चाहे 1980 में इंदिरा गांधी के कैंपेन मैनेजर रहे श्रीकांत वर्मा का नारा "जात पर न पात पर, इंदिरा जी की बात पर, मोहर लगेगी हाथ पर" हो या 16वीं लोकसभा चुनाव से पहले मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ये कहना कि "कीचड़ उछालोगे तो कमल ज्यादा खिलेगा" हो, इनमें अलग-अलग पार्टियों के चुनाव चिह्न की अहमियत को आसानी से समझा जा सकता है.
किसी चुनाव में चुनाव चिह्न का महत्व कितना होता है इसको इस बात से भी समझा जा सकता है कि जब मतदाता वोट डालने जाते हैं, तो वे इन्हीं चिह्नों के आधार पर अपने पसंदीदा उम्मीदवार की पहचान करते हैं. और तो और जब पार्टियों में टूट होती है तो इन चिह्नों को कब्जाने के लिए मारामारी होती है. यहां अब सवाल उठ सकता है कि आखिर चुनाव चिह्नों की जरूरत पड़ी क्यों?
इसे समझने के लिए घड़ी की चाबी पीछे मोड़ते हुए पहले लोकसभा चुनाव में चलते हैं. साल 1951-52 का वक्त, केंद्रीय निर्वाचन आयोग यानी ईसीआई को महसूस हुआ कि एक ऐसे देश में जहां की पढ़ी-लिखी आबादी 20 फीसदी से भी कम है, वहां चुनाव चिह्न लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए बेहद अहम हैं. तय हुआ कि ऐसे चिह्न प्रयोग में लाए जाएं जो लोगों में जाना-बूझा हो और आसानी से पहचान में आ जाए.
यह भी तय हुआ कि इन चुनाव चिह्नों में कोई भी ऐसी वस्तु या प्रतीक शामिल न किए जाएं जो धार्मिक या लोगों की भावनाओं से जुड़े हों. गाय, मंदिर, चरखा, राष्ट्रीय ध्वज जैसे प्रतीकों के लिए मनाही की गई. पहले आम चुनाव के समय ईसीआई ने अपनी तरफ से 26 चुनाव चिह्नों को अप्रूवल दिया. इन्हीं में से राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों को अपनी पसंद का चुनाव चिह्न चुनना था.
मौजूदा समय की बात करें चुनाव चिह्नों के अलॉटमेंट को लेकर ईसीआई के नियम-कायदे हैं. कंडक्ट ऑफ इलेक्शंस रूल्स, 1961 के नियम 5 और 10 इसी से जुड़े हैं. रूल 5 के तहत ही उम्मीदवारों की पसंद के चुनाव चिह्नों और उसके लिए शर्तों के बारे में जानकारी दी गई है. वहीं, इलेक्शन सिंबल्स (रिजर्वेशन एंड अलॉटमेंट) ऑर्डर, 1968 "रिजर्वड सिंबल" की बात करता है. इसी नियम के तहत चिह्नित पार्टियों के उम्मीदवार उस पार्टी के चुनाव चिह्न पर मुकाबला कर पाते हैं. जबकि "फ्री सिंबल" वो चुनाव चिह्न होता है जो निर्दलीय उम्मीदवारों को उनकी पसंद और उपलब्धता के आधार पर मिलता है.
कांग्रेस की बात करें तो पहले आम चुनावों से अब तक उसका चुनाव चिह्न दो बार बदल चुका है. पहले आम चुनाव में कांग्रेस का चुनाव चिह्न 'दो बैलों की जोड़ी' था जिनके ऊपर जुए (बैलों की गर्दन पर रखी जाने वाली लकड़ी की शहतीर) रखे हुए थे. ईसीआई ने 17 अगस्त, 1951 को इसे कांग्रेस को अलॉट किया था. दिलचस्प बात है कि उस समय भी 'हाथ' चुनाव चिह्न था, लेकिन उसे ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक (रुइकर ग्रुप) को सौंपा गया.
खैर, 1951 से 1969 तक कांग्रेस दो बैलों की जोड़ी चुनाव चिह्न के साथ ही मैदान में उतरी. लेकिन जब उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष एस. निजलिंगप्पा की लीडरशीप में कांग्रेस में दो फाड़ हो गई तो चुनाव चिह्न पर कब्जे को लेकर हंगामा मचा. कांग्रेस ओ (ओ का मतलब ऑर्गेनाइजेशन) का नेतृत्व जहां निजलिंगप्पा कर रहे थे, वहीं कांग्रेस आर (आर का मतलब रिक्विजिशनिस्ट) की अगुवाई जगजीवन राम के हाथों में थी जिन्हें इंदिरा गांधी का समर्थन हासिल था.
11 जनवरी, 1971 को ईसीआई ने फैसला किया कि जगजीवन राम की कांग्रेस ही असल कांग्रेस है. लेकिन सु्प्रीम कोर्ट ने ईसीआई के इस फैसले पर स्टे लगा दिया और फैसला सुनाया कि दोनों में से किसी भी ग्रुप को दो बैलों की जोड़ी चुनाव चिह्न के रूप में आवंटित न किया जाए. अब कांग्रेस को नए चुनाव चिह्न की जरूरत पड़ी. ईसीआई ने 25 जनवरी, 1971 को कांग्रेस को गाय और बछड़े के रूप में नया चुनाव चिह्न सौंपा. जबकि निजलिंगप्पा को चरखा चलाती हुई महिला बतौर चुनाव चिह्न मिली.
तब बहुत से नेताओं ने इस बात का विरोध किया कि चुनाव चिह्न के तौर पर गाय और बछड़े का इस्तेमाल सही नहीं है क्योंकि यह लोगों की धार्मिक भावनाओं से जुड़ा है. लेकिन चुनाव आयोग ने इस तरह की किसी भी आपत्ति पर गौर नहीं किया और चुनाव चिह्न बरकरार रहने दिया.
सत्तर का दशक बीतते-बीतते कांग्रेस में एक और विभाजन हुआ. 1977 में जनता पार्टी से चुनाव हारने के बाद इंदिरा गांधी के विरोध में एक और गुट खड़ा हुआ जिसकी अगुवाई देवराज उर्स और के. ब्रह्मनंद रेड्डी कर रहे थे. अबकी जो कांग्रेस बनी उसे कांग्रेस (आई) कहा गया. आई माने इंदिरा. 2 जनवरी, 1978 को इंदिरा गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष चुन ली गईं. अध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने ईसीआई से संपर्क किया और कांग्रेस (आई) के लिए बतौर चुनाव चिह्न गाय और बछड़ा रिटेन करने के लिए गुजारिश की.
हालांकि ईसीआई ने इसके लिए साफ मना कर दिया. जिसके बाद वे सुप्रीम कोर्ट भी गईं. लेकिन यहां भी सर्वोच्च अदालत ने मामले में दखल देने से इनकार कर दिया. 2 फरवरी, 1978 को आखिरकार ईसीआई ने कांग्रेस को नए चुनाव चिह्न के रूप में 'हाथ' सौंपा. और तब से हाथ लगातार पार्टी का चुनाव चिह्न रहा है. ये तो हुई देश की सबसे पुरानी पार्टी की बात. आइए अब देश की सबसे बड़ी पार्टी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के चुनाव चिह्न के इतिहास के बारे में जानते हैं.
भाजपा से पहले भारतीय जनसंघ (बीजेएस) पार्टी हुआ करती थी जिसके संस्थापक सदस्यों में श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय जैसे नेता थे. पहले आम चुनावों में जनसंघ ने भी हिस्सा लिया था जिसे चुनाव चिह्न के रूप में "दीपक" मिला था. बतौर चुनाव चिह्न ये दीपक 1977 तक जलता रहा जब तक कि भारतीय जनसंघ का अनौपचारिक रूप से जनता पार्टी में विलय नहीं हो गया. विलय के समय जनता पार्टी का चुनाव चिह्न "हलधर किसान" था जो एक पहिए के भीतर था.
1977 में इंदिरा गांधी को हराने के बाद जनता पार्टी सत्ता में आई लेकिन जल्दी ही पार्टी में टूट होनी शुरू हो गई. इसी टूट के सिलसिले में 6 अप्रैल, 1980 को कुछ नेताओं का एक समूह दिल्ली में मिला. ये नेता पहले भारतीय जनसंघ में साथ हुआ करते थे. इस समूह ने अटल बिहारी वाजपेयी को अपना नेता घोषित किया.
वाजपेयी गुट और जनता पार्टी में हलधर किसान चुनाव चिह्न को लेकर आपस में दावेदारी का खेल शुरू हुआ. मामला ईसीआई के पास पहुंचा, जहां ईसीआई ने फैसला सुनाया कि दोनों में से कोई भी गुट तब तक इस नाम का इस्तेमाल नहीं करेगा जब तक कोई आखिरी फैसला नहीं हो जाता.
बहरहाल, 24 अप्रैल, 1980 को ईसीआई ने जनता पार्टी के चुनाव चिह्न हलधर किसान को फ्रीज कर दिया. और अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई वाले समूह को एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में मान्यता दे दी. पार्टी का नाम पड़ा - भारतीय जनता पार्टी और चुनाव चिह्न के रूप में "कमल" का फूल हासिल हुआ. तब से लेकर आज तक भाजपा का चुनाव चिह्न कमल का फूल रहा है.