
जब जिंदगी लेफ्ट-राइट-सेंटर, हर तरह और तरफ से आपका इम्तेहान ले रही हो, तब आप क्या करते हैं? सबके अपने जवाब होंगे. क्योंकि सबके अपने तरीके होते हैं. लेकिन इंसानी दिमाग के साथ एक बात खास है. हमेशा आसान रास्ता लेना. और जब आप ही की तरह जीवन से चहुंओर हारता इंसान कोई तरीका खोजता है तो आपको बस इतना करना है कि उसकी नकल करते जाएं.
जिगोलो, या पुरुष सेक्सवर्कर का पेशा कई दशकों से इंडियन मिडिल क्लास के लिए समाधान से ज्यादा फैंटेसी का मामला रहा है. सत्य कथाओं से लेकर अन्तर्वासना की कहानियों तक ने भारतीय पुरुषों की इस कल्पना में घासलेट का काम किया है. सिचुएशनल कॉमेडी की कैटेगरी में इसी सब्जेक्ट पर एक वेब सीरीज हाल ही में नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई है. मानव कौल और तिलोत्तमा शोम जैसे कद्दावर कलाकारों के साथ बनी ये सीरीज इस सब्जेक्ट और एंटरटेनमेंट दोनों को साध पाती है या नहीं, आगे समझते हैं.
क्या है कहानी ?
त्रिभुवन मिश्रा (मानव कौल) नोएडा में अपने परिवार के साथ रहता है और नोएडा विकास निगम लिमिटेड के दफ्तर में सरकारी चार्टर्ड अकाउंटेंट है. करीबन सारे दफ्तर के बेईमान कर्मचारियों के बीच त्रिभुवन इकलौता ईमानदार कामगार है. गांव से पढ़ाई करके निकला और अब परिवार की बुनियादी ज़रूरतों के बीच फंसा त्रिभुवन किसी भी आम मिडिल क्लास परिवार की तरह हमेशा पैसों की किल्लत से जूझता रहता है. जब सारे दफ्तर के लोग कार से आते हैं यह सीए अपनी ईमानदारी की वजह से एक पीले स्कूटर पर पान खाता हुआ दफ्तर पहुंचता है. गांव में पिता ने पुराने मकान के रेनोवेशन का काम उसी के बल पर शुरू किया है. पिता के हिसाब से मकान का काम गांव में इज्जत का सवाल है.
ऐसे में एक बैंक जिसमें त्रिभुवन का सारा पैसा जमा है, किसी लोन फ्रॉड का शिकार हो जाता है और उसके सारे खाते सीज हो जाते हैं. नोएडा में उसके परिवार के नाम पर उसकी पत्नी अशोक लता मिश्रा (नैना सरीन) और दो बच्चों के अलावा त्रिभुवन का साला इंश्योरेंस एजेंट के तौर पर काम करता है और बार-बार अपने जीजा को उनकी ईमानदारी का ताना देता रहता है. अचानक बच्चों की स्कूल फ़ीस, गांव के मकान और रोजमर्रा के खर्चों में फंसा त्रिभुवन जिगोलो बनने का फैसला करता है और यहीं से कहानी में नया मोड़ आता है.

कैसी है एक्टिंग
करीब नौ घंटे, जी हां...इसे दोबारा पढ़िए, नौ घंटे की ये सीरीज अगर किसी एक वजह से पूरी देखी जा पाती है, तो वो सिर्फ और सिर्फ एक्टिंग है. मानव कौल और तिलोत्तमा शोम की एक्टिंग इकलौता कारण है जो दर्शकों को अंतिम एपिसोड तक ला पाता है (अगर ला पाया हो तो). नोएडा में एक हलवाई कम गैंगस्टर ज्यादा के किरदार में शुभ्र ज्योति बरत की एक्टिंग तो ठीक है लेकिन उनका किरदार ज़रुरत से इतना ज्यादा खिंच गया है कि अंत तक आते-आते बरत अपनी एक्टिंग के दम पर भी अपने किरदार का चार्म बचाए नहीं रख पाते.
त्रिभुवन की पत्नी अशोक लता के किरदार में नैना सरीन बहुत असरदार साबित नहीं हो पातीं, लेकिन गैंगस्टर की पत्नी बिंदी के किरदार में तिलोत्तमा शोम के बरक्स देखने पर नैना का काम ठीक लगता है. गैंगस्टर के गुर्गे के किरदार में पंचायत फेम अशोक पाठक में करीब-करीब नाउम्मीद ही कर दिया है. हालांकि इसमें अशोक पाठक की गलती नहीं, उनका किरदार लिखने में हुई ढिलाई का कुसूर है.
त्रिभुवन के भ्रष्ट बॉस के किरदार में श्रीकांत वर्मा हमेशा की तरह मज़ेदार दिखे हैं, हालांकि उन्हें शुरुआत में पर्दे पर दिया गया अधिकतम स्क्रीन टाइम भी इसकी एक वजह है. पंचायत फेम 'पहलाद चा' फैज़ल मलिक इस बार पुलिसवाले के रोल में पुराने दिनों की याद दिलाते हैं जब 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' में उन्होंने पुलिसवाले का रोल किया था. लेकिन मज़े की बात देखिए कि गैंग्स में महज़ कुछ सेकेंड का किरदार उन्हें यहां तक ले आया लेकिन इस बार ठीक-ठाक स्क्रीन टाइम भी उतना मज़ा दिला नहीं पाया जैसा असर उपजाने में मलिक को उस्तादी हासिल है. बाकी के किरदार उतने असरदार नहीं हो पाते कि उनके बारे में अलग से बात की जाए.

स्क्रीनप्ले की समस्या ?
बात असल में ये है कि 'त्रिभुवन मिश्रा सीए टॉपर' एक फिल्म के तौर पर कहीं ज्यादा कामयाब साबित होती बनिस्पत के इतनी लंबी खींची गई सीरीज के. जाने क्यों यह बात मेकर्स को समझ नहीं आई. अब अगर मेल सेक्सवर्क जैसे बेहद सेंसेटिव मुद्दे पर सीरीज लिखी ही जा रही थी तो इसे इसी कायदे से बरतना भी ज़रूरी था.
जैसे, यही एक पॉइंट पर गौर करें. त्रिभुवन मिश्रा को एक ऐसे आदमी के तौर पर दिखाया गया है जिसके लिए वैल्यू सिस्टम किसी भी दूसरी चीज से ज्यादा ज़रूरी है. इसी वास्ते वो गरीबी में रहने को तैयार है लेकिन पैसे लेकर फ़ाइल पर साइन नहीं करता. अब अचानक वो सेक्स वर्क करने को तैयार होता है और पहली बार जब घर लौटता है तो वैसे ही सो जाता है जैसे वो गर दिन दफ्तर से लौटकर सोता है, चैन से. जबकि त्रिभुवन बेहद मजबूरी में आख़िरी रास्ते के तौर पर ये काम शुरू करता है. पहली बार पैसे के लिए सेक्स करके लौटते हुए कोई गिल्ट नहीं? कोई दुविधा नहीं? व्यवहार में कोई बदलाव नहीं? थोड़ा अखरता है ये.
जैसे रियल मिर्ज़ापुर में रील वाले मिर्ज़ापुर की तरह कोई माफिया नहीं और कोई गद्दी की लड़ाई नहीं, वैसे ही नोएडा में किसी हलवाई का कॉन्ट्रैक्ट किलर होना सिर्फ फैंटेसी की बात लगती है. जिस तरह टीकाराम जैन का किरदार स्क्रिप्ट में लिखा गया शायद उससे ज्यादा ही बरत ने स्क्रीन पर डिलीवर किया. ये सब चीजें ढीली लिखाई के बारे में सोचने पर मजबूर करती हैं.

लोकेशन
एक बहुत ज़रूरी चीज जिसका ध्यान रखा जाना था वो है लोकेशन के साथ जस्टिस. अगर इस सीरीज को किसी फिक्शनल जगह प्लेस कर दिया जाता तो भी कोई दिक्कत की बात नहीं थी. लेकिन जब आप एक जिंदा जगह के नाम पर कहानी कहते हैं तो उसका रस भी कहानी में होना चाहिए. नोएडा कहते ही देखने वाला आपकी कहानी में नोएडा जैसा देखना चाहता है. लेकिन आप उसे क्या दे रहे हैं? सिवाय ड्रोन शॉट से ट्रैफिक दिखाने के आप नोएडा का कोई फैक्टर नहीं दिखा रहे. त्रिभुवन तो चलो गांव से आकर काम के सिलसिले में इस जगह बसा है लेकिन टीकाराम जैन? और बाकी गैंगस्टर? ये सब तो लोकल ही हैं न? ना इसकी भाषा और ना ही बिहेवियर से कहीं लगता है कि ये नोएडा के प्राणी हैं. जबकि भाषा और व्यवहार में नोएडा अपना एक अलग रंग रखता है जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता. यहां भी एक बड़ी चूक दिखाई देती है.
खिंच गई ज्यादा?
बेशक. इस कांसेप्ट पर दुनिया भर में पहले भी फ़िल्में बनी हैं. लेकिन भारत में समस्या ये है कि यहां पुरुष सेक्स वर्क को कभी गंभीरता से बरता ही नहीं गया. इस मामले में भारतीय स्क्रीनराइटर्स को एक बार 1980 के करीब आई हॉलीवुड फिल्म ‘अमेरिकन जिगोलो’ ज़रूर देखनी चाहिए.
दूसरी बात, नौ घंटे खींचने के लिए जिस तरह से गैंगस्टर और किडनैपिंग वगैरह को सीरीज में जबरन घुसेड़ा गया है उससे कहानी दूसरे एपिसोड में जाकर ही पूरी तरह बिखर जाती है.

और अंत में प्रार्थना
कुल मिलाकर जिस तरह बिना प्रमोशन और गाजे-बाजे के ये सीरीज चुपचाप रिलीज हुई और उसके बाद भी इसकी ज्यादा कहीं चर्चा नहीं हो रही, उसकी वजह साफ समझ आती है. इस सीरीज को पूरा देखना अपने आप में टास्क है. अगर पेशे से जुड़ी मजबूरी ना हो तो, किसी का कोई पर्सनल कनेक्शन ही उसे आख़िरी एपिसोड तक खींच के ला पाएगा.
कोई हैरानी की बात नहीं कि कल को इस सीरीज का दूसरा सीजन भी आ जाए. लेकिन OTT के महासागर में जबरन की सीजन लहर लाने वाले क्रिएटर्स को अब थोड़ा ठहरकर ये सोचना चाहिए कि कब पुल करना है और कब पुश करना है.