scorecardresearch

मॉल रोड और रिज मैदान से परे शिमला की कहानियां

डॉ. रचना गुप्ता की लिखी किताब 'शिमला' पढ़कर लगता है कि एक शहर को देखने के कितने नज़रिए हो सकते हैं

रचना गुप्ता की किताब 'शिमला' (राष्ट्रीय पुस्तक न्यास से प्रकाशित)
रचना गुप्ता की किताब 'शिमला' (राष्ट्रीय पुस्तक न्यास से प्रकाशित)
अपडेटेड 4 अप्रैल , 2024

इंटरनेट की पीठ पर सवार पीढ़ी तक सूचनाओं की आसान पहुंच से दो काम एक साथ हुए हैं. पहला, जानकार होने का गूगलीय भ्रम. दूसरा, नज़र के पांव टिकाने की सिमटती जमीन. इसके नतीजे में एक किस्म की अनंत अगाध फिसलन को हमने बतौर नियति लगभग स्वीकार कर ही लिया है. लेकिन मनुष्य संभावनाओं और आशंकाओं के बीच जिस बारीक लकीर पर चलकर इक्कीसवीं सदी तक पहुंच गया है, वह यही 'लगभग' है. 

वही लगभग, जिसमें फिर-फिर लौट आने की सनातन पुकार गूंजती है. डॉ. रचना गुप्ता की लिखी किताब 'शिमला' इसी लगभग से उपजती है, जहां संभावनाएं अधिक और आशंकाएं कम हैं. राष्ट्रीय पुस्तक न्यास से छपी ये किताब एक ऐसे शहर का आपसे परिचय करवाती है, जो मानचित्र पर महज़ दो सदी पुराना होते हुए भी विश्व भर की पर्यटन सूचियों में अपना नाम दर्ज करवा चुका है.

बहुत संभव है कि शिमला अब तक आपके लिए एक शब्द, एक स्वप्न और एक इच्छा से अधिक, एक जीवंत अनुभव भी हो. गंगा या बाकी नदियों के किनारे समतल बसावट की आबादी से शिमला का परिचय स्कूली शिक्षा के दौरान कला की कक्षाओं में हो जाता है. जब 'प्राकृतिक दृश्य' का चित्रण करते हुए दो पहाड़ों के बीच लालिमय सूरज बनाया जाता है. पहाड़ों की रानी से इतना पुराना स्मृति-स्फूर्त संबंध हो, शिमला कई-कई बार घूम आए हों, तो भी क्या आप जानते हैं कि जिस रिज मैदान पर हर पर्यटक हर बार तस्वीर लेकर लौटता है, असल में उसके नीचे पचास लाख लीटर की क्षमता वाला पानी का एक टैंक है, जिससे शहर की जल रेखा जुड़ी हुई है. 

ऐसी अनगिनत जानकारियों और घटनाओं की दस्तावेज डॉ. रचना गुप्ता की यह किताब इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि ये जितनी सार्थक पर्यटकों और विद्यार्थी वर्ग के लिए है, उतनी ही उपयोगी शोध अध्येताओं और स्थानीय पाठकों के लिए भी है. इस किताब को लिखने के क्रम में किया गया गहन शोध और रोचक लिखावट ही इसकी वजह हैं.

नजर का कमाल, दिखाई देता है 

शिमला को नई और गहरी दृष्टि से देखने की जिज्ञासा डॉ. रचना गुप्ता के पत्रकारीय जीवन से संभव हो सका होगा. तमाम समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, टीवी और रेडियो माध्यम में करीब 25 वर्ष की पत्रकारिता आपके भीतर एक शहर को देखने का नया नजरिया गढ़ती है इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती. ये किताब आपको जिस शिमला से मिलवाती है उसमें पर्यटकों का चहेता मॉल रोड ही नहीं, बल्कि वो जगहें भी हैं जिनके बिना इस शहर की पूरी शख्सियत को जानना मुमकिन नहीं. 

इस परिचय में अगर मुख्यमंत्री आवास 'ओक ओवर' है, तो साथ ही उस कब्रिस्तान की भी पूरी जानकारी है जो ओकओवर देखने गए पर्यटकों ही नहीं, स्थानीय लोगों की नज़र से भी बचा रह जाता है. टका बेंच, चर्च, जाखू मंदिर, गेयटी थिएटर, वायसरीगल लॉज, टाउन हॉल, अलर्जली भवन जैसी जगहें इस किताबा में अपने पूरे ऐतिहासिक और राजनैतिक-सामाजिक संदर्भों के साथ मौजूद हैं. देवदार, ओक, चीड़ आदि के वृक्षों समेत बुरांस, रोडोडेंद्रन और स्ट्रॉबेरी आदि फूल-फल भी इस किताब में ठीक उसी तरह अपनी पूरी आभा के साथ मौजूद हैं, जैसे वो सचमुच ही इस शहर में हैं लेकिन अक्सर कमदेखे या अनदेखे रह जाते हैं.

किताब पढ़कर पता चलता है कि शिमला से जुड़े ये महीन लेकिन ज़रूरी सवाल डॉ. रचना गुप्ता के मन में उनके बचपन से ही उठने लगे थे. लेकिन उनके जवाब समय के साथ चलते हुए उन्होंने बहुत समय और मन खर्च करके जुटाए. रिज मैदान पर हर दिन हजारों पर्यटकों की स्मृतियों के लिए उनकी खींची गई तस्वीरों में स्कैंडल पॉइंट दिखाई देता है. लेकिन डॉ. गुप्ता आम विद्यार्थियों से इतर इस सवाल से जूझतीं कि इस जगह का नाम स्कैंडल पॉइंट क्यों है? टका बेंच का इतिहास हो या लेडी रीडिंग अस्पताल के नाम का रहस्य, लेखिका ने सवालों के इस सिलसिले को इस शहर के लिए अनुत्तरित नहीं रहने दिया है.

जानकारी देने का रोचक तरीका 

बहुत मुमकिन था कि 'शिमला' एक ऐसी किताब बन जाती जिसे इतिहास के गंभीर शोधकर्ता किसी भारी-भरकम लायब्रेरी के शेल्फ से तब निकालते, जब उन्हें शहर से जुड़ा कोई पुराना रेफरेंस देखना होता. लेकिन रचना जी के चौथाई सदी का पत्रकारीय अनुभव उन्हें वो हुनर नवाजता है जिससे जानकारी देते हुए सभी पाठक वर्ग का ध्यान रखा जा सके. 

ना तो इतिहास के अध्येता को किसी तथ्य की गैर-मौजूदगी खटके, और ना ही किसी पर्यटक को सरसता का अभाव लगे. जिस अध्याय में शिमला के राजनैतिक और ऐतिहासिक महत्त्व के बारे में लिखा गया है उसकी सहजता कहीं भी उस अध्याय से कम नहीं ठहरती जहां इंग्लिश बेकरी और शिमला के तमाम स्वादों का जिक्र किया गया है. 'सुकून की तलाश में आत्माएं' अध्याय पढ़ते हुए आपको जिस सिहरन का एहसास होता है, वो 'चर्च की घड़ी' पढ़ते हुए भी आपका साथ छोड़ता नहीं. लेखिका ने सुगढ़ और निथरे हुए कहन का कमाल दिखाने में शायद ही कहीं कोई चूक की हो.

पहाड़ों की रानी से असली भेंट 

इस किताब को पढ़ने के बाद दो बातें सहज ही होती हैं. एक, जो अब तक शिमला ना देख सका हो उसके मन में इस शहर को देखने, समझने और बरतने का ख्याल बेतरह उठता है, दूसरा, जिसने ये शहर देख भी लिया हो वो अपनी पुरानी तस्वीरें निकालकर उन तस्वीरों में चुपचाप मौजूद इतिहास को दोबारा जीता है जिससे वो अब तक अनजान रहा. 'शिमला' पढ़ने के बाद जब वायसरीगल लॉज के पीछे बरसों पहले एक अंग्रेज लेडी डफरिन की जिद का पता चलता है तो वहां खड़े होकर खिंचवाई तस्वीरें इतिहास से जुड़कर उस क्षण को और कीमती बना देती हैं.

शिमला में ही पली बढीं लेखिका का जुड़ाव इस शहर के साथ कई स्तरों पर मापा परखा हुआ है. जहां एक तरफ उनकी पत्रकारिता की खोजपरक रपटों ने उन्हें शिमला के जन-मानस और लोक से जोड़ा, वहीं दूसरी तरफ हिमाचल प्रदेश लोक सेवा आयोग की सदस्यता ने डॉ. गुप्ता को इस शहर के प्रशासनिक पहलू से रूबरू करवाया. लोक से राज्य तक लेखिका की इस वृहद रचनात्मक यात्रा का असर 'शिमला' में पुरजोर दिखाई देता है.

लेखिका की तरफ से अपनी जन्मभूमि शिमला के सरल और सादगी भरे परिवेश को समर्पित यह किताब नेशनल बुक ट्रस्ट (राष्ट्रीय पुस्तक न्यास) से छपी है. इस किताब को केवल इसलिए ही नहीं पढ़ना चाहिए कि शिमला की आमूलचूल जानकारी रोचक शैली में है, बल्कि इसलिए भी पढ़ना चाहिए कि एक शहर को देखने के कितने कोण और कितने स्तर होने चाहिए, यह भी पता चल सके.

Advertisement
Advertisement