पेरिस ओलंपिक के एक ऐसे खेल में, जिसके बारे में आम भारतीय कम ही जानते हैं, जब भारत के अविनाश साबले दौड़ रहे थे तो बार-बार पीछे मुड़कर देख रहे थे. भारतीय सेना में सूबेदार नायक अविनाश साबले ने 3000 मीटर पुरुष स्टीपलचेज़ के इतिहास में भारत का नाम दर्ज करवा दिया है.
वे इस स्पर्धा के फाइनल तक पहुंचने वाले भारत के पहले एथलीट बन चुके हैं और इसी के साथ भारत पहली बार स्टीपलचेज़ के फाइनल तक पहुंचा है. भारतीय सेना के इस सूबेदार को यहां तक पहुंचने के लिए टॉप 5 के तीन हीट में से किसी एक में आना था. अब अविनाश साबले से ओलंपिक मेडल की उम्मीद की जा रही है.
अपनी धुन के पक्के और बेहद जुनूनी अविनाश से भारत की उम्मीदें कितनी मजबूत हैं ये बताने के लिए उनके पुराने रिकॉर्ड काफी हैं. बार-बार पीछे मुड़कर देखने से अविनाश को अपना वो सफर दिखाई देता होगा, जो महाराष्ट्र के गांव में एक ईंट भट्टे से शुरू हुआ. बाकी बच्चों की तरह खुद की साइकिल और बस का किराया, दोनों ना होने की सूरत में स्कूल के लिए दौड़ने से अविनाश अनजाने में दौड़ के शुरुआती साधक बने.
पेरिस ओलंपिक में जब वे दौड़ते हुए पीछे मुड़कर देख रहे थे तब उन्हें गुजरे सफर में वो अविनाश साबले भी दिखाई दिया होगा जिसे एक स्पोर्ट्स टीचर ने बताया कि दौड़ने से वो ना सिर्फ अपनी मजबूरियों से आगे निकल सकते हैं बल्कि ईंट-भट्टे में मजदूरी करते अपने माता-पिता को भी लाचारी से निकाल सकते हैं. जब अविनाश ने स्टीपलचेज़ के ओलंपिक फाइनल तक पहुंचने का अपना और भारत, दोनों का सपना साकार किया तो आसमान में सिर उठाकर शुक्रिया अदा किया. शुक्रिया किनका? किसी एक का नहीं. इस सफर में कभी न कभी हमराह रहे उन दर्जन भर लोगों का, जो उन्हें यहां तक पहुंचा सके.
क्या होती है स्टीपलचेज़ दौड़
आप अविनाश के बारे में आगे जानें उससे पहले ज़रूरी है कि इस दौड़ के बारे में जान-समझ लें जिसकी वजह से आम भारतीयों को इस खिलाड़ी के बारे में पता चला. स्टीपलचेज़ को पगबाधा दौड़ भी कहते हैं. आम दौड़ की स्पर्धाओं से ये इस मामले में अलग है कि, यहां खिलाड़ी को सपाट ट्रैक पर नहीं दौड़ना होता. ट्रैक पर एक तय ऊंचाई के बैरियर रखे होते हैं. ट्रैक पर पानी के पिट भी रखे होते हैं. दौड़ने वाले को पूरे ट्रैक पर इन सबको पार करते हुए दौड़ना होता है.
माना जाता है कि स्टीपलचेज़ का खेल आयरलैंड में उस समय शुरू हुआ था जब घोड़े ही यातायात का इकलौता साधन हुआ करते थे. शिकार के समय घुड़सवार शिकारी को शिकार के पीछे भागते हुए घोड़े को कई बार जंगल में गिरे हुए पेड़ों पर से कुदाना पड़ता था. धीरे-धीरे ख़ाली समय में इसे मनोरंजन का साधन भी बना लिया गया और बिना शिकार के ही कई घुड़सवार इसे बतौर खेल बरतने लगे. बाद में इस खेल से घोड़े गायब हो गए और इंसान रह गए. अब जो आधुनिक स्टीपलचेज़ की दौड़ करवाई जाती है वो उसी दौर के खेल का आधुनिक रूप है.
स्टीपलचेज़ पर केन्या का कब्ज़ा
मज़े की बात ये है कि ओलंपिक में शुरुआत से बतौर खेल शामिल रहे स्टीपलचेज़ की दौड़ में केन्याई खिलाड़ियों का जलवा रहा है. 1968 से 2016 तक सिर्फ दो ऐसे मौके आए जब केन्या ने स्टीपलचेज़ का गोल्ड मेडल ना जीता हो. हालांकि टोक्यो ओलंपिक में मोरक्को ने 1988 से लगातार केन्या के कब्ज़े को स्टीपलचेज़ से खत्म किया और गोल्ड मेडल अपने नाम किया.
कौन हैं अविनाश साबले
तीन भाई-बहनों में सबसे बड़े अविनाश साबले 13 सितंबर 1994 को महाराष्ट्र के बीड जिले में अष्टि तालुका के एक छोटे से गांव मंडवा में पैदा हुए. ईंट भट्टे में काम करने वाले उनके माता-पिता वैशाली और मुकुंद साबले के गरीब परिवार में जन्मे अविनाश की कहानी मुश्किलों के सामने जुनून और जज्बे के टिके रहने की कहानी है. 2020 में मीडिया के एक इंटरव्यू में बताते हैं, “मेरे माता-पिता ईंट-भट्टे पर काम करने जाते थे इसलिए हम लोगों के जागने से पहले ही सुबह मां खाना बनाकर पिता के साथ काम पर निकल जाती थीं. एक बार सुबह घर से निकलने के बाद हम लोग उन्हें सिर्फ रात में ही मिल पाते थे जब वो वापस आते थे. उन्हें ऐसे देखकर हमें उनके कठिन परिश्रम का अंदाजा लगता था.”
एक एथलीट के माता पिता ये बात अच्छी तरह जानते थे कि गरीबी के इस जाल से निकलने का इकलौता रास्ता शिक्षा है. इसीलिए उन्होंने हमेशा अविनाश की शिक्षा पर जोर दिया. लेकिन अपने घर की स्थिति देखकर वे अक्सर अपने माता-पिता के साथ काम पर भी जाने लगे थे. अपनी साइकिल और बस का किराया ना होने की वजह से अविनाश दौड़कर स्कूल जाते थे. वे बताते हैं कि उन्हें बचपन से दौड़ना अच्छा लगता था. दौड़ते हुए उन्हें अपनी मुश्किलें याद नहीं रहती थीं. इसीलिए जब भी मौका मिलता अविनाश दौड़ते थे. दौड़ने की उनकी ललक एक बार स्कूल टीचर को दिखाई दी और यहीं से शुरू हुआ उनके खेल का सफर.
महज नौ साल की उम्र में अविनाश ने अपने जीवन की पहली रेस जीती. उनकी खेल में दिलचस्पी देखते हुए महाराष्ट्र क्रीडा प्रबोधिनी (पुणे बना राज्य सरकार का स्पोर्ट्स हॉस्टल, जहां सरकारी पढ़ाई और बाकी खर्च उठाती है) में भर्ती होने की सलाह मिली. लेकिन अपनी कम लंबाई की वजह से अविनाश महाराष्ट्र क्रीडा प्रबोधिनी में बहुत अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाते थे. इसी वजह से उन्हें जल्दी ही महाराष्ट्र क्रीडा प्रबोधिनी छोड़नी पड़ी.
यहां से अविनाश की मुश्किलों का नया दौर शुरू हुआ. अब उनकी पढ़ाई और खेल का खर्चा कौन उठाएगा ये सवाल सामने आया. अपने एक इंटरव्यू में वे कहते हैं कि उनके पास ढंग के जूते खरीदने के भी पैसे नहीं हुआ करते थे इसलिए वो नंगे पांव भागते थे और इसी वजह से अक्सर उनका पैर चोटिल हो जाया करता था. यही वो दिन थे जब अविनाश सुबह स्कूल जाते थे और दोपहर में मजदूरी किया करते थे. रात में जब सब सो जाते थे तब वे दौड़ते थे. इसी तरह साबले ने 12वीं पास की.
भारतीय सेना और अविनाश साबले
ये कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि अगर अविनाश के साथ भारतीय सेना का सपोर्ट नहीं होता तो आज वो वहां शायद ही होते, जहां हैं. 12वीं के बाद अविनाश ने सेना में भर्ती होने के लिए टेस्ट दिया और सेना में भर्ती हो गए. अब जब हर महीने की आमदनी और कड़ी ट्रेनिंग दोनों का जुगाड़ हो गया तब अविनाश पूरी तरह से अपने खेल पर फोकस हो गए. हालांकि उनके जीवन में अब तक स्टीपलचेज़ की एंट्री नहीं हुई थी. अविनाश दौड़ते तो थे लेकिन स्टीपलचेज़ नहीं. सेना में रहने के दौरान वे सियाचीन में भी तैनात रहे. लेकिन गेम से फोकस कभी हटाया नहीं. अविनाश ने नेशनल क्रॉस कंट्री रेस प्रतियोगिता में हिस्सा लिया. इसमें वे 5th पोजीशन पर आए.
अविनाश हर प्रतियोगिता में हिस्सा लेते. इस दौरान उनकी मुलाकात कोच अमरीश कुमार से हुई. सेना में कप्तान अमरीश ने इस जवान की खूबियों को पहचानते हुए उन्हें 5 या 10 हजार मीटर की दौड़ के बजाय स्टीपलचेज में हिस्सा लेने की सलाह दी. ये कोच अमरीश की सलाह ही थी कि अविनाश साबले ने स्टीपलचेज अपनाया और जल्दी ही इस दौड़ में कमाल दिखाने लगे. एक के बाद एक उन्होंने 9 रिकॉर्ड बनाए.
हालांकि इस दौरान भी उन्हें पैसों की तंगी का सामना करना पड़ा. दसअसल अपनी सैलरी का बड़ा हिस्सा अविनाश घर भेज दिया करते. इसके बाद अपना खर्चा पूरा करने के लिए के लिए वो मैराथन में दौड़ते. इन्हीं पैसों से अपनी ट्रेनिंग जारी रखते. अविनाश ने 61 मिनट से भी कम समय में हाफ मैराथन को पूरा किया है, ऐसा करने वाले वे इकलौते भारतीय खिलाड़ी हैं.
फिर शुरू हुआ इंटरनेशनल गेम
साल 2019 में अविनाश ने पहली बार इंटरनेशनल गेम में हिस्सा लिया. मौका था दोहा की एशियन एथलेटिक्स चैम्पियनशिप. यहां उन्होंने दो सिल्वर मेडल अपने नाम किए. यहीं से वे टोक्यो ओलंपिक्स भी क्वालिफाई कर गए. इसके बाद वे साल 2022 में बर्मिंघम में कॉमनवेल्थ खेलों में सिल्वर मेडल जीते. साथ ही एक नेशनल रिकॉर्ड अपने नाम किया. साल 2022 में उन्हें अर्जुन अवॉर्ड से सम्मानित किया गया.
बेहद मुश्किल और उतने ही जुनून से अपने खेल का सफर पार करके ओलंपिक तक पहुंचे अविनाश अब अपनी कामयाबी से महज एक कदम दूर हैं. हालांकि फाइनल में इन्हें मेडल मिले या ना मिले, देश ने उन्हें हीरो तो अभी से मान लिया है. और नायक मानने के इस भाव में अतिरेक इसलिए भी नहीं है क्योंकि आज जहां अविनाश खड़े हैं वहां उनसे पहले कोई भारतीय एथलीट नहीं पहुंचा. अविनाश ने अपना नायकत्व कमाया है और देश निश्चित रूप से उनके इस नायकत्व का चरम भी देखना चाहता है.