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'पुष्पा 2' हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का भला करने के लिए बनाई गई फिल्म लगती है!

पांच दिसंबर को 'पुष्पा 2' ने थियेटरों में दस्तक दी है

फिल्म पुष्पा 2 का एक दृश्य
फिल्म पुष्पा 2 का एक दृश्य
अपडेटेड 6 दिसंबर , 2024

एक शब्द होता है 'अति'. वैसे तो इसका मतलब होता है 'बहुत', लेकिन मुहावरों से लेकर अलंकारों तक 'अति' का इस्तेमाल बहुत अच्छे अर्थों में होता नहीं है. 'अति का भला न बरसना और अति की भली ना धूप' से लेकर 'फलनवा अत्त मचाय दिहिस है' तक अति से बचने की सलाह पुरखों ने दी है.

लेकिन जिसने सलाह मान ही ली, वो नौजवान कैसा? आज सिनेमाघरों में झूम रही फिल्म 'पुष्पा 2' पिछली फिल्म 'पुष्पा' की पीठ पर सवार होकर पहुंची है. फिल्म का अगला हिस्सा इसलिए नहीं बना क्योंकि कुछ कहना 'बाकी रह गया था'. बल्कि इसलिए बना है क्योंकि पिछली बात महफ़िल को पसंद आ गई थी. 

अगर आपके पास आगे पढ़ने का समय नहीं है तो बात की बात ये है कि 'पुष्पा 2' बनाने का सिवाय इसके कोई कारण नहीं कि 'पुष्पा' हिट हुई थी. जैसे बिजली का स्विच ऑफ करने के बाद भी पंखा तुरंत नहीं रुकता, वैसे ही 'पुष्पा' के पंखे का स्विच ऑफ होने के बाद भी जब 'फैन लोगों' की वजह से नहीं रुका तो मेकर्स ने बनाई 'पुष्पा 2'. हालांकि इस पंखे के नीचे बैठकर मनोरंजन की हवा लगती नहीं है, जैसी 'पुष्पा' में लगी थी. अति का शिकार होकर डॉल्बी सुपर साउंड और स्लो मोशन वाले फाइट सीन्स के दम पर बस सांस ले पा रही है ये फिल्म.

अब विस्तार से

बाहुबली, केजीएफ़ और पुष्पा जैसी फ़िल्मों को जानकार लोग बॉलीवुड के ताबूत की कील बता रहे थे. लेकिन 'पुष्पा 2' जैसी कोशिशें बता रही हैं कि बॉलीवुड वालों को बहुत चिंता करने की ज़रूरत नहीं. ज़ेड ब्लैक गाड़ियों के काफ़िले से उतरते अवतार सरीखे नायक और कठपुतलियों की तरह बरती गई हाथ जोड़कर खड़ी आम पब्लिक वाला दक्षिण का फ़ॉर्म्युला अब इतना उबाऊ और नीरस हो चुका है कि थिएटर में फ़र्स्ट डे फ़र्स्ट शो देखने पहुंचे नौजवान भी ताली या सीटी बजाने की ज़हमत नहीं उठाते. दक्षिण के मेकर्स भूल रहे हैं कि हिंदी भाषी जनता ने 'भाई' के स्पष्ट कहने के बाद भी दिमाग़ लगाना नहीं छोड़ा. 'मैं दिल में आता हूं, समझ में नहीं'.

'पुष्पा' की पुरानी लेगेसी, एक्शन सीन्स पर मेहनत, डबिंग की कलाकारी और कोरस में नायक के लिए गाया हुआ जोशीला रण गान...ये सब मिलकर भी 'पुष्पा 2' देखने आए दर्शकों को 'वो मज़ा' नहीं दे पाते जिसकी उम्मीद में लोग पहुंचे थे. वजह? कहानी. कहां है कहानी बॉस. ये सब कूद फांद किस भरोसे हो रही है? 

कहानी में क्या लोचा है?

पांच दिसंबर को रिलीज हुई फिल्म पुष्पा 2
पांच दिसंबर को रिलीज हुई फिल्म पुष्पा 2

'पुष्पा' एक मजदूर की कहानी थी, जो अपने जुनून और सूझ-बूझ के दम पर वहां पहुंचा जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी. उस कहानी में एक यूनिवर्सल कनेक्टिविटी थी. एक न एक दिन अपना टाइम आने के इंतेज़ार में बैठा दर्शक पुष्पराज के कनेक्टेड फ़ील करता है. चाहे लाल चंदन की तस्करी में आड़े आ रहे पुलिस चेक पोस्ट और दफ़्तर देर से पहुंचते हुए मैनेजर से सामना करते दर्शक की मुश्किलें एक जैसी ना हों, लेकिन 'अपना टाइम आएगा' सोचकर बैठा दर्शक ताली बजाता है जब 'पुष्पा' का पुष्पराज अपने मालिक को लात मारकर इज़्ज़त ना मिलने पर काम छोड़ देता है. 

लेकिन 'पुष्पा 2' के साथ यही बात समस्या बनकर सामने आती है. अब पुष्पराज गाड़ियों के काफ़िले से चलता है और पैसा उसके लिए सच में हाथ की मैल बन चुका है. दर्शक अपने जैसे किसी नौकर की कहानी नहीं देख रहा. इससे उबरने के लिए मेकर्स को चाहिए था कि अगर 'पुष्पा' का अगला हिस्सा बनाना ही था तो तलाश करते एक धांसू कहानी की. जो तलाशने से मिल भी जाती. लेकिन इसकी जगह उन्होंने चुना एक्शन सीक्वेंस पर मेहनत करना. 

नतीजा? फिल्म बन गई है दिल्ली के संसद मार्ग पर बड़ी गाड़ी को रोकने वाले ट्रैफिक पुलिसवाले को आंख दिखाते लड़के जैसी. जिसके पास ले दे के एक ही बात है कहने को 'पता है मेरा बाप कौन है?'. अब ट्रैफिक पर भी दो तरह के पुलिसवाले खड़े होते हैं. एक तो वो जो इस अर्दब में आ जाते हैं कि सामने वाले का बाप कौन है. दूसरे, वो जो पलटकर पूछ लेते हैं 'मेरे को क्या'. देखते हैं 'पुष्पा 2' के सिग्नल पर कौन से दर्शक खड़े हैं?

एक्टिंग का क्या मामला है 

पुष्पा 2 के अपने किरदार में अल्लू अर्जुन
पुष्पा 2 के अपने किरदार में अल्लू अर्जुन

अल्लू अर्जुन 'पुष्पा' के पुष्पराज वाले किरदार की ऐंठन को बस ढोते नज़र आते हैं, जिसकी कोई वजह दिखाई नहीं देती. पुराने पुष्पराज की कद्दावरी दिखाने के लिए जो सीन गढ़े गए हैं उससे बात कुछ बन नहीं पाई है. फहाद फ़ाज़िल ने पुलिस कप्तान भंवर सिंह शेखावत के किरदार को दमदार बनाने की पूरी कोशिश की है, जो कामयाब नहीं हो पाई, लेकिन इसमें उनकी कोई ग़लती नहीं है. 

कहानी में सिर्फ स्क्रीन स्पेस देने से ही बात नहीं बन पाती. उसके लिए...! अरे हां कहानी भी तो चाहिए होती है. रश्मिका पिछली बार हर बात पर 'स्वामी स्वामी' कहते हुए इसलिए बहुत इरिटेटिंग नहीं लगी थीं क्योंकि जिससे श्रीवल्ली को प्यार था वो एक मजदूर था और प्यार के साथ सम्मान के भी मोर्चे पर अड़ा हुआ था. इस बार सिंडिकेट के हेड की पत्नी के तौर पर उनका वही पुराना राग कानों को खटकता है. फिर भी कहें तो काम भर का काम फहाद ही कर पाए हैं.

म्यूज़िक का क्या बना 

आप शायद भूल गए हों, लेकिन 'पुष्पा' के सुपरहिट होने के पीछे उसके गानों का बहुत बड़ा रोल था. गांव के माहौल में फ़िल्माया गया 'तेरी झलक श्रीवल्ली' हो या बतौर आइटम नंबर शामिल किए गए 'ऊ अन्टावा मावा' और 'सामी सामी' हो. ये गाने कस के चले थे. रील्स से लेकर आम फंक्शन्स में इन गानों ने गजब की पहुंच दर्ज की थी. शायद इसकी वजह वो 'क्लूलेसनेस' थी जिसमें मेकर्स को इनके असर का अंदाज़ा नहीं था.

लेकिन इस बार 'ऐसे ही' गानों के असर का पीछा करने में 'पुष्पा 2' हर तरह से हाथ पांव मारती दिखती तो है लेकिन वो जादू इसके हाथ आता नहीं है. पिछली बार पांच में से तीन तीन हिट गानों जैसा माहौल इस बार 'पुष्पा 2' के नसीब में नहीं दिखता. एक भी गाना या डांस स्टेप उस स्टेटस बार तक जाते नहीं दिख रहे जो 'पुष्पा' को हासिल हुए थे.

सिनेमेटग्राफी कैसी है?

बार-बार इस फिल्म की तुलना इसकी पिछली फिल्म से करना ठीक नहीं लग सकता है. लेकिन इसके अलावा और रास्ता क्या रह जाता है जब ये इमारत खड़ी ही 'पुष्पा' की नींव पर है तो तराजू में और क्या रखा जाए. 'पुष्पा' ज़्यादातर बाहर शूट हुई थी क्योंकि उसका नायक बाहर की लड़ाइयां लड़ रहा था, चाहे वो सिंडिकेट हो या लाल चंदन के जंगल. इसलिए दक्षिण भारत की सुंदरता उस फिल्म में अपने आप ही रिस रही थी.

लेकिन 'पुष्पा 2' का नायक अब जिन मसलों से दो चार हो रहा है वो सारे के सारे बड़ी कोठी और फ़ार्म हाउस के भीतर हैं. जंगलों के जो एकाध सीन हैं भी वो बासी साबित हुए हैं. अपनी सहेलियों के साथ पानी भर के लौटती श्रीवल्ली की मासूमियत से भरी फ्रेशनेस इस बार सिरे से ग़ायब है. हां, 'कांतारा' की कामयाबी से सीखते हुए मेकर्स ने 'काली मंदिर' का सीन ज़रूर जोड़ा है, जिसमें साड़ी पहनने की वजह से फैन लोग बम बम हो रहे हैं, लेकिन इस सीन में भी सिवाय लड़ाई के 'ओके टेस्टेड' वाले सीन्स के और कुछ है नहीं. 

कुल मिलाकर बात ये है 

आपको याद होगा राहत फ़तेह अली खान का जब मुंबई की फिल्म इंडस्ट्री में डेब्यू हुआ तो उनकी ख़ानदानी गायकी ने ग़ज़ब की कामयाबी हासिल की थी. राहत को लोगों ने हाथोहाथ लिया. हर दूसरी फिल्म में राहत का गाना/गाने आम बात हो गए. पांच सितारा होटलों के फंक्शन्स से लेकर आजमगढ़ में सड़क किनारे कच्ची दीवारों वाले 'कलासिक फेमस मेंस हेयर कटिंग एवं फेश मशाज' तक में राहत ही राहत बजने लगे. लेकिन राहत ने अपनी संभावनाओं का नींबू इतनी कस के निचोड़ दिया कि साल दो साल में वो नीरस हो गए.

जनता ऊब जाती है. नहीं तो हिंदी फिल्मों में आज भी कोई 'ठाकुर' ज़मींदार संगमरमर की कोठी के सामने हुक्का पी रहा होता या कहीं किसी होटल टाइप के कॉलेज में कोई राज चावला फरारी से चल रहा होता. बदल गया न ये सब? इसी ऊब की वजह से. तो 'पुष्पा 2' जैसी घोर फ़ॉर्म्युला फ़िल्में इसी ऊबन का घड़ा भरने का काम कर रही हैं. अपनों की मसीहाई तो हिंदी जनता झेल नहीं पाई, दक्षिण की कब तक झेलेगी.

हालांकि इसी बीच ख़बर ये भी है कि हैदराबाद में 'पुष्पा 2' देखने अपने बच्चों के साथ पहुंची महिला की भगदड़ में मौत हो गई. फिल्म की वजह से बच्चों की मां अब नहीं रही. 'पुष्पा 2' ही नहीं, हर फिल्म मेकर को इस ज़िम्मेदारी का एहसास होना चाहिए कि उनकी बनाई फिल्मों से कितना कुछ दांव पर लग जाता है.

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