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जहां से लाखों लोगों ने पहली बार सुनी थी टैगोर की आवाज, वो हवेली अब बनेगी टूरिस्ट स्पॉट!

इस घर को गौरीपुर हवेली के नाम से जाना जाता है, जो कलिम्पोंग की शांत तलहटी में बसी एक दो मंजिला इमारत है

गौरीपुर की इसी हवेली में रबींद्रनाथ टैगोर आया करते थे जो अब टूरिस्ट स्पॉट बनेगी
गौरीपुर की इसी हवेली में रबींद्रनाथ टैगोर आया करते थे जो अब टूरिस्ट स्पॉट बनेगी
अपडेटेड 6 अगस्त , 2025

पश्चिम बंगाल विरासत आयोग कलिम्पोंग स्थित उस हवेली के जीर्णोद्धार में जुटा है, जहां रवींद्रनाथ टैगोर ने 1938 में ऑल इंडिया रेडियो पर अपना कार्यक्रम पेश किया था.

इंटरनेट का तब दूर-दूर तक कोई अता-पता नहीं था, और न ही हर किसी के हाथ में मोबाइल फोन नजर आता था. तब तो टेलीफोन लाइनें होने को भी भारत के प्रमुख शहरों में अच्छी-खासी विलासिता की चीज माना जाता था. 

1938 के ऐसे दौर में सुदूर, बादलों से ढकी पहाड़ियों के बीच स्थित कलिम्पोंग (अब पश्चिम बंगाल का एक जिला है) में रवींद्रनाथ टैगोर ने ऑल इंडिया रेडियो (AIR) के लिए एक कविता पाठ किया, जिसे सीधे प्रसारित किया गया.

उस प्रसारण में सिर्फ कविता पाठ ही खास नहीं था, बल्कि उसे प्रसारित करने के लिए तैयार बुनियादी ढांचा भी कम खास नहीं था. टैगोर के कविता पाठ को कलिम्पोंग स्थित उनके घर से सीधे प्रसारित किया जा सके, इसके उस क्षेत्र में टेलीफोन टॉवर लगाए गए, जिसने पहली बार पहाड़ियों की नीरव शांति को भंग किया. 

आज, जब पश्चिम बंगाल विरासत आयोग उसी हवेली के जीर्णोद्धार के काम में जुटा हैं, जहां से टैगोर की आवाज कभी लाखों लोगों के घरों तक पहुंची थी तो भूली-बिसरी कहानी एक बार फिर सुर्खियों में आ गई है.

इस घर को गौरीपुर हवेली के नाम से जाना जाता है, जो कलिम्पोंग की शांत तलहटी में बसी एक दो मंजिला इमारत है. उस समय ये गौरीपुर के जमींदारों की थी जो मौजूदा बांग्लादेश के मैमनसिंह क्षेत्र का एक इलाका था. समय बीतने के साथ ये दुनियाभर में लोकप्रिय बांग्ला कवि का एक प्रिय ठिकाना बन गई.

1938 और 1940 के बीच टैगोर कम से कम तीन बार इस हवेली में रुके थे, और यहीं पर उनका 77वां जन्मदिन मनाया गया. ये तिथि बंगाली कैलेंडर के मुताबिक, बैसाख महीने की 25वीं तारीख यानी उस वर्ष मई के मध्य में पड़ी थी.

दिवंगत साहित्यकार और यात्री प्रबोध कुमार सान्याल उस दिन हवेली में मौजूद थे. अपनी पुस्तक 'देबात्मा हिमालय' में उन्होंने बहुत विस्तार से बताया है कि उस घर के अंदर कैसा महसूस हुआ था जब टैगोर ने अपनी कविता “जोनमोदिन” (या जन्मदिन) को आकाशवाणी पर लाइव पढ़ा था. तब आकाशवाणी मुख्यालय कलकत्ता हुआ करता था.

ये कविता अब ‘सेनजुति’ शीर्षक वाले संकलन का हिस्सा है. उस समय 33 वर्ष के रहे सान्याल के मुताबिक, ये मौका न केवल साहित्यिक कारणों से अहम था बल्कि इसलिए भी बेहद महत्वपूर्ण था क्योंकि इसने क्षेत्र में कनेक्टिविटी के मामले में एक क्रांति ला दी थी. उन्होंने अपनी किताब के पहले भाग के 10वें अध्याय में लिखा है, “उस समय तक कलिम्पोंग में टेलीफोन नहीं पहुंचा था. इसका शुभारंभ इसी मौके पर किया गया. पिछले कुछ दिनों से कलिम्पोंग की पहाड़ियों में टेलीफोन के खंभे लगाए जा रहे थे. टेलीफोन अधिकारियों ने इस काम पर काफी पैसा खर्च किया.”

उस दिन टैगोर वहां अकेले नहीं थे. सान्याल के मुताबिक, कवि के साथ उनके पुत्र रथींद्रनाथ, पुत्रवधू और चित्रकार प्रतिमा देवी, लेखिका मैत्रेयी देवी और प्रशंसकों व मित्रों का एक करीबी समूह मौजूद था. बेहद शांत माहौल में आयोजित ये कार्यक्रम इन पहाड़ियों के इतिहास पर एक अमिट छाप छोड़ गया.

जादवपुर यूनिवर्सिटी में कंपैरिटिव लिटरेचर के सहायक प्रोफेसर अवीक मजूमदार कहते हैं कि इतिहास गवाह है, टैगोर के जीवन में ये घर कितना मायने रखता था. वे बताते हैं, “सुरंजना भट्टाचार्य की किताब कोबीर अबास (कवि का घर) में इसका विस्तृत विवरण मिलता है. हम आयोग के आभारी है कि वह इसके जीर्णोद्धार के लिए आगे आया.”

दुर्भाग्य से गौरीपुर की इसी हवेली में टैगोर ने कलिम्पोंग में अपनी आखिरी गर्मियां बिताईं. 1940 में अपने अंतिम प्रवास के दौरान वे गंभीर रूप से बीमार पड़ गए थे. जानकारों के मुताबिक, उनकी हालत इतनी गंभीर थी कि कुछ लोगों को तो लगा कि वे उस रात जीवित नहीं बचेंगे. लेकिन उस समय 79 वर्ष के रहे टैगोर जिंदगी और मौत से लड़ते रहे. हालांकि वे पूरी तरह ठीक तो नहीं हो पाए लेकिन कोलकाता लौट आए, जहां एक साल बाद 1941 में उनका निधन हो गया.

रवींद्रनाथ टैगोर के ऐतिहासिक काव्य पाठ और व्यक्तिगत त्रासदी, दोनों की साक्षी हवेली दशकों तक उपेक्षा की शिकार रही. खासकर, गोरखालैंड आंदोलन के दौरान राजनीतिक अशांति के बीच काफी क्षति पहुंची. लेकिन पहाड़ियों में शांतिपूर्ण माहौल कायम होने पर पश्चिम बंगाल विरासत आयोग ने इसके जीर्णोद्धार का दायित्व खुद संभाल लिया. आयोग के अध्यक्ष अलापन बंद्योपाध्याय के मुताबिक, इसका संरक्षण हमेशा से ही सांस्कृतिक लिहाज से महत्वपूर्ण रहा है. उन्होंने कहा, “गौरीपुर हाउस बंगालियों और राज्य के सांस्कृतिक इतिहास के लिए बहुत मायने रखता है. जीर्णोद्धार का कार्य चल रहा है और यहां पर एक टैगोर संग्रहालय स्थापित करने की भी योजना है.” 

राज्य सरकार के लोक निर्माण विभाग के नेतृत्व में पांच करोड़ रुपये की अनुमानित लागत से दो चरणों में जीर्णोद्धार का कार्य जारी है. संभवत: अगले वर्ष तक जब हवेली फिर खुलेगी तो यहां केवल एक संग्रहालय नहीं होगा. इस दो मंजिले भवन में छह सुइट रूम भी होंगे, जिनका संचालन पश्चिम बंगाल पर्यटन विकास निगम लिमिटेड के हाथ में होगा. इसके साथ ही पर्यटकों को एक ऐसी जगह ठहरने के लिए आमंत्रित किया जाने लगेगा जिसकी हर दीवार में इतिहास बसा है.

राज्य सरकार इस हवेली को एक व्यापक पर्यटन सर्किट का हिस्सा बनाना चाहती है जो पहाड़ों में टैगोर की विरासत का उत्सव होगा. लगभग 37 किलोमीटर दूर मुंगपू में कवि का दूसरा आश्रय स्थल कुर्सिओंग स्थित है, जिसका जीर्णोद्धार हो चुका है और जो पर्यटकों को काफी लुभा भी रहा है. कलिम्पोंग में गौरीपुर हवेली और मुंगपू हाउस मिलाकर एक समानांतर टैगोर पथ बनाया जा सकता हैं, जो अपनी सांस्कृतिक जड़ों से लगाव रखने वाले देशभर के लोगों को आकर्षित करेगा.

अंतत: जब पर्यटक फिर से सजी-संवरी गौरीपुर हवेली में कदम रखेंगे, तो उनका स्वागत टैगोर की एक प्रतिमा करेगी- मौन, सजग और कालातीत. ये अतीत के एक ऐसे प्रहरी के रूप में यहां खड़ी होगी, जो ये याद दिलाएगी कि पृथ्वी की परिक्रमा करते सैटेलाइट और हर जगह मोबाइल टॉवर नजर आने से बहुत पहले एक कवि की आवाज इतनी सशक्त थी जो तकनीक की यहां पहाड़ों तक खींच लाई थी. और, उन्होंने सिर्फ एक इतिहास ही नहीं लिखा, बल्कि इसकी गूंज को दूर-दूर तक सुना गया.

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