
ऐसा कम होता है लेकिन कभी-कभी कुछ फिल्में, सिर्फ फ़िल्में नहीं, दस्तावेज़ होती हैं. वो सिर्फ कहानियां नहीं सुनातीं, बल्कि हमारे जुनून में कुछ नया जोड़ जाती हैं. एक शहर, कुछ लोग, एक जुनून और वो सारे अधूरे सपने जो छोटे-छोटे कैमरों के लेंस में बड़ी दुनिया देखने की जिद करते हैं. इसी जिद का दस्तावेज है अमेजन प्राइम पर स्ट्रीम हो रही फिल्म ‘सुपरबॉयज़ ऑफ मालेगांव’.
मालेगांव, जो सिर्फ नाम का गांव है
हमारी आपकी दुनिया में अनगिनत गांव हैं. गोरेगांव से लेकर बाहरगांव तक. लेकिन ‘सुपरबॉयज़ ऑफ मालेगांव’ एक ऐसे गांव की कहानी है जिसकी किस्सागोई पहले से ही बहुत मशहूर रह चुकी है. मालेगांव शहर है, एक ऐसा शहर जो भले ही देश के नक्शे में बस एक बिंदु हो, लेकिन यहां हर गली एक फिल्म की स्क्रिप्ट है, हर चाय की दुकान एक एडिटिंग रूम और हर बच्चा एक संभावित हीरो. और ऐसा अपने आप नहीं हुआ.
फैज़ा अहमद खान ने सुपरमैन ऑफ मालेगांव नाम की डाक्युमेंट्री बनाई थी. इस कहानी के केंद्र में नासिर शेख थे. वे महाराष्ट्र के मालेगांव में रहते हैं. अपना वीडियो पार्लर और शादियों में वीडियो रिकॉर्डिंग का काम था. लेकिन नासिर को जूनून था अपनी फिल्म बनाने का. लेकिन अपनी इस जिद के पीछे नासिर मुंबई नहीं गए, बल्कि ऐसा काम किया कि मुंबई को ही मालेगांव आना पड़ा.
साइकिल पर कैमरा बांधकर ट्रॉली सीन का जुगाड़ करने से लेकर ऑटो रिक्शा को पर्दे से घेरकर मेकअप रूम बनाने जैसी सेल्फ़ हेल्प तकनीकें खोजकर, नासिर ने ‘मालेगांव के शोले’ फिल्म बनाई. जो बेसिकली ‘शोले’ फिल्म की पैरेडी थी. ये फिल्म मालेगांव में तो हिट हुई ही, इसने मालेगांव के बाहर भी लोगों को जम के हंसाया. इसके बाद नासिर शेख ने पैरेडी का सिलसिला लंबा चलाया, जो ‘सुपरमैन ऑफ मालेगांव’ तक आता है. इसी फिल्म की मेकिंग पर फैज़ा ने जब डाक्युमेंट्री बनाई तो दुनिया के लिए सिनेमाई नक़्शे पर मालेगांव ने अपनी मौजूदगी दर्ज कराई.
‘सुपरबॉयज़ ऑफ मालेगांव’ की क्या है कहानी?
इस फिल्म में कहानी है नासिर शेख की. लेकिन इसे रीमा कागती ने इतने शानदार तरीके से डायरेक्ट किया है कि ये कहानी किसी एक किरदार की नहीं लगती है. ये उस हर शख्स की कहानी है जिसने कभी सिनेमा के ख्वाब देखे हैं बिना इस बात की परवाह किए कि कैमरा कौन देगा, रील कहां से आएगी और एडिटिंग का सॉफ्टवेयर कौन चलाएगा. और यही इस फिल्म को बनाने से पहले सबसे बड़ा सवाल भी था मेकर्स के सामने. लोग कह रहे थे कि फैज़ा की डाक्युमेंट्री में इतने विस्तार से मालेगांव की बात की गई है और मालेगांव की इतना चर्चा हो रखा है कि फिल्म में नया क्या लाएंगे.
इस सवाल का जवाब रीमा कागती और वरुण ग्रोवर सिर्फ एक ही तरीके से दे सकते थे. चुप रहकर. और ये उन्होंने बखूबी किया. चुपचाप मालेगांव को पढ़ते रहे, बार-बार किसी टेक्स्ट बुक की तरह. और फिर मालेगांव ने जब अपनी कहानियों की तहदार गलियां इनके सामने खोलीं तो एक मुकम्मल फिल्म इनके सामने थी.

एक्टिंग में कमाल हुआ है
आदर्श गौरव ने नासिर का किरदार निभाया है- निभाया नहीं, जिया है. उनके चेहरे पर वो मासूमियत है जो आपको सोचने पर मजबूर कर देती है कि क्या ये वाकई कोई एक्टर है या नासिर खुद कैमरे के सामने आ गया है? विनीत सिंह और शशांक अरोड़ा जैसे आर्टिस्ट फिल्म की कहानी को सिर्फ आगे नहीं बढ़ाते, बल्कि उसमें अपनी रूह घोल देते हैं. ऐसा कई बार होता है कि किसी सीन में कोई ज़ोरदार डायलॉग नहीं होता, लेकिन फिर भी आपकी आंखें नम हो जाती हैं.
कैमरे का कमाल भी देखने लायक है
इस फिल्म की सिनेमेटोग्राफी पर बात करने से पहले थोड़ा रुकना चाहिए, क्योंकि कैमरे ने सिर्फ फ्रेम नहीं कैद किए, उसने सपने देखे हैं. मालेगांव की तंग गलियों से लेकर चौक की दुकानों तक, हर जगह की रोशनी, धूल, दीवारों की दरारें… सब कुछ. यह वही कैमरा है जो महंगे सेट्स की जगह ज़मीन पर बैठकर फिल्म बनाता है. मालेगांव की कहानी में कैमरे की मार्फ़त मालेगांव भरपूर मौजूद है.
ये रीमा के बस का ही काम था !
रीमा का निर्देशन न तो दिखावा करता है, न ही कोई भारी-भरकम तकनीकी करतब करके आपको चौंकाता है. उनकी स्टाइल एक पुरानी डायरी जैसी है, जिसमें हर पन्ने पर जिंदगी के छोटे-छोटे किस्से दर्ज हैं. रीमा मालेगांव के किरदारों के बीच गायब हो जाती हैं- और शायद यही एक निर्देशक की सबसे बड़ी ताकत होती है. कहानी को रीमा ने इस खूबी से अनगढ़ रखा है कि इसकी बारीक नक्काशीदार गढ़ावट आपको नज़र नहीं आती.

बकौल वरुण ग्रोवर ‘राइटर बाप होता है...’
वरुण ग्रोवर की लेखनी एक फीलिंग है- एक ऐसी फीलिंग जो शब्दों से ज़्यादा चुप्पियों में बहती है. नासिर जब चुप बैठा होता है, तो भी उसके आसपास का सारा शोर आपको सुनाई देता है. दोस्ती की हंसी, बेबसी, घर की टपकती छत और सपनों की उड़ान- ये सब बिना ज़्यादा बोले ही आप तक पहुंच जाते हैं. फिल्म में वरुण का वो स्टेटमेंट बहुत फबता है जब फ़रोग के किरदार में विनीत सिंह पूरा ज़ोर लगाकर कहते हैं ‘राइटर बाप होता है...’
सिनेमा बनाम सपना
"सुपरबॉयज़ ऑफ मालेगांव" हमें बताती है कि असली सिनेमा सिर्फ बड़े पर्दे पर नहीं होता- वो तब भी बनता है जब कोई लड़का मोबाइल कैमरे से शूट करता है, जब कोई अपनी नौकरी के पैसे जोड़कर एक स्क्रिप्ट छपवाता है, और जब पूरी कॉलोनी मिलकर एक पोस्टर बनाती है.
यह फिल्म उस ‘बॉलीवुड’ के मुकाबले खड़ी होती है जो हमें सिखाता है कि हीरो होने के अपने तय कायदे और मानी हैं. मालेगांव के सुपरबॉयज़ हमें दिखाते हैं कि हीरो वो होता है जो हारने के बाद भी शूटिंग की तारीख तय करता है.
अंत में...
यह फिल्म सिर्फ एक दस्तावेज़ नहीं, बल्कि एक आईना है जिसमें हम खुद को देख सकते हैं- कभी वो लड़का जो कैमरा पकड़ना चाहता था, कभी वो दोस्त जो स्क्रिप्ट लिखने चला था, या फिर वो दर्शक जिसे कभी किसी ने भी नहीं गिना. "सुपरबॉयज़ ऑफ मालेगांव" फिल्म नहीं, एक छोटा सपना पूरा होता देखने जैसा है. और जब फिल्म खत्म हो, तो हो सकता है आप भी सोचने लगें- "क्या मेरा भी कोई अधूरा सपना है जो किसी पुरानी अलमारी में पड़ा धूल खा रहा है!"