अभी तक लोगों को मोबाइल या कंप्यूटर डिवाइस कंट्रोल करने के लिए हाथों की जरूरत पड़ती है. पर क्या हो जब लोगों के केवल सोचने भर से ये डिवाइस कंट्रोल होने लगें!
इस दिशा में अरबपति कारोबारी एलन मस्क के स्टार्टअप न्यूरालिंक ने एक अहम उपलब्धि हासिल की है. ट्रायल के तौर पर कंपनी ने सर्जरी के जरिए पहली बार इंसानी दिमाग में एक चिप इम्प्लांट की है.
यह चिप एक ऐसी डिवाइस है, जो इंसानी दिमाग और कंप्यूटर के बीच सीधा कम्युनिकेशन चैनल बनाती है. जानकारों के मुताबिक, यह ट्रायल 'ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस' तकनीक के विकास में एक मील का पत्थर साबित हो सकता है, जो एक दिन लकवाग्रस्त लोगों को अपने परिवेश के साथ बातचीत (इंटरैक्ट) करने में मदद कर सकता है. मस्क ने इस इम्प्लांट की घोषणा करते हुए सोमवार को अपने एक्स पोस्ट में लिखा, "हमारी कंपनी न्यूरालिंक ने पहले इंसान में डिवाइस इम्प्लांट की. पेशेंट अच्छी तरह से रिकवर कर रहा है. शुरुआती रिजल्ट आशाजनक हैं."
पिछले साल मई में अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) से मंजूरी मिलने के बाद कंपनी ने मानव ट्रायल के लिए भर्ती प्रक्रिया शुरू की थी. यह उन लोगों पर किया जाना था, जो सर्वाइकल स्पाइनल कॉर्ड में चोट या एमियोट्रोफिक लेटरल स्क्लेरोसिस (ALS) के कारण क्वाड्रिप्लेजिया से पीड़ित थे. क्वाड्रिप्लेजिया लकवा की स्थिति है जो गर्दन से नीचे तक सभी अंगों और शरीर को प्रभावित करती है. इससे पहले कंपनी ने विभिन्न जानवरों पर भी कई ट्रायल किए थे, जिसके लिए कंपनी को कई एनिमल राइट प्रोटेक्शन संस्थाओं से आलोचना झेलनी पड़ी थी.
एक स्टार्टअप के तौर पर साल 2017 में एलन मस्क ने न्यूरालिंक की स्थापना की थी. तब से कंपनी की कोशिश रही है कि एक ऐसा 'ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस' बनाया जाए, जिससे अपने हाथों से फोन या कंप्यूटर चलाने में अक्षम लोग केवल अपने सोचने की शक्ति के जरिए इन डिवाइस को संचालित कर पाएं. इसी विचार को संभव बनाने के लिए कंपनी लोगों के दिमाग में इलेक्ट्रोड के प्रत्यारोपण (इम्प्लांट) पर काम कर रही है.
ऐसा नहीं है कि न्यूरालिंक पहली कंपनी है, जो मानव मस्तिष्क में इलेक्ट्रोड को प्रत्यारोपित कर रही है. दशकों से इस टेक्नोलॉजी पर काम हो रहा है, जिसका उद्देश्य संकेतों को समझने, लकवा, मिर्गी और पार्किंसंस रोग जैसी स्थितियों का इलाज करने के लिए इंसानी दिमाग में इलेक्ट्रोड प्रत्यारोपित करना है. इस क्रम में यूटा ऐरे को पहली डिवाइस माना जा सकता है, जिसे साल 2004 में पहली बार मानव शरीर में लगाया गया था.
कंपनी के मुताबिक, न्यूरालिंक डिवाइस (जिसे 'लिंक' कहा जा रहा है) में एक हजार से अधिक इलेक्ट्रोड हैं. यह अन्य डिवाइस से कहीं अधिक हैं. इसके अलावा इसकी खासियत है कि यह व्यक्तिगत न्यूरॉन्स को टारगेट करता है, जबकि अन्य उपकरण न्यूरॉन्स के समूहों (ग्रुप ऑफ न्यूरॉन्स) से संकेतों को टारगेट करते हैं. कहा जा रहा है कि व्यक्तिगत न्यूरॉन्स को टारगेट करने की वजह से इसकी सटीकता भी उच्च स्तर की होगा. अब सवाल उठता है कि यह काम कैसे करता है.
दरअसल, इम्प्लांट के दौरान यूजर के सिर के अंदर चिप डाला जाता है. चिप स्थापित होने के बाद वायरलेस कम्युनिकेशन के जरिए दिमाग सिग्नल डेटा को न्यूरालिंक ऐप पर भेजता है. ऐप उन कार्यों (एक्शन) और इरादों को डिकोड करता है, जो सिग्नल डेटा के जरिए दिमाग उसे भेजता है. इस चिप के अंदर माइक्रॉन-स्केल (मानव बाल के पांचवें हिस्से के बराबर) थ्रेड्स होते हैं जो मूवमेंट को कंट्रोल करते हैं. हर एक थ्रेड में कई इलेक्ट्रोड होते हैं जो उन्हें 'लिंक' से जोड़ते हैं.
कंपनी के मुताबिक, लिंक पर थ्रेड इतने महीन और लचीले होते हैं कि उन्हें मानव हाथ से नहीं डाला जा सकता. इसके लिए कंपनी ने एक रोबोटिक प्रणाली डिजाइन की है जिससे थ्रेड को मजबूती और कुशलता से इम्प्लांट किया जा सकता है. साथ ही न्यूरालिंक ऐप भी डिजाइन किया गया है ताकि ब्रेन एक्टिविटी से सीधे अपने की-बोर्ड और माउस को बस इसके बारे में सोचकर कंट्रोल किया जा सके.
डिवाइस को चार्जिंग की भी जरूरत होती है. इसके लिए कॉम्पैक्ट इंडक्टिव चार्जर भी डिजाइन किया गया है जो बैटरी को बाहर से चार्ज करने के लिए वायरलेस तरीके से इम्प्लांट से जुड़ता है. मस्क के मुताबिक, न्यूरालिंक सबसे पहले लकवाग्रस्त लोगों की मदद करना चाहता है. धीरे-धीरे यह उपकरण उन लोगों के लिए भी सहायक हो सकता है, जिन्होंने सुनने और देखने की क्षमता खो दी है.
मस्क ने यह भी उम्मीद जताई है कि यह प्रत्यारोपण भविष्य के उन लक्ष्यों को संभव बनाएगा, जब मनुष्यों का एआई के साथ मर्ज (विलय) होगा. न्यूरालिंक ने इस साल 11 रोगियों की सर्जरी करने का लक्ष्य रखा है. आमतौर पर, इस तरह का अध्ययन हर साल 5-10 रोगियों को नामांकित करता है और साल भर चलता है. तीन चरणों में इसका अध्ययन किया जाता है. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, अगर सब कुछ ठीक रहा तो इसके व्यवसायीकरण में पांच से दस साल का समय लग सकता है.