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पेठे के सम-विषम गणित से शक्ति प्रदर्शन तक, ग्राम 'पंचायत' फुलेरा में कितने 'ग्राम' रस और बचा है?

पंचायत वेब-सिरीज के पहले सीजन ने गली-कोनों तक तारीफें बटोरी थीं और अब इसका चौथा सीजन दर्शकों के सामने है, जिसको लेकर सोशल मीडिया पर इसके बहुत अच्छा होने के दावे किए जा रहे हैं

'पंचायत' के पहले सीजन का एक सीन; चौथे सीजन का एक पोस्टर
अपडेटेड 27 जून , 2025

एक किताब है. इसे ‘आत्मकथाओं की रानी’ कहा जाता है. किताबों की दुनिया में मौजूद अनगिनत आत्मकथाओं के बीच एक ऐसी आत्मकथा जिसे अक्सर पढ़ाकू लोग खोजते खोजवाते रहते हैं. इस किताब का नाम है “MY AUTOBIOGRAPHY : CHARLES CHAPLIN”. क़रीब पांच सौ अस्सी पेज की इस किताब में, दुनिया भर में मशहूर उस चार्ली चैप्लिन की कहानी है जिसे दुनिया नहीं जानती. उस बच्चे की कहानी, जिसकी मां अपने भूखे बच्चों की तकलीफ़ तब तक बर्दाश्त करती रही जब तक वो पागलखाने और उसके बच्चे अनाथ आश्रम नहीं पहुंच गए.

एक ऐसी किताब, जिसे तब-तब पढ़ना चाहिए, जब-जब आपको लगे कि जिंदगी आपके साथ ‘कुछ ज्यादा’ बेरहम है. मतलब, रोज़ पढ़ना चाहिए. ‘एक्स्ट्राऑर्डिनरी डीटेल्स’ के साथ चार्ली अपनी आत्मकथा में बताते हैं कि जब वो दिहाड़ी पर एक सर्कस में काम करने पहुंचे तो एक मज़ेदार वाक़या पेश आया.

हुआ यूं कि, सर्कस में सबके अपने ऐक्ट बंटे हुए थे और हर कोई पुराना खिलाड़ी था. इसमें एक करतब था जिसमें कलाकार एक लाठी को बाईं हथेली पर सीधा खड़ा कर लेता था, और दाएं हाथ से एक भगोनेनुमा बर्तन को ऐसा उछालता है कि वो जाकर सीधा उस लाठी के छोर पर टिक जाता है. ऐसे ही एक के बाद एक आधा दर्जन अलग-अलग बर्तन हवा में उछलते हुए जाकर एक दूसरे पर टिकते जाते हैं. चार्ली कहते हैं कि बच्चों और बुज़ुर्गों को यह करतब बहुत पसंद आता था. 

इस करतब को दिखाने वाले कलाकार को दूसरे सर्कस से अच्छे पैसों का ऑफर आया जो उसने ले लिया. अब उसे ‘नोटिस पीरियड’ में इस करतब को साधने आए कलाकार को ‘केटी’ (नॉलेज ट्रांसफर) करना था. बदले में जो कलाकार आया उससे उस्ताद ख़ुश नहीं था. वजह? वो इस करतब में ‘ग़ैर ज़रूरी परफ़ेक्शन’ ला रहा था. हर बार बर्तन जाकर टिक जाता था.

अब ध्यान दीजिए.

उस्ताद ने उसे सिखाया कि ऐसे नहीं करना है भाई. इस करतब में तुम और तुम्हारा आर्ट तो है, लेकिन जिनके लिए तुम ये कर रहे हो, टिकट लेकर आए हुए बच्चे कहां हैं?

मतलब?

मतलब ये कि बर्तन को एक बार में नहीं टिका देना है. उसे गिरने दो. असफल होते हुए दिखो. बार-बार सिर खुजाते और खीझते हुए दिखो. कोशिश करते हुए दिखो. ये सब तब तक करना है जब तक सामने बैठे दर्शक तुम्हारा हौसला बढ़ाने को ताली न पीटने लगें. जब तक तुम्हारा दर्शक और हर रोज़ की उसकी नाकामयाबी तुम्हारी हमसफ़र ना बन जाए. तब तक फेल होते रहो जब तक बच्चे तुम्हारी कामयाबी की दुआ ना मांगने लगें. और उसके बाद भी, जब बर्तन टिक जाए तो अपना सीना मत ठोंको. ऊपर वाले का शुक्रिया करने की एक्टिंग करो, क्योंकि तुम्हारा दर्शक ईश्वर और उसके चमत्कार में भरोसा करता है. 

नए कलाकार को अब ये बात समझ में आई. और शो का ये ऐक्ट सुपरहिट रहा. क्योंकि इसे कोई सधा हुआ कलाकार नहीं, बल्कि किस्मत से मंच पर पहुंच गया ‘जनता के बीच का आदमी’ परफॉर्म कर रहा था.

फ़न की मास्टरी और डिस-इल्यूजन 

कभी देश की सबसे पसंदीदा वेब सीरीज़ कही जाने वाली पंचायत अपने सबसे ‘फ्रेश’ (?) सीज़न के साथ दर्शकों के बीच आ पहुंची है. लोग देख भी रहे हैं. सोशल मीडिया पर मामला बम-बम भी ‘दिख रहा है’. लेकिन? ‘वो वाली बात’ कहां है? इसमें आपका दर्शक कहां है? 

बहुत मुमकिन था और आसान भी कि इस बात की ज़मीन तैयार करने के लिए सोशल मीडिया के कुछ स्क्रीनशॉट लगा दिए जाते कि ऐसा जनता कह रही है. लेकिन यहां बात अपने अनुभव की करनी चाहिए.

सबसे पहली बात कि पंचायत का यह नया सीजन ‘नाकामयाब’ नहीं कहा जा रहा. यहां चिंता उस जादू के लगातार रिस कर खत्म होने की है जिसने इस सीरीज को घर-घर पहुंचाया था. जब पंचायत का पहला सीजन आया तो सबने कहा कि ये सिर्फ टीवीएफ कर सकता था. क्यों? 

क्योंकि टीवीएफ को ताज़ा परसने का हुनर बहुत क़ायदे से आता था. खान-खन्ना-कपूरों से गले तक ऊब चुके दर्शक ख़ुशी-ख़ुशी टीवीएफ के कोर व्यूअर बन गए क्योंकि वहां उनके अपने बीच के किस्से थे. पंचायत भी इसी वजह से हर ज़बान तक पहुंची क्योंकि उससे जोड़कर बताने को लोगों के पास अपने किस्से थे. कि साब, ऐसे ही जब हमारे भाई की शादी हुई तो बराती और घराती के बीच मिठाइयों में एक पीस का उन्नीस बीस था.

लोग बताते थे कि पंचायत में एकदम सही दिखाया है, हमारे नानी के यहां सड़क वाले बगीचे में ऐसा ही एक भूतिया जामुन का पेड़ था जिसके नीचे से रात को नहीं निकलता था कोई. मेहमान के लिए रखे गए पेठों का सम-विषम सनातन विज्ञान कितना कनेक्टिंग था. जीवन में पहली और आख़िरी बार वीवीआइपी का दर्जा पाए दूल्हे की लंतरानियां सबने अपनी आंखों से देखी समझीं थीं. उसका हठ और लड़की वालों की लाचारी दर्शक समाज की साझा स्मृति थी.

तो अब क्या हुआ?

ज़ाहिर तौर पर पंचायत के मेकर्स को ये नहीं मालूम था कि ये सीरीज़ ऐसा जादू साबित होगी. यह एक सोचा समझा दांव था जो इस वजह से चला क्योंकि इसके पीछे वो लोग मौजूद थे जिन्हें अपने फ़न की मास्टरी हासिल है. लेखक चंदन कुमार से लेकर निर्देशक दीपक मिश्रा और रघुवीर यादव से लेकर नीना गुप्ता तक, एक जादूई संयोग.

आपको मालूम है कि लोग बुज़ुर्गों के साथ क्यों नहीं बैठना चाहते? क्योंकि वो उन्हें याद दिलाते हैं कि ‘मौत अटल है’. और अभी सपनों का खांचा जोड़ता नौजवान इस सच से भरसक मुंह चुराता है, चुराना भी चाहिए. हर कोई दार्शनिक और संत तो होता नहीं.

अब पंचायत का फुलेरा वो गांव रहा नहीं जहां हंसी ठिठोली और सॉफ्ट सटायर के ज़रिए एक दूसरे पर स्ट्राइक की जाती हो. एक आदमी को सुबह खेत में लोटा लेकर भेज देने जैसे मासूम ‘षड्यंत्र’ भी नहीं रहे. दारू पीकर ‘नशा मुक्ति अभियान’ के लिए गांव का चक्कर लगाने पहुंचा जीप ड्राइवर और उसकी हताशा, जो अनगिनत लोगों की हताशा थी, रही नहीं. बाय-दी-वे उस जीप ड्राइवर के किरदार में अभिषेक ने क्या झमाझम एक्टिंग की थी. यादगार.

लेकिन लगातार रिस रही पंचायत की मटकी में अब बचा है चुनाव. केस मुकदमा. शक्ति प्रदर्शन. और दबदबा.
वो चुनाव जिसका फ़र्स्ट हैंड एक्सपीरिएंस जनता के पास इतना ही है कि एक दिन वोट देने निकलते हैं. वो केस मुकदमा जिसमें उलझने वाले लोग गांव में ‘एलीट’ माने जाते थे. जैसे नवाबों ने अपने ख़ाली वक़्त में पकवान ईजाद करवाए, वैसे काम भर के मजबूत लोगों ने अपना मन बहलाने को पटीदारों के साथ कचहरी-कचहरी खेला. वो शक्ति प्रदर्शन जिससे गांव के काम से काम रखने वाले लोग दूर रहना ही पसंद करते थे, नहीं तो फर्ज़ी नाम डालकर बच्चों का भविष्य चौपट करने वालों का शिकार होते देर नहीं लगती थी. वो दबदबा, जो अपने साथ सिर्फ़ एक चीज़ लेकर आता था, टॉक्सिक माहौल.

लोग इस टॉक्सिसिटी को याद नहीं करना चाहते. कुल मिलाकर, आप अपने आस-पास के लोगों से पूछिए कि पंचायत का नया सीजन देखा? तो ये सुनकर हैरानी होती है कि उन्होंने तो दूसरे के बाद आगे देखा ही नहीं. ज़्यादातर को नहीं मालूम कि पंचायत का ये चौथा सीजन है. 

गांव के अस्सी पार की नानी से लेकर ट्यूबवेल की कोठरी में रहने वाले काका तक ने इसरार करके पंचायत का पहला सीजन देखा और सराहा था. याद रहे, कि ये इन लोगों के जीवन का पहला लॉन्ग फॉर्म वॉच था. ऐसे अनगिनत किस्से अनगिनत लोगों के पास मिल जाएंगे. सवाल ये है कि ये दर्शक अभी भी हैं, और किसी सस्ते चाइनीज मोबाइल पर स्क्रॉल करके बेतरह रील्स देख रहे हैं. इन्हें पंचायत का पहला सीजन याद भी है. फिर कहां चूक गई ये सरताज सीरीज?

चार्ली चैप्लिन के उस्ताद का नज़रिया उधार लें तो कह सकते हैं कि ‘सब कुछ ग़ैर-ज़रूरी परफ़ेक्शन’ से भरा हुआ है. इस ऐक्ट में आपका दर्शक कहां है? 

आपसी बातचीत में सिनेमा और उसके क्राफ्ट से बाख़बर साथी ठुड्डी सहलाते हुए चिंता जताते हैं. ये चिंता किसी ऐसे दिग्गज माने गए नेता के बारे में की जा रही चिंता जैसी लगती है, जिसके सम्मोहन में इस महादेश की जनता बरसों तक रही हों, और अब बस ‘लिहाज’ के तौर पर उसका अनाप-शनाप कहा सुन रही हो.

ऐसा पंचायत के ही साथ हुआ हो ऐसा भी नहीं है. दुनिया भर की बहुत सी ऐसी सीरीज़ हैं जिनकी कामयाबी को बार-बार निचोड़ने के लिए उनके ताबड़तोड़ सीजन लाए गए. लेकिन आख़िरकार गन्ने को चाहे जिस विधि मशीन में डालें, रस निकलता नहीं है.

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