो एक जेनुइन इमोशन किसी फिल्म में कैसे पैदा किया जाता है? इसके लिए क्या खास तैयारी करनी पड़ती है?
किसी फिल्म में जेनुइन इमोशन ऑथेंटिसिटी (प्रामाणिकता) से आता है. मेरे लिए बड़ा जरूरी है कि कोई कहानी एक समय और एक जगह की हो. अगर उसे उस समय से निकाल दिया जाए तो कहानी बिखर जाए, उस जगह से निकाल दिया जाए तो वो कहानी बिखर जाए.
इसलिए टाइम एंड स्पेस बड़ी जरूरी चीजें हैं. और उस टाइम और स्पेस को आप जितनी प्रामाणिकता के साथ दिखाएंगे, जितना उसकी रिसर्च करेंगे उतना उसमें इमोशन आएगा. बस किरदार की सच्चाई सामने आनी चाहिए. मेरा सीधा सा फॉर्मूला है कि इंसान तब वल्नरेबल होता है जब उसकी सच्चाई सामने आती है. और जब वल्नरेबिलिटी और सच्चाई सामने आती है, तब इमोशन आ जाता है.
● आप निजी जीवन और प्रोफेशनल लाइफ में काफी संजीदा नजर आते हैं, लेकिन इंस्टाग्राम हैंडल पर विदूषक लिखते हैं. इसके पीछे क्या सोच है?
पुराने समय में एक विदूषक राजा के दरबार में सबसे सीरियस इंसान होता था. क्योंकि उसे बड़ी मुश्किल बातें कहनी होती थी, थोड़े मजाकिया अंदाज में. ऐसे में विदूषक को तैयार रहना पड़ता था. जीवन में बहुत संजीदा होना पड़ेगा ताकि संजीदगी को घूमा फिरा कर कहीं किसी सटायर, व्यंग्य के जरिए सामने रख पाएं.