1940 के दशक के रक्तपात से लेकर आज चंद गुटों के पूंजीवाद तक कलकत्ता का अंडरवर्ल्ड एक ही लगातार कायम जोड़ पर टिका है और वह है आपराधिक-राजनैतिक गठजोड़. शिक्षाविद टुम्पा मुखर्जी अपनी थीसिस ‘अंडरवर्ल्ड इन कलकत्ता/कोलकाता 1946-2002’ (विद्यासागर विश्वविद्यालय) में लिखती हैं, “1946 से 2002 तक इस दुनिया को बांधने वाला एकमात्र धागा आपराधिक-राजनैतिक/प्रशासनिक गठजोड़ है”.
कम ही जिंदगियां इसका उतना अच्छा उदाहरण हैं जितनी गोपाल चंद्र मुखोपाध्याय या गोपाल ‘पाठा’ की जिंदगी है. यह विवेक अग्निहोत्री की फिल्म द बंगाल फाइल्स का मुख्य किरदार है. 1946 के ‘कलकत्ता के भीषण हत्याकांड’ के दौरान गोपाल ‘पाठा’ की रक्षक या तारणहार कहकर जयजयकार की गई और जवाबी रक्तपात का संयोजक होने के नाते उससे खौफ खाया गया.
कलकत्ता की कॉलेज स्ट्रीट पर मांस का व्यापार करने वाले परिवार में जन्मे गोपाल को ‘पाठा’ की उपाधि इसी व्यापार से मिली, जिसका बंगाली में मतलब बकरी होता है.
मगर उनके वंशजों का कहना है कि ‘पाठा’ बकर पाठा यानी साहस का बिगड़ा हुआ रूप है, जो उनकी हिम्मत और दिलेरी का ही छोटा नाम है. 1940 के दशक के मध्य तक वह कलकत्ता के बहूबाजार का जाना-माना दबंग था, जो हिंदू-मुस्लिम कारोबारी तंत्र के बीच लेन-देन करता था. डायरेक्ट ऐक्शन डे यानी सीधी कार्रवाई के दिन (16 अगस्त 1946) वह ‘लड़कर लेंगे पाकिस्तान’ के नारों के बीच बहूबाजार से हैरिसन रोड तक पैदल चला. बेलियाघाटा में दो हिंदू ग्वालों की हत्या की खबर सुनकर वह फटाफट बदला लेने की योजना बनाने लगा.
वह “क्रांतिकारी पृष्ठभूमि वाले परिवार से आया था” और उसके चाचा अनुकूल मुखर्जी ने रोड्डा हथियार लूटकांड की व्यूहरचना और अगुआई की थी. ऐसे में गांधीवादी अहिंसा को ठुकराकर गोपाल पाठा ने भारत जातीय बाहिनी खड़ी की, जिसमें “एक समय करीब 400 कार्यकर्ता थे”. उसने इसका दोटूक लोकाचार तय किया : “एक हत्या के बदले उन्हें दस हत्याएं करनी चाहिए”, और “बर्बरता का जवाब बर्बरता से देने” की कसम खाई. उसके योद्धाओं के पास लाठियां, बंदूकें और “भारत छोड़ो आंदोलन के बचे-खुचे विस्फोटक तक” थे, जबकि खुद उसके पास “अमेरिका में बनी दो 0.45 बोर की पिस्तौलें और हथगोले” थे, जो अमेरिकी सैनिकों से हासिल किए गए थे.
दंगों के पहले 24 घंटे सामुदायिक और राजनैतिक थे. दूसरे दिन तक वे ज्यादा से ज्यादा अंडरवर्ल्ड के हाथों में चले गए. नारियाकी नाकाजातो (टोक्यो विश्वविद्यालय) लिखते हैं कि 17 अगस्त 1946 को “स्वयंसेवी निराकार भीड़ में बदल गए और मध्यमवर्गीय हिस्सेदार जलती सड़कों से अपने घर लौट गए”. उनके जाने के बाद हिंसा का नया रूप सामने आया : कभी “पढ़े-लिखे सम्मानीय मध्यमवर्गीय लोगों” के साथ लड़ रहे गुंडे अब “मोटे तौर पर पार्टी अनुशासन से आजाद और सामाजिक निषेधों से मुक्त” काम कर रहे थे.
1920 के आसपास पुलिस की शब्दावली में दाखिल हुआ गुंडा “तस्करी, गिरोहबंद डकैती, जुआ, वेश्यावृत्ति, श्रम वार्ताओं और आपराधिक हिंसा” में लिप्त “विशेष श्रेणी का अपराधी” था. लेकिन अहम बात यह कि हिफाजत के बदले सियासतदानों (और अक्सर पुलिस) के साथ रिश्तों की बदौलत बराबर चर्चा में बना रहता था.
1930 के दशक तक पार्टियां खुलेआम उन्हें रिझा रही थीं; यहां तक कि 1937 में सियासतदां सुरेंद्र मोहन घोष ने सुभाष चंद्र बोस के घर को “अवांछित, शराबी और सड़कछाप आवारा लोगों” से भरा बताया, जबकि हुसैन शहीद सुहरावर्दी को उनके विरोधियों ने “कलकत्ता के गुंडों का नेता” करार दिया. ढाका में हुए 1944 के दंगों के बाद एक पुलिस इंस्पेक्टर ने लिखा कि “अर्ध-भद्रलोक हिंदू बदमाश” सामने आ गया, जो आपराधिक लामबंदी के सभी वर्गों में फैले होने का प्रमाण था.
16 अगस्त 1946 को कलकत्ता के ऑक्टरलोनी स्मारक पर मुस्लिम लीग की विशाल रैली में हिंसा भड़क उठी. बंगाल की खुफिया शाखा ने रिपोर्ट दी कि भीड़ में गुंडों को “भर्ती” किया गया था; सुनियोजित हो या न हो, लेकिन “बड़ी तादाद में मुस्लिम गुंडे चुपचाप सभा से निकल गए, और सभा खत्म होने के बाद आ मिले दूसरे लोगों के साथ” उन्होंने धरमतोला, वेलेस्ली, कॉरपोरेशन स्ट्रीट और चौरंगी में “लूटपाट की और हिंदू दुकानों व घरों में आग लगाई.”
इस अफरातफरी में गोपाल ‘पाठा’ और बेलियाघाटा के एक अखाड़े के मालिक जुगल चंद्र घोष सरीखे हिंदू मोहल्लों के बाहुबली रक्षा और प्रतिशोध के रहनुमा बन गए. जुगल ने हिंदू महासभा के सचिव बिधुभूषण सरकार और इंटक के सुरेश चंद्र बनर्जी के साथ काम करते हुए आरा मिलों, डेयरियों और कारखानों से धन उगाहा. जैसा कि मुखर्जी उल्लेख करती हैं, जुगल चंद्र घोष ने बाद में याद किया : “मैंने चार ट्रक खड़े देखे, सभी लाशों से लदे थे, कम से कम तीन फीट ऊंचा अंबार लगा था, बोरे में भरे गुड़ की तरह, उस दृश्य का मुझ पर जबरदस्त असर पड़ा.”
मुसलमानों की तरफ हबीबुर रहमान जिसे हबू गुंडा के नाम से जाना जाता था, वो खड़ा था. इसके नाम के साथ कुछ और भी तमगे थे जैसे “लालबागान बस्ती का आतंक”, जंग के वक्त पेट्रोल का अवैध धंधेबाज और ‘मुस्लिम लीग डायरेक्ट ऐक्शन प्लान’ परचे से जुड़ा मुस्लिम लीग का कार्यकर्ता. नाकाजातो लिखते हैं, सीधी कार्रवाई के दिन एक ब्रिटिश सार्जेंट ने “एक मुस्लिम जुलूस” देखा, जिसकी “अगुआई बैंड और मुस्लिम झंड़ों वाली एक बड़ी लॉरी कर रही थी. कुछ के हाथों में नंगी तलवारें और दूसरों में लाठियां थीं”, वाहन (नं. सीएचएस 841) की पहचान इस तरह हुई : “मैं जानता हूं, लालबागान बस्ती का हबू”, “बुरे किरदार के तौर पर पहचाना जाने वाला”.
कुछ दिन बाद हबू ग्रे स्ट्रीट-चितपुर में “दोनों हाथों में चाकू लिए लड़ते हुए” मारा गया; उस चौराहे से 150 से ज्यादा लाशें हटाई गईं. लीग के मुखपत्र ‘डॉन’ ने उसे शहीद के तौर पर पेश किया : “हिंदुओं के खिलाफ अकेला लड़ा और कई लोगों को मारने के बाद दबोचा गया. उसका सिर धड़ से काटकर अलग कर दिया गया. फिर लाश पेड़ पर लटका दी गई और उस पर लिखा दिया गया ‘हबीब को पाकिस्तान मिल गया’.”
मृतकों का आंकड़ा चौंकाने वाला था. सितंबर 1946 तक 3,553 लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका था; कम से कम 402 की पहचान गुंडों के रूप में की गई. बाद में 2,924 गुंडों को रिहा कर दिया गया, जिनमें से कई हत्याओं और आगजनी में लिप्त थे.
इस तरह गोपाल ‘पाठा’ कुछ के लिए हीरो था और दूसरों के लिए खतरा. मुखर्जी लिखती हैं कि “दंगों के दौरान गोपाल और भारत जातीय बाहिनी को तारणहार और हीरो कहकर जयजयकार की गई”. जानबाजार के हिंदुस्तानी बोलने वाले गैर-बंगाली ग्वाले भी हाथों में बांस लिए उनके साथ जुड़ गए. लेकिन गोपाल की नीति बदले पर ही टिकी रही : “बर्बरता का जवाब बर्बरता से दो.”
जब 1990 के दशक में पत्रकार एंड्रयू व्हाइटहेड उनसे मिले, तो इस बुढ़ाते डॉन ने घटनाओं का शेखी भरा ब्योरा पेश किया. व्हाइटहेड ने गोपाल का यह दावा दर्ज किया कि उसने गांधी को दो बार नकार दिया : “इन्हीं बाजुओं से मैंने अपने इलाके की महिलाओं को बचाया, लोगों को बचाया. मैं उन्हें अकेला नहीं छोड़ दूंगा. मैंने कहा, कलकत्ता के भीषण हत्याकांड के दौरान ‘गांधी कहां था’? किसी को मारने के लिए अगर मैंने एक कील का भी इस्तेमाल किया, तो वह कील तक मैं नहीं दूंगा.”
पुलिस रिकॉर्ड से पता चलता है कि गोपाल 4 सितंबर 1947 को दो बार गांधी से मिला था. अपने गिरोह के नेताओं के साथ उसने शांति का वचन दिया और गांधी से अनशन खत्म करने का आग्रह किया. गांधी ने “महज मुंहजबानी आश्वासनों” से ज्यादा की मांग की- हथियार सौंपने होंगे. उस शाम गोपाल अकेला लौटा; गांधी ने उसे छिपी हुई स्टनेगनों का रास्ता बताया और उन्हें लाने को कहा. गोपाल राजी हो गया लेकिन केवल तभी जब “मुस्लिम गुंडों” को भी हथियार रहित जाए. पुलिस ने बाद में लिखा कि “शुरुआत में वादा करने के बावजूद बाद में उसका मन बदल गया और उसने कोई भी घातक हथियार नहीं सौंपने का फैसला किया”.
गोपाल ‘पाठा’ सरीखे लोगों को ताकतवर बनाने वाले ढांचों की जड़ें मोहल्ले के क्लबों, बंदरगाह पर मजदूरों की कतारों और राजनैतिक संरक्षण में थीं. गोपाल की राजनैतिक पैठ भी इतनी ही खुली थी. व्हाइटहेड उसके “बंगाल कांग्रेस के आकाओं और खासकर डॉ. बिधान चंद्र रॉय के साथ करीबी रिश्ते” दर्ज करते हैं, हालांकि उसकी विचाराधारात्मक निष्ठा सुभाष चंद्र बोस के साथ थी.
अपने मलंगा लेन के दफ्तर में वह प्लास्टिक में लपेटकर नेताजी की मूर्ति रखता था और हर साल 23 जनवरी (बोस के जन्मदिन) को उसका अनावरण करता था. दूसरे कोने में गोल बक्सा रखा था जिसमें कभी डॉ. रॉय की अस्थियां रखी जाती थीं. गोपाल के पोते शांतनु मुखर्जी याद करते हैं कि 1962 में रॉय की मौत के बाद गोपाल ने अस्थियां लाकर सुरक्षित रखीं और हफ्ते भर लंबे ‘सर्वधर्म समन्वय’ कार्यक्रम का आयोजन किया.
सड़क की ताकत को राजनैतिक पूंजी में बदलने का यह पैटर्न आजादी के बाद भी कायम रहा. 1940 के दशक के पेट्रोल बमों और हथगोलों ने रीयल एस्टेट, श्रम ‘जुगाड़’ और चुनावी बाहुबल के आगे घुटने टेक दिए. जैसा कि जनरल फ्रांसिस टकर लिखते हैं, अगर “कलकत्ता के अंडरवर्ल्ड की प्रतिद्वंद्वी सेनाओं” ने 1946 की पटकथा को फिर दोहराया, तो उत्तर-औपनिवेशिक कलकत्ता ने उसमें महारत हासिल कर ली; वही क्लब, नेताओं के वही कटआउट, अखाड़ों का वही रौबदाब- जिस पर अब ठेकों और निविदाओं की चाशनी चढ़ी थी.
बंगाल के आखिरी ब्रिटिश गवर्नर फ्रेडरिक बरोज ने इशारा किया कि कलकत्ता का भीषण हत्याकांड गुंडों की सेनाओं का टकराव भर नहीं था; यह ध्रुवीकृत राजनीति, जुलूसों और सांप्रदायिक गिले-शिकवों को भुनाने के लिए तैयार अंडरवर्ल्ड का मेल भी था. जब “मध्यमवर्गीय हिस्सेदार पीछे हट गए”, तो गुंडों ने भीड़ों को हत्यारी मशीनों में बदल लिया. इस बदलाव के बीचोबीच गोपाल ‘पाठा’ खड़ा था : संगठनकर्ता, कुछ के लिए रक्षक, दूसरों के लिए भक्षक- और सबसे बढ़कर इस बात का सबूत कि कलकत्ता में राजनीति और अंडरवर्ल्ड के बीच की सीमा हमेशा झिरझिरी रही है.