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'मधुरम् च स्वादिष्टम्....' दीघा के दुधिया मालदह आम की खास कहानी!

जिसे बिहार वाले फलों के राजा आम का चक्रवर्ती राजा मानते हैं, उस दीघा के दुधिया मालदह के दीघा मोहल्ले में बमुश्किल पांच सौ पेड़ बचे हैं. नाम बचा है, बस वही बिक रहा. अब बिहार सरकार इस दुर्लभ आम के पेड़ों की संख्या बढ़ाने और इसे जीआई टैग दिलाने में जुटी है

Digha Maldah Mango (Photo : Pushyamitra)
दीघा का दुधिया मालदह आम (फोटो : पुष्यमित्र)
अपडेटेड 6 जून , 2025

सफेदी लिए हरे रंग का छिलका, ऊपर से नीचे तक लगभग बराबर गोलाई, अंदर पतली-सी गुठली और रेशारहित भरपूर गूदा. खा लें तो मिठास अंतर्तम में घुल जाए. यह पटना के दीघा मोहल्ले का दुधिया मालदह आम है, जिसे बिहार के लोग आमों का राजा भी कहते हैं और सबूत के तौर पर घुमक्कड़शास्त्री राहुल सांकृत्यायन की उस टिप्पणी का जिक्र करते हैं, जो उन्होंने अपने शुरुआती जीवन में पटना यात्रा के दौरान कही थी. 

27 वर्ष की उम्र में राहुल जब पटना आए तो वे भीखमदास की ठाकुरबाड़ी में ठहरे थे, जो कदमकुआं मोहल्ले के पास है. अपनी पुस्तक मेरी जीवन यात्रा में वे लिखते हैं, “उस समय ठाकुरबाड़ी में रोज माल्दा आम आते थे. यह आमों का राजा पटना की खास चीज है, यह मुझे नहीं मालूम था.” 

दीघा का दुधिया मालदह आम सचमुच फलों के राजा आम की अलग-अलग किस्मों के बीच राजा है, यह एक विवादित बयान हो सकता है. क्योंकि इसी देश में अल्फांसो से लेकर, दशहरी और लंगड़ा तक के लिए ऐसे ही विशेषणों का इस्तेमाल होता है. मगर यह सच है कि तब दुनिया घूमने वाले राहुल सांस्कृत्यायन को यह मालदह आम सबसे ज्यादा पसंद आया था. इसके साथ इस आम की ब्रांडिंग की एक कहानी यह भी है कि चूंकि इस आम के पेड़ों को दूध से सींचा जाता था, इसलिए इसका नाम दुधिया मालदह पड़ गया है. हालांकि यह कितनी हकीकत है, कितना फसाना यह बात आगे समझते हैं.

इस आम के स्वाद की ब्रांडिंग कुछ ऐसी है कि आज भी पटना के हर चौक-चौराहे पर भले ही कोई भी आम बिके, बेचने वाला इसे दीघा का मालदह ही बताता है. यह अलग बात है कि अब दीघा के लगभग सारे बागीचे उजड़ गए हैं और कुछ संस्थानों में गिने-चुने जो पेड़ बचे भी हैं, उनका आम अब कम से कम पटना के बाजार में नहीं आता, मगर आम बेचने वाले आम के शौकीनों को इस भ्रम में जरूर रखते हैं कि वे जो आम खरीद और खा रहे हैं, वह दीघा का दुधिया मालदह ही है. और इस भरम में बुराई ही क्या है. यह फरेब भी तो दिलकश ही है! 

बहरहाल अब बिहार सरकार इस कोशिश में जुटी है कि दीघा के दुधिया मालदह आम के इस भरम को हकीकत में बदला जाए. पटना के कृषि अनुसंधान केंद्र ने इस खास किस्म के आम के पांच हजार पौधे तैयार कराए हैं, जिसे पहली जुलाई से पटना और आस-पास इलाकों में किसानों को लगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा, क्योंकि अनुसंधान के वैज्ञानिकों ने अपने शोध में पाया है कि दीघा मालदह के अब बमुश्किल 1500 से 2000 पेड़ बचे हैं. वह भी पटना जिले के ग्यारह प्रखंडों में. अगर सिर्फ दीघा मोहल्ले की बात की जाए तो इनकी संख्या पांच सौ से भी कम होगी.

उजड़ गया मीलों लंबा बागीचा, अब सिर्फ कुछ सौ पेड़ बचे

पटना के मीठापुर स्थित कृषि अनुसंधान केंद्र के क्षेत्रीय निदेशक शिवनाथ दास कहते हैं, “अगर सिर्फ दीघा मोहल्ले की बात की जाए तो सेंट जेवियर कॉलेज और उससे सटे आत्म दर्शन में, सदाकत आश्रम स्थित बिहार विद्यापीठ के परिसर में, कुर्जी के होली फैमिली अस्पताल में और दीघा और कुर्जी मोहल्ले में बसे कुछ लोगों के घरों में इस आम के पेड़ बचे हैं.”

इनमें सबसे पुराने पेड़ सदाकत आश्रम स्थित बिहार विद्यापीठ के परिसर में हैं, जिसके लिए स्वतंत्रता सेनानी मौलाना मजहरूल हक ने अपनी जमीन दी थी और जहां भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद रिटायर होने के बाद रहा करते थे. उस परिसर में सौ के करीब दीघा के दुधिया मालदह आम के पेड़ हैं. उनमें कुछ पेड़ सौ साल से भी अधिक पुराने बताए जाते हैं.

बिहार विद्यापीठ के परिसर में सबसे पुराने दीघा मालदह के पेड़ का आम

इस दुर्लभ बागीचे के आमों की खुशबू लेने जब हम उस परिसर में पहुंचे तो बागीचे के सबसे पुराने पेड़ के आम टूट रहे थे. पिछले 50 साल से इस बागीचे की देखरेख करने वाले माली मन्नूजी अपने तीन सहयोगियों के साथ इस महत्वपूर्ण जिम्मेदारी को निभा रहे थे. दो लड़के उस ऊंचे पेड़ की फुनगियों पर चढ़े जाली लगी लग्गियों से आम तोड़ते और पेड़ से टंगी एक बड़ी-सी जाली में आम गिराते और जब वह भर जाता तो उसे हौले से उतारा जाता. सबकुछ इस एहतराम से किया जा रहा था कि आम को कहीं से हल्की-सी भी चोट न लग जाए. मन्नू जी कहते हैं, “आम गिरा तो समझिए आम का भाव गिर गया. चोटाइल आम देखते ही ग्राहक बिदक जाता है. इसलिए हम लोग इसको बड़े आराम से इसको पेड़ से उतारते हैं.” 

फिर वे बड़े गर्व के साथ कहते हैं, “इस पेड़ का आम राजिंदर बाबू भी खाए हैं. यहां दीघा के दुधिया मालदह का सौ से अधिक गाछ है. हम अपने जमाने में देखे हैं, दीघा में हजारों दुधिया मालदह के पेड़ थे. सब पहले सुखा गया, फिर काट लिया. अब तो जहां-तहां थोड़ा बहुत बचा है, इसलिए इसका रेट भी ऊंचा है. हमारे यहां का मालदह 12 सौ रुपये में पांच किलो बिकता है.” 

जब पेड़ों में मंजर आने लगते हैं, तभी बिहार विद्यापीठ इस बगीचे को किसी कारोबारी को लीज पर दे देता है. फिर आम की देखरेख से लेकर इसकी तुड़ाई और बिक्री सब उस कारोबारी की जिम्मेदारी होती है. इस बार यह बागीचा दीघा के ही अखिलेश कुमार को मिला है. वे पहले भी कई बार इस बगीचे को लीज पर ले चुके हैं.    

अखिलेश बताते हैं, “हमलोग यहां के आम को किसी बाजार में नहीं भेजते, खासकर दुधिया मालदह को. लोग खुद बगीचे में आकर आम खरीदते हैं. यहां से आम देश और विदेश के कई इलाकों में जाता है. लोग आम खरीदकर अपने रिश्तेदारों को भेजते हैं. अभी कल यहां से एक ग्राहक ने आम दुबई भेजा. कुछ रोज पहले अमेरिका और सिंगापुर में भी यहां का आम भेजा गया है. वैसे तो दुधिया मालदह भागलपुर और दरभंगा में भी होता है मगर यहां के आम की बात ही अलग है. पटना शहर में दरभंगा और भागलपुर का मालदह भी दीघा मालदह के नाम से बिकता है. जबकि दीघा का एक भी मालदह आम बाजार नहीं जाता.”

आम के कारोबारी अखिलेश

अखिलेश दीघा के ही रहने वाले हैं, वे बताते हैं, “पहले राजपुर पुल से लेकर दानापुर के नासरीगंज तक लगभग नौ किमी की लंबाई में गंगा के किनारे सड़क के दक्षिणी तरफ दुधिया मालदह के बगीचे फैले थे. इस इलाके में मकान कहीं-कहीं थे, बाकी सिर्फ बगीचा था. मगर धीरे-धीरे बागीचा खत्म होने लगा. 20-25 साल पहले सारे बगीचे गायब हो गए. बस उतना ही बचा जितना अभी है.”

वहां आम खरीदने पहुंचे रविंद्र यादव कहते हैं, “हमें इस आम के स्वाद का चस्का लग गया है. अभी बाजार में जो भी आम मिलता है, उसमें यहां वाला स्वाद नहीं. इसलिए महंगा होने पर भी यही आम खरीदते हैं. इस बार भी हम 50 किलो आम ले रहे हैं. खुद भी खाएंगे और रिश्तेदारों को भी भेजेंगे.”

दीघा के कुछ बागीचे तो हाल ही में कटे हैं. वहां एक मिशनरी संस्थान ने सेंट जेवियर यूनिवर्सिटी की शुरुआत की, इस वजह से उसने अपने परिसर के दुधिया मालदह के पेड़ों की कटाई कर दी. ऐसे में उसके परिसर का बगीचा और छोटा हो गया. वहां के माली रामचरित्र बताते हैं, “यहां आत्म-दर्शन और सेंट जेवियर को मिलाकर दुधिया मालदह के 155 पेड़ बचे हैं. आत्म दर्शन में 125 पेड़ हैं, जो तीस साल पुराने हैं और सेंट जेवियर में पचास साल पुराना 30 ठो गाछ है.”  

आत्म-दर्शन सटा एक परिसर तरुमित्र फाउंडेशन का है. यह संस्थान वृक्षों के लिए काम करता है. तरुमित्र फाउंडेशन से जुड़ी देवप्रिया दत्ता कहती हैं, “हमलोग इसे बचाने के लिए इसकी ग्राफ्टिंग कर रहे हैं. परिसर में नए पौधे लगे हैं, जो एक ही साल में फल देने लगे हैं. हम इसकी गुठलियों को भी संरक्षित करके रखते हैं, इसे दूसरे जगहों पर भी भेजते हैं. खासकर महाराष्ट्र के इलाके में ताकि वहां के लोगों को यह न लगे कि आम सबसे अच्छा अल्फांसो ही है. दीघा का मालदह आम भी कम नहीं है. इसके लिए हम स्कूल-कॉलेज के बच्चों को जोड़ रहे हैं. दो साल पहले छात्रों का एक संगठन हमारे पास आया था, जिसका नाम था आम विचार. उन्होंने यह काम किया.”

दीघा से मालदह आम के पेड़ों के विलुप्त होने की कहानी लेखक और पुराने वक्त के पत्रकार प्रबुद्ध विश्वास भी बताते हैं. वे कहते हैं, “मैंने अपने जमाने में दीघा से सेंट माइकल से पोलसन डेयरी तक तीन किमी लंबा बागीचा देखा है. इसके खत्म होने की दो वजहें रहीं. पहली वजह 1975 के आसपास यहां आम के पेड़ों में कीड़ा लगने लगा जिसका बचाव नहीं हो सका. दूसरी वजह 1990 के बाद इस इलाके में तेजी से शहरीकरण हुआ, जमीन की कीमतें आसमान छूने लगीं, तो पेड़ कटते चले गए.”

वजह जो भी हो मगर अभी तो सच्चाई यही है कि दीघा में दीघा मालदह के पेड़ गिनती के रह गए हैं. न बागीचे बचे हैं, न फिर से इस इलाके में पेड़ लगाए जा सकते हैं, क्योंकि जगह भी नहीं बची. यही वजह है कि बिहार सरकार ने जब इस आम के लिए जीआई टैग लेने की कोशिश की तो इसका नाम बदलकर पटना का दुधिया मालदह कर दिया. दीघा शब्द ही हटा दिया.

कृषि अनुसंधान केंद्र को मिली है संरक्षण और प्रसार की जिम्मेदारी

इस आम के लिए जीआई टैग का कोशिश करने वाली संस्था कृषि अनुसंधान केंद्र के क्षेत्रीय निदेशक शिवनाथ दास कहते हैं, “ऐसा तकनीकी कारणों से किया गया है. अगर वहां से जांच के लिए टीम आए और उसे दीघा में पर्याप्त पेड़ ही न मिले तो आवेदन खारिज हो सकता है. पटना जिले में तो अभी भी इस आम के डेढ़ से दो हजार पेड़ हैं.” आवेदन के लिए पटना दुधिया मालदह आम उत्पादक संघ का गठन किया गया है और उसी के जरिये आवेदन कराया गया है. कृषि अनुसंधान केंद्र फेसिलिटेटर की भूमिका में है.

शिवनाथ दास बताते हैं, “पटना जिले के मनेर, बिहटा, नौबतपुर, फतुहा, फुलवारीशरीफ, दानापुर, पुनपुन समेत ग्यारह प्रखंडों के 42 गांवों में अभी इस आम के पेड़ हैं. हमलोग इस साल इसकी संख्या बढ़ाने की नई मुहिम शुरू कर रहे हैं. हमने दीघा मालदह के पांच हजार नए पौधे तैयार किए हैं. जुलाई से किसानों के बीच इसका वितरण किया जाएगा और कोशिश रहेगी कि पटना और इसके आसपास के इलाके में दीघा मालदह के नए बागीचे तैयार हो. ताकि यह मधुर और स्वादिष्ट आम के स्वाद का सुख ज्यादा से ज्यादा लोगों को मिल सके.” केंद्र ने इसकी टैगलाइन ही रखी है, ‘मधुरम् च स्वादिष्टम्’ (मीठा और स्वादिष्ट).

हालांकि दीघा मालदह को बचाने और बढ़ाने की यह मुहिम नई नहीं है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपने पहले कार्यकाल में राजभवन, अपने आवास और मंत्रियों के आवास में खाली जमीन पर इस आम के पौधे लगवाए थे, अब वे फल देने लगे हैं. उनमें भी वही स्वाद है, जो दीघा मालदह की खासियत रही है. 

इसके अलावा पटना जिले के जिन गांवों में दीघा मालदह के नए पेड़ हैं, उन्हें भी ग्रामीणों ने अपने प्रयास से लगाया है. खासकर दानापुर, मनेर और नौबतपुर के इलाके में इस आम के कई बागीचे मिलते हैं. 

हालांकि दीघा मालदह के जो पेड़ दीघा से बाहर के इलाके में लगे हैं, उनकी गुणवत्ता ठीक-ठाक होने के बाद भी वहां के किसानों को वैसी कीमत नहीं मिलती, जैसी दीघा के इन संस्थानों में पैदा होने वाले आमों को मिलती है. जहां बिहार विद्यापीठ परिसर का दीघा मालदह 12 सौ रुपये में पांच किलो बिकता है, आत्म दर्शन परिसर का दीघा मालदह आठ सौ रुपये में पांच किलो की दर से बिकता है. जबकि उस जगह से बमुश्किल 15 किमी दूर ब्यापुर गांव के बगीचे के दीघा मालदह को बमुश्किल 30 रुपये प्रति किलो की कीमत मिल रही है.

दीघा से 15 किमी दूर ब्यापुर के एक बगीचे में फल से लदा दूघिया मालदह, गुणवत्ता वही, बस नाम नहीं होने के कारण कीमत नहीं मिलती.

ब्यापुर के एक बागीचे को लीज पर लेकर आम की बिक्री करने वाले गोरख दावा करते हुए कहते हैं, “आप हमारे आम की क्वालिटी इसी बात से समझ सकते हैं कि एक-दो बार तो दीघा के एक संस्थान के आम कारोबारियों ने भी हमारा आम खरीदा और वहां अपने कैंपस में अपना आम बताकर बेचा. वे लोग कहते हैं, तुम लोगों का आम अच्छा है फिर भी इतना कम रेट क्यों मिलता है. बस नाम का मामला है.”

गोरख अपने एक पेड़ का दुधिया मालदह दिखाते हैं, फल के रंग-रूप और स्वाद में वह आम कहीं से कमतर नहीं लगता, मगर रेट में वे पिछड़ जाते हैं, क्योंकि नाम दीघा का है. हालांकि ब्यापुर का आम भी अब धीरे-धीरे ब्रांड बनने लगा है.

दीघा के आत्म-दर्शन परिसर के सामने कई आम विक्रेता टोकरियों में आम रखकर बेचते नजर आते हैं. पहले वे कहते थे, आत्म दर्शन परिसर का आम है, जिससे खरीदार झांसे में आ जाते थे. मगर अब वे कहने लगे हैं कि उनका आम ब्यापुर का है. वहां आम बेच रहे दिनेश राय कहते हैं, “ब्यापुर के आम में और इस कैंपस के आम के स्वाद में कोई खास अंतर नहीं है. स्वाद वही है, बस नाम का फर्क है. लोगों को लगता है यह दीघा का असली आम है तो आठ सौ और बारह सौ देकर भी खरीद लेते हैं. हम तीन सौ में भी पांच किलो बेचते हैं तो लोग मोल-मोलाई करते हैं.” ब्यापुर के अलावा बिशनपुरा और कंचनपुर गांव की पहचान भी दुधिया मालदह की वजह से बनने लगी है मगर असली ब्रांड आज भी दीघा ही है.

क्या दीघा और मनेर के दुधिया मालदह आम में भी फर्क है?

क्या सचमुच दीघा और मनेर, नौबतपुर के दुधिया मालदह आम के स्वाद में फर्क आ जाता है? कृषि अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिक एसपी सिन्हा इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते. वे कहते हैं, “पटना और भागलपुर या दरभंगा के आम की गुणवत्ता में फर्क हो सकता है मगर दीघा और मनेर की गुणवत्ता में ज्यादा फर्क नहीं होगा क्योंकि इलाका एक ही है. इस पूरे इलाके की मिट्टी थर्ड-बी जोन की है. दीघा और मनेर का जो इलाका है वह गंगा और सोन के संगम का इलाका है. हमने अपनी जांच में पाया है सोन और पुनपुन की वजह से इस आम में कैल्शियम और मैंग्नीशियम बाई कार्बोनेट पाया जाता है और गंगा की वजह से क्ले मिनरल. इन नदियों के संगम की वजह से ही यह आम दुधिया रंग का हो जाता है.”

वे इस किंवदंती से भी इनकार करते हैं कि इस आम के पेड़ों की सिंचाई दूध से होती थी, इसलिए यहां का मालदह आम दुधिया हो गया है. हालांकि दीघा के कुछ आम उत्पादक इस बात पर भरोसा करते हैं और कभी-कभार आज भी दूध में पानी मिलाकर इन आम के पेड़ों की जड़ में डालते हैं. इस बात की पुष्टि आत्म-दर्शन के माली रामचरित्र भी करते हैं. 

भारत के आमों पर एक रोचक पुस्तक मैग्निफेरा इंडिका-ए बायोग्राफी ऑफ द मैंगो  लिखने वाले सोपान जोशी ने अपनी किताब में दीघा के दुधिया मालदह का जिक्र किया है. वे कहते हैं, “दरअसल पहले सोन और गंगा दीघा के इलाके में ही मिलती थी और उस जगह एक काफी बड़ा ताजे पानी का तालाब था, जिसका नाम दीर्घ था, जो दीघा हो गया. तालाब के किनारे अमराईयां थीं. उस कारण वह जगह आम के लिए अच्छी मानी जाती थी. जब सोन नदी की धारा बदल गई और संगम मनेर के पास होने लगा तो तालाब खत्म हो गया तो अमराईयां रह गईं. वहां जो बागीचा लगा वह तो लगभग सौ साल पुराना ही है.”

आत्म दर्शन परिसर के बाहर आम बेचते विक्रेता

दीघा के आम के किस्से में एक किस्सा लखनऊ के किसी नवाब फिदा हुसैन का भी जुड़ता है और लोग-बाग कहते हैं कि उन्होंने मुल्तान से कुछ आम के पेड़ लाकर यहां लगाए थे. हालांकि सोपान जोशी इस किस्से से सहमत नहीं हैं. वे कहते हैं, “आम की असली जगह तो बिहार और बंगाल का इलाका है. दिलचस्प है इस आम के नाम में जिस मालदह या मालदा का नाम जुड़ा है और लोगों को लगता है कि इसकी पैदाइश वहीं है, वहां के आम को कोई मालदा आम नहीं कहता. उसे लंगड़ा कहते हैं और उत्तर बिहार में इसे कपूरिया कहते हैं. बनारस में वह फिर लंगड़ा हो जाता है.” 

इस किस्से में एक इरफान साहब का नाम भी जुड़ता है और कहा जाता है कि उन्होंने यहां आम का बागीचा लगवाया और विकसित किया. शिवनाथ दास भी इरफान साहब का जिक्र करते हैं. आत्म-दर्शन के माली रामचरित्र कहते हैं, “इरफान साहब का बागीचा तो था और वह हमारे बगीचे के पीछे था.” मगर अब उस बगीचे की कोई निशानी नहीं बची है.

बहरहाल इस बात को हर कोई मानता है कि पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को दीघा का मालदह आम काफी पसंद था और वे इस आम को तोहफे के तौर पर देश भर के मशहूर लोगों को भिजवाते. शिवनाथ दास कहते हैं, “1952 में एक फिल्म की शूटिंग के दौरान राजकपूर और सुरैया भी यहां आए थे और उन्होंने यहां का आम खाकर इसकी तारीफ की थी.” 

तारीफ की बात अलग, मिठास की बात भी अलग. क्या यह मीठे स्वाद का आम जिसमें रेशा भी बहुत कम है, सेहत के हिसाब से बेहतर है? क्या इससे सुगर के मरीजों को दिक्कत तो नहीं होगी? इस सवाल के जवाब में शिवनाथ दास कहते हैं, “हमने इसकी जांच भी कराई है. इसमें रिड्यूशिंग शुगर का गुण है. इसमें मिनरल्स काफी हैं, आम वैसे भी विटामिन ए के लिए जाना जाता है. इसमें फेनोलिक एंटीऑक्सीडेंट है जो ऑक्सीडेटिव स्ट्रेस से बचाता है. इसलिए सेहत को यह नुकसान नहीं पहुंचाता बल्कि थोड़ा फायदेमंद ही है.” 

आखिर में शिवनाथ दास कहते हैं, “बिहार कृषि विश्वविद्यालय, सबौर के हमारे वीसी महोदय डॉ. डीआर सिंह का लक्ष्य है कि हम विरासत से व्यापार को बढ़ाएंगे. इसी मिशन के तहत विलुप्त हो रहे दुधिया मालदह के संरक्षण का अभियान चल रहा है और उसकी जिम्मेदारी कृषि अनुसंधान केंद्र, मीठापुर, पटना को मिली है. हमलोग जीआई टैग के प्रोटोकॉल का अस्सी फीसदी काम कर चुके हैं. संभवतः 2026 में हमें जीआई टैग मिल जाएगा, फिर इसका क्रेज बढ़ेगा. तो निश्चित तौर पर लोग इसे लगायेंगे और इसका प्रसार भी बढ़ेगा.”

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