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जवान: शाहरुख के लोकतंत्र बचाने वाले आखिरी संदेश का असली मतलब क्या है?

दो घंटे 45 मिनट की फिल्म में बहुत कुछ है–एक मसाला फिल्म के सभी एलिमेंट, कुछ बोझिल गीत, एक्शन, जनता के लिए देश को बदलने का संदेश. लेकिन इस बीच असल संदेश ये है कि शाहरुख बदलते दौर के साथ बदल सकते हैं

जवान मूवी में एक सीन के दौरान शाहरुख खान का किरदार
जवान मूवी में एक सीन के दौरान शाहरुख खान का किरदार
अपडेटेड 11 सितंबर , 2023

शोर मचाते और ताली पीटते लोगों के बीच मुंह में सिगार दबाए शाहरुख खान फिल्म में दूसरी बार एंट्री ले रहे हैं. आंखों के नीचे झुर्रियां लेकिन बदन गठीला और एक्शन मजबूत. देश एक एंटी-हीरो को देख रहा है जो उन्हें हर अन्याय से इंसाफ दिलाने आया है. अब वो दुश्मन को मारेगा. और कमजोर को न्याय मिलेगा. 

आम आदमी से कुछ ज्यादा और सुपरहीरो से कुछ कम–नायक की ये छवि बॉलीवुड हमेशा से गढ़ता रहा है और तमाम अन्य फॉर्मूलों के साथ इस फॉर्मूले पर कई दशकों से सिनेमा बनाता आया है. लेकिन इस बार बजट, स्केल और फिल्म की पॉलिटिक्स, सब बड़े स्तर पर हैं. या यूं कहें कि बॉलीवुड के आखिरी सुपरस्टार शाहरुख खान के स्तर पर है. 
 
'जवान' फिल्म ने अपनी ओपनिंग के दिन ही दुनियाभर में 100 करोड़ रुपए की कमाई की. ये कहा जा सकता है कि 5 साल पहले फिल्म ‘जीरो’ के अपना नाम सार्थक करने के बाद 2023 में शाहरुख ने अपनी किस्मत बदली. उन्होंने कुछ ही महीनों के भीतर दो बड़ी हिट्स देकर ये संदेश दिया कि “पिक्चर अभी बाकी है”. 

फिल्म ‘पठान’ के आखिरी सीन में पठान (शाहरुख) और टाइगर (सलमान) एक दूसरे से बात करते हुए कहते हैं कि भविष्य में उनकी जगह कौन लेगा. दोनों इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि आने वाली पीढ़ी में वो आग नहीं है. और बावजूद इसके कि उनका शरीर अब बूढ़ा होने लगा है, अभी काम उन्हें ही संभालना पड़ेगा. प्रत्यक्ष रूप से देखा जाए तो यशराज फिल्म्स के स्पाई यूनिवर्स में आगे आने वाली फिल्मों टाइगर-3 और पठान -2 के लिए ये सीन एक बिल्डअप था.  मगर शायद शाहरुख खान का भी अपने दर्शकों के लिए ये संदेश था कि उनके अंदर का एक्टर अब भी युवा है और उनका जादू खत्म नहीं हुआ है.

मां, बहन, बेटी, प्रेमिका का नायक

कई–लगभग एक दर्जन महिला किरदारों–और अंत में आई छह हजार महिलाओं की फौज के बावजूद ये फिल्म शाहरुख खान को केंद्र में रखती है. मगर दिलचस्प ये है कि जिस दुनिया के केंद्र में उनका किरदार आजाद पैदा हुआ और पला-बढ़ा, वो मूल रूप से एक मातृसत्तात्मक दुनिया है. आजाद जेल में पैदा हुआ और उसे उसकी वीरांगना मां ने पाला. वो मां जो अपने फौजी पति को भी कुश्ती में पटखनी दे देती थी. जिसने पति की हत्या करने वाले लोगों से पैसे न लेकर उन्हें मौत के घाट उतारना बेहतर माना. इस मां की फांसी के बाद जेल की वॉर्डन कावेरी ने आजाद को बड़ा किया. अब उसी जेल का जेलर आजाद, वहां की निर्दोष महिला कैदियों की मदद से अपने पिता और करोड़ों भारतीयों का बदला लेगा. 

ढेर सारे एक्शन के बीच भी लोगों को 1990-2000 के दशक के शाहरुख की याद आती रहे, ये बात ये फिल्म सुनिश्चित करती है. इसलिए फिल्म में बीच-बीच में एक प्रेम में गुलाबी हुआ जाता पुरुष भी दिखता है. उससे भी अधिक इस पुरुष के सॉफ्ट कॉर्नर दिखते हैं. मसलन होने वाली पत्नी को देख शरमा जाना, पिता का गाल चूमना और अपने गैंग में अन्याय का शिकार हुई लड़कियों की कहानी याद कर रो पड़ना. इस तरह पॉपुलर कल्चर में शाहरुख का किरदार एक नए पौरुष की परिभाषा लिखता है, जो उनके पुराने किरदारों के पौरुष से अलग दिखती है. 

फिल्म कई अन्य महिला-प्रधान थीम्स को भी छूकर गुजरती है. जैसे नर्मदा का एक बिन-ब्याही मां होने का अभिमान, ऐश्वर्या के किरदार का स्वाभिमान, महिला कैदियों से जुड़े प्रिजन रिफॉर्म्स और ये तथ्य कि महिलाएं अगर मिलकर लड़ें तो बड़े से बड़े पितृसत्तात्मक तंत्र, जो करुणा और संवेदनाओं से विहीन हैं, उन्हें बदला जा सकता है.  

हालांकि इन सभी थीम्स के बावजूद फिल्म अंततः बदलाव का नायक और क्रांति का एजेंट पुरुष को ही रखती है, ठीक उसी तरह, जिस तरह ‘चक दे इंडिया’, ‘दंगल’ और ‘पिंक’ सरीखी फिल्में करती आई हैं.और शायद आगे भी करती रहेंगी. इस बात पर भी गौर करें कि स्वदेस फिल्म की याद दिलाने वाली, आजाद की कावेरी अम्मा (रिद्धि डोगरा) असल जिंदगी में शाहरुख से लगभग 20 साल छोटी हैं. मुख्यधारा की फिल्मी दुनिया में रील और रियल ‘वोक’ होने में भी शायद इतना ही फासला है.

नया पैकेट, पुराना माल 

थीम के तौर पर ऐसा कुछ भी नया नहीं है जो यह फिल्म दर्शकों को देती हो. अगर हम ये मानकर चलें कि हिंदी सिनेमा ने जब ‘बॉलीवुड’ का रूप लेना शुरू किया, उसने कुछ प्रकार के नायकों और थीम्स को जन्म दिया.  जैसे, एंग्री यंग मैन, अमीरों से छीनकर गरीबों में बांटने वाला रॉबिनहुड, ईमानदार पुलिस वाला, कानून को अपने हाथ में लेने वाला नायक, भीड़ से और भीड़ के सामने त्वरित न्याय करने वाला, कोर्टरूम में भाषण देने वाला, देश के लिए मर-मिटने वाला, पिता और परिवार पर हुए अन्याय का बदला लेने वाला, वगैरह. साथ ही बॉलीवुड ने एक ऐसी दुनिया भी गढ़ी जो एक देश और समाज के नियम कानून, साइंस के सिद्धांत और लॉजिकल रीजनिंग से दूर होती है. ‘जवान’ ने फिल्म में ये सभी और इससे इतर जो भी सिनेमाई एलिमेंट हो सकते हैं, उनका इस्तेमाल किया है. दक्षिण में बने कमर्शियल सिनेमा से प्रेरित लार्जर देन लाइफ सीन्स बनाना तो खैर जाहिर ही है. फिल्म के अलग-अलग सीन, अलग-अलग फिल्मों से प्रेरित लगते हैं. मसलन:

  1. सिंघम, सूर्यवंशी, सिंबा जैसी फिल्में जिनका नायक एक ईमानदार पुलिस वाला होता है जो खुद ही न्याय करने में यकीन रखता है 
  2. नायक जैसी फिल्म जिसमें भ्रष्टाचार पर प्रहार और त्वरित एक्शन से समाज को बदला जाता है 
  3. हिंदुस्तानी, रंग दे बसंती, शहंशाह, वी फॉर वेंडेटा, बैटमैन जैसी दसियों फ़िल्में जो विजिलांटी जस्टिस दिखाती हैं. जिसमें सिस्टम से परेशान आम इंसान हथियार उठाकर खुद न्याय करने निकल पड़ता है. 
  4. मनी हाइस्ट सीरीज जिसमें एक मास्टरमाइंड सिस्टम के सताए अलग-अलग स्किल सेट के कई लोगों को जमा करता है और सरकार से लूटकर आम लोगों में पैसे बांटता है.

फिल्म की पॉलिटिक्स

फिल्म के ट्रेलर में “बेटे को हाथ लगाने से पहले, बाप से बात कर” डायलॉग को लोगों ने समीर वानखेड़े के लिए संदेश माना. लेकिन फिल्म की पॉलिटिक्स यहां पर खत्म नहीं होती. फिल्म 1984 में हुई भोपाल गैस त्रासदी, कर्ज के चलते किसानों की आत्महत्या, लालफीताशाही के चलते 2016 में गोरखपुर में एंसेफ्लाईटिस से हुई 125 बच्चों की मौत, करप्शन के चलते आर्मी के जवानों की मौत- जैसे कुछ संवेदनशील मसले उठाती है. देशभर की ईवीएम मशीन्स चुराकर सरकार को ब्लैकमेल करना और अंत में टीवी स्क्रीनों पर आकर देशवासियों को संदेश देना भी फिल्म की पॉलिटिक्स का हिस्सा है. नेताओं से सवाल पूछने और धर्म-जाति से ऊपर उठने के संदेश पर फिल्म को खत्म किया जाता है. ये आम दर्शकों के लिए ‘कॉल टू एक्शन’ जैसा है. कुछ रिव्यूज कहते हैं कि खुद को पॉलिटिकल मसलों से दूर रखने वाले भारतीय एक्टर्स के बीच ये डायरेक्टर एटली और शाहरुख खान की ओर से एक बहादुर कदम था. 

हालांकि इन सभी घटनाओं और मसलों का सिनेमाई ट्रीटमेंट सतही दिखता है. एक एक्शन पैक्ड फिल्म होते हुए भी फिल्म में कुल बहे आंसुओं से ड्रम भरा जा सकता है. ये बात और है कि यह त्रासद सीन्स ऑडियंस में बैठे लोगों में करुणा से अधिक उत्साह भरते रहे.  

और अंत में 

दो घंटे 45 मिनट की फिल्म में बहुत कुछ है–एक मसाला फिल्म के सभी एलिमेंट, कुछ बोझिल गीत, एक्शन, जनता के लिए देश को बदलने का संदेश. लेकिन इस बीच असल संदेश ये है कि शाहरुख बदलते दौर के साथ बदल सकते हैं. और देश में बदल रहे सिनेमाई सीन, जिसपर दक्षिण में बनने वाला कमर्शियल सिनेमा राज कर रहा है, उससे जुड़ने में शाहरुख खान को परहेज नहीं है. इस दौर में जब उत्तर भारत के दर्शक भी प्रभास (बाहुबली), अल्लू अर्जुन (पुष्पा), यश (केजीएफ) और रामचरण (आरआरआर) में पौरुष और मनोरंजन ढूंढने की ओर बढ़ चले हैं, शाहरुख खान अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाने से नहीं चूकेंगे.

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