
फ़र्ज़ कीजिए कि कोई बस किसी लंबे सफ़र के लिए तैयार की जा रही हो. इसे तैयार करने का ज़िम्मा कई लोगों पर होगा. कोई टायर का काम देखेगा, कोई सीटों की कुशनिंग देखेगा और कोई इंजन और स्टीयरिंग वगैरह देखेगा. और फिर सब कुछ ड्राइवर के हाथ में होगा. अब अगर, टायर वाला तो अपना काम चकाचक कर दे लेकिन इंजन वाला बेकाम निकले तो? ज़ाहिर है बस का सफ़र अंग्रेज़ी वाला ‘Suffer’ बन जाएगा.
ठीक इसी तरह कोई फिल्म जब बनती है तो उसका दारोमदार कई लोग संभालते हैं. मोटामाटी समझें तो, सबसे पहले राइटर, जो इस फिल्म को अपने दिमाग के पर्दे पर देखता है. फिर अभिनेता, जो इस कहानी में जान डालते हैं और फिर जहाज का कप्तान, निर्देशक. जो ‘मात्रा का ध्यान रखता है’. जितनी ज़रूरत, उतना आर्ट.
ऐसा अनगिनत बार हुआ है जब फिल्म की कहानी काग़ज़ पर तो असरदार रही लेकिन पर्दे तक आते-आते उसका चेहरा ही बदल गया, और बात नहीं बनी. ठीक इसी तरह अभिनेता और निर्देशक तो जान झोंक देते हैं लेकिन काम करने के लिए कोई क़ायदे की कहानी ही नहीं होती. लेकिन, ऐसा बहुत बहुत कम बार होता है जब एक फिल्म को वो सब कुछ मिल जाए जिसकी दरकार होती है. नेटफ्लिक्स पर स्ट्रीम हो रही फिल्म 'आप जैसा कोई' इसी तरह की फिल्म है. सब कुछ ज़रूरी मात्रा में. उम्दा मनोरंजन.
क्या कहानी है?
कहानी जमशेदपुर के श्रीवेणु त्रिपाठी और कलकत्ता की मधु बोस की है. रिश्तेदारों के हिसाब से दोनों शादी की उम्र पार कर चुके हैं, लेकिन नाउम्मीद नहीं हैं. 42 साल का श्रीवेणु स्कूल में संस्कृत पढ़ाता है, दूसरी तरफ मिस बोस फ्रेंच टीचर हैं. दोनों के अपने-अपने कम्फर्ट ज़ोन और रिश्तों को लेकर अपनी-अपनी परिभाषाएं हैं. एक संयोग से जब ये दोनों सिंगल से क़रीब-क़रीब डबल होने को ही थे, कि एक सच इस सपने की दुनिया में अंधड़ ला देता है.
इस आंधी में सबसे पहले उड़ते हैं चेहरों पर से नक़ाब, फिर सबके ख़ानदानी झंडे सबका साथ छोड़ते हैं. और फिर कहानी एक मोड़ लेकर बल खाती हुई एक अलग सच में बहने लगती है.

कहानी में क्या ख़ास है?
'लोलिता' जैसे वर्ल्ड बेस्ट सेलर उपन्यास लिखने वाले रशियन अमरीकन लेखक नोबोकोव ने एक बड़ी सुंदर बात कही है. 'सच हमेशा सीधा और सादा होता है, इसे न्यूनतम शब्दों में कहा जा सकता है.' इसी को थोड़ा और विस्तार से समझने के लिए मनोविज्ञानी सिग्मंड फ्रायड के पक्के शिष्य रहे कार्ल जुंग की एक बात समझनी चाहिए कि 'अगर ग़ैर-ज़रूरी शब्दों का इस्तेमाल हो रहा है तो दो ही बातें हो सकती हैं, या तो बोलने वाला बात समझ नहीं रहा, या सुनने वाले को बात समझ नहीं आएगी.' अब देखिए दुनिया के दो दिग्गज कह रहे हैं कि सादागोई ही बेस्ट है. 'आप जैसा कोई' की कहानी इसी सादागोई की मिसाल है. ज़रूरी मुद्दे पर ज़रूरत भर की बात.
ट्रेडिशनल माहौल में पला एक बच्चा जब आदमी बनता है तो सीखे-सिखाए तरीकों के असर में औरत की सीमाएं तय करने लगता है. गुज़रे कुछ बरसों में बहुत चालाकी से इस अपराधबोध का इलाज ये कहकर निकला गया कि 'मैं तो अपनी पत्नी को काम करना अलाउ करता हूं...' 'हमारे यहां बाहर निकलने की आज़ादी दी जाती है'...

ये सब कहकर ख़ुद को अल्ट्रा मॉडर्न समझते आदमी के सामने यह फ़िल्म सवाल का वो इक्का रखती है जिसकी अभी तो कोई काट 'मर्दवाद' के पास नहीं.
'मेरी आज़ादी की मात्रा तुम क्यों तय करोगे?' ये सवाल इस बहस को ब्लैक एंड व्हाइट के ज़रूरी खांचे में बांटता है. या तो आपके घर की औरत आज़ाद है, या नहीं. किस हद तक? यह सवाल बेमानी है.
आप खूंटे से रस्सी की लंबाई बढ़ाकर समाज में चेहरा चमकाते नहीं फिर सकते कि साहब हम 'नई सोच वाले' लोग हैं. नई सोच के पैकेट में बेचा जा रहा पुरानी सोच का 'पाप'कॉर्न अब चलेगा नहीं. ये कहानी इसी सीधी-सी बात की मुनादी करती है.
2023 में 'थैंक यू फॉर कमिंग' और उससे पहले 'मोदी : जर्नी ऑफ अ कॉमन मैन' के दो सीजन लिख चुकीं राधिका आनंद का यह अच्छा कम बैक साबित हुआ है. 'आप जैसा कोई' की धारदार राइटिंग राधिका के भीतर बतौर लेखक 'अनएक्सप्लोर्ड टेरिटरी' की ओर उनके सफर का बिगुल साबित हुआ है. बतौर को-राइटर 'NH 10' जैसी कमाल की फिल्म से ट्रेनिंग पाकर निकले ज़ेहान हांडा को भी इसकी लिखाई का क्रेडिट जाता है.
एक्टिंग और डायरेक्शन
2021 में एक कमाल की फ़िल्म आई थी 'मीनाक्षी सुन्दरेश्वर'. इस फिल्म की कप्तानी कर चुके विवेक सोनी का क्वालिटी बार वैसे ही इतना ऊंचा था कि अगर ये फ़िल्म वैसी नहीं बनती जैसी बन गई, तो विवेक बहुतों को निराश कर देते. इस फिल्म के डायरेक्शन से विवेक सोनी ने 'रॉम-कॉम' की कैटेगरी में जबरदस्त दावेदारी पेश की है आने वाले समय के लिए. उनके खाते में और क्या आएगा ये देखने वाली बात होगी, होनी ही चाहिए.

अब बात कलाकारी की. ज़ाहिर तौर पर आर. माधवन से किसी तरह की चूक होनी नहीं थी, तो माधवन 42 साल के सिंगल संस्कृत अध्यापक के किरदार में अचूक हैं. इनका असर फ़िल्म देखने के काफ़ी बाद तक दिमाग़ में ज़ायके की तरह घुला रहता है.
कलकत्ते की अल्ट्रा मॉडर्न फ्रेंच टीचर मधु बोस के किरदार में फ़ातिमा सना शेख को देखकर ऐसा बिल्कुल नहीं लगता कि वो उस स्कूल में फ्रेंच सच में नहीं पढ़ाती होंगी. यही किसी भी किरदार की कामयाबी होती है.
इस लिहाज से कमाल का काम देखने को मिलता है श्रीवेणु की कतई घरेलू भाभी के किरदार में आयशा रज़ा मिश्रा का. इनका काम इतना शानदार है कि आप अगर फिल्म के अंत में खुद से पूछें कि भाभी का नाम क्या था, तो आपको याद आएगा ही नहीं. आयशा ने बहुत समय के बाद पर्दे पर अपनी एक्टिंग का जादू वाक़ई बिखेर ही दिया है. अपने कतई ख़ानदानी दंभ से भरे पति के सामने जिस तरह से सधा हुआ अभिनय इन्होंने किया है, कम देखने को मिलता है.
आयशा का काम ही था जो अपने सामने पति के किरदार में कमाल के एक्टर मनीष चौधरी के काम को कॉम्प्लीमेंट करता है. मनीष भी पर्दे पर अच्छे खासे वक्फे के बाद सामने आए हैं लेकिन उनका कमबैक दर्ज किए जाने लायक है.

इन सब ‘पावर पैक्ड पर्फोर्मेंसेज़’ के आगे अगर हम श्रीवेणु के दोस्त का किरदार निभाते नमित दास का काम देखने से रह गए तो कसर रह जाएगी. नमित ने लड़के के दोस्त के तौर पर इस लिहाज से बेहतर काम किया है कि उनका किरदार लीड की छांव के नीचे नहीं पलता बल्कि उसकी अपनी अदाकारी है जो टाइम आने पर खिलकर दिखाई देती है.
तो कुल मिलाकर
एक सीधी, सादी और अपने मायनों में पक्की फिल्म देखना चाहते हैं तो 'आप जैसा कोई' के थम्ब पर क्लिक कर सकते हैं. खिड़की से अचानक आए ताज़ा हवा के झोंके जैसा घिसा हुआ बिम्ब ऐसे काम को डिफाइन करने के काम आज भी आता है. क्योंकि सरल बातों की कोई उम्र नहीं होती और वो वक़्त के साथ बूढ़ी नहीं होतीं.