"यह कोकाकोला एक ऐसी चीज है कि सिर्फ इस कारण भी मैं अमेरिका को वोट करने में हिचकूंगा नहीं, और आप जानते हैं कोकाकोला का यह स्वाद दुनिया का कोई और देश पैदा नहीं कर सकता, वह एक खास फार्मूले का पाउडर है जो कोकाकोला के कारखाने में अमेरिका डालने के लिए भेजता है... सिर्फ चार आदमी हैं जो इस फार्मूले को जानते हैं, अगर उनमें से कोई मरा तभी किसी पांचवें को इस फार्मूले की जानकारी दी जाती है."- फणीश्वरनाथ रेणु.
साहित्यकार सुरेश शर्मा अपने संस्मरण में फणीश्वरनाथ रेणु के कोकाकोला प्रेम का इस तरह जिक्र करते हैं. वे रेणु के आखिरी दिनों में उनसे मिलने पीएमसीएच के राजेंद्र सर्जिकल वार्ड गये थे. तभी रेणु ने उन्हें कोकाकोला की यह महिमा सुनाई थी. दरअसल उनके वहां पहुंचते ही रेणु ने उनसे कोकाकोला ले आने की फरमाइश की थी. इसके लिए उन्होंने सुरेश शर्मा को पैसे निकालकर भी दिए थे.
सुरेश शर्मा ने उनसे पूछा था कि क्या डॉक्टर ने कोकाकोला पीने की इजाजत दी है? इस पर रेणु ने कहा, "नहीं दी है तो क्या हुआ, आप ले तो आइए, बड़ी कृपा होगी. रोज पीता हूं." तो जानिये कोकाकोला के इतने प्रेमी थे रेणु.
आज ही के दिन यानी 4 मार्च को 1921 में बिहार के अररिया जिले में जन्मे इस लेखक के कोकाकोला प्रेम के बारे में कई लोगों ने लिखा है. उनके करीबी मित्र रामवचन राय ने लिखा है कि वे गांव जाते थे तो भी वहां कोकाकोला का इंतजाम रहता था. वे लिखते हैं, "गांव में जैसे ही उनके लिखने का सिलसिला शुरू होता था, तो दिन में मच्छरदानी लगी रहती थी. कहीं गर्मियों का मौसम हुआ तो कोकाकोला की बोतलों से भरी बाल्टी कुएं में पड़ी रहती थी. सन् 1968 की बीमारी के बाद पीने के नाम पर कोकाकोला, कॉफी और कैप्सटन सिगरेट ये तीन चीजें ही थीं, जिनसे वे अंत तक जुड़े रहे."
वे आगे लिखते हैं, "पटना में रेणुजी के होने का मतलब कॉफीहाउस में होना होता था. कॉफी हाउस का रेणु कार्नर जाड़ा, गर्मी, बरसात हर मौसम में आबाद रहता था. उनके अनुपस्थित होने का मतलब था, पटना से बाहर होना या बीमार होना. एक निश्चित रूटीन थी, जिस पर मौसम का कोई असर नहीं होता था. हम दोनों के बीच एक अलिखित समझौता था. मैं नियमपूर्वक छह बजते-बजते उनके घर पहुंचता. कभी वे बाल काढ़ते मिलते और कभी तैयार होकर प्रतीक्षा करते हुए. फ्लैट से बाहर आते ही दो-तीन कुत्ते अपनी संततियों सहित उन्हें घेर लेते. रेणु जी चाय की दुकान से बिस्किट खरीद कर उन्हें खिलाते फिर आगे बढ़ते. गोलंबर के पास वे रिक्शा लेते और वह रिक्शा रात तक उनके साथ रहता. वहां के सभी रिक्शा वाले उनके परिचित थे, वे सबका हालचाल लेते रहते थे."
लेख में आगे जिक्र है, "कॉफी हाउस से लौटने के रास्ते में कई पड़ाव थे. डी लाल की दुकान में सिगरेट, साबुन, बिस्किट या अगरबत्ती कुछ न कुछ खरीदते. फिर पिंटू होटल से रसगुल्ला और संदेश खरीदकर गांधी मैदान होते हुए हथुआ मार्केट पहुंचते. विश्वनाथ के यहां कोकाकोला पीते और पान खाते. फिर राजेंद्र नगर चौराहे पर कृष्णा के यहां से अखबार और मैगजीन लेकर नौ साढ़े नौ बजे तक घर पहुंचते. लतिका जी प्रतीक्षा में रहतीं. दरवाजे पर हल्की सी दस्तक सुनकर पूछतीं, के. और इधर से जवाब मिलता 'आमरा'."
रामवचन राय जी के संस्मरण का यह हिस्सा बताता है कि गांवों के लेखक रेणु की असल जिंदगी कितनी नफासत भरी थी. और इस नफासत में कोकाकोला उन्हें कितना प्रिय था. रेणु को कोकाकोला इतना प्रिय था कि पेप्टिक अल्सर का इलाज कराते हुए भी अस्पताल में वे रोज कोकाकोला पीते थे. यहां तक कि जिस रोज वे ऑपरेशन के लिए जा रहे थे, उस रोज भी कोकाकोला पीना चाहते थे. उनकी पत्नी लतिका जी लिखती हैं, 23 मार्च को सुबह उठते ही जिद कर बैठे, कोकाकोला पीऊंगा.
"अभी आपरेशन होगा, कुछ खाना-पीना नहीं है." मैंने मना किया.
"कोकाकोला पी लेने में क्या है? ऑपरेशन में तो डॉक्टर पेट चीर कर निकाल ही देगा."
फिर भी मैंने नहीं दिया तो बोले, "रामवचन जी को कह दिया है. आइसबैग ले आने को. कोकाकोला उसमें रखना, होश आने पर पीऊंगा.
और होश क्या कर आता? हफ्ते से ज्यादा वक्त बेहोशी की हालत में गुजर गया तो एक दिन लतिका जी ने कोकाकोला की चार बूंदें होठों पर टपकाई. इस उम्मीद में कि शायद यही स्वाद उन्हें होश में ला दे. मगर बूंदें लुढ़क गयीं. यह दवा भी काम न आई. 11 अप्रैल, 1977 को इसी बेहोशी की हालत में रेणु सबको छोड़कर चले गये.