
एक हरे रंग का विशाल शिलालेख है. सफेद रंग से बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा है 'भारत का संविधान'. शिलालेख से टेक लेकर एक शख्स, उजड़ी हुई हालत में अपनी दूध पीती बच्ची को लेकर बैठा है. थका और भागता हुआ ये आदमी भारत के सबसे ताकतवर वाक्य के सामने बैठा हुआ है. एकदम लाचार. सिनेमा की नई-नवेली आमद जोरम (Joram) का यह एक दृश्य है. हाल के वर्षों में किसी हिंदी फिल्म में प्रतीकात्मक ढंग से इतना मजबूत और मैसेजिंग से भरा कोई फ्रेम नहीं दिखा है. इसे फिल्म के निर्देशक देवाशीष मखीजा की सिनेमाई समझ के तौर पर भी देखा जा सकता है.
तांडव और भोंसले के बाद एक बार फिर अभिनेता मनोज बाजपेयी (Manoj Bajpayee) और फिल्म निर्देशक देवाशीष मखीजा (Devashish Makheeja) एक साथ जोरम लेकर पेश हुए हैं. लीक से हटकर बनने वाले सिनेमा की ये ताज़ा किश्त है. क्या है जोरम की कहानी? ये एक बच्ची की कहानी है. बच्ची जो कुछ ही महीने की है और पूरी फिल्म में एक नीले कपड़े से बंधी हुई है. ये एक बाप की कहानी है जो कभी माओवादी था, अब मजदूर है. बाप जो अपनी पत्नी के साथ बैठकर सुकून भरे पल में 'पलाश के फूल' गाना गाता है.
जोरम एक पत्नी की कहानी है जिसका पति सांसद था, नक्सलियों ने उसकी हत्या कर दी. पति की हत्या के बाद सामान्य और चूल्हा-चौकी करने वाली महिला कठोर और बदले की आग में सुलगती हुई खूंखार हो जाती है. ये आदिवासियों के जल-जंगल और ज़मीन की लड़ाई की कहानी है. ये स्टेट बनाम नक्सलियों और इनके बीच पिसते हुए आदिवासियों की कहानी है.
फिल्म की कहानी तो एक ही होती है. बाकी उसकी परतें होती हैं. परत खुलती जाती हैं और एक ही कहानी में कई कहानियां दिखने लगती हैं. झारखंड के एक गांव में दसरु (मनोज बाजपेयी का किरदार) रहता है जिसकी पत्नी वानो (तनिष्ठा चटर्जी) है और 2-3 महीने का बच्चा है. दसरु कभी माओवादी था. बाद में मुंबई में अपनी पत्नी के साथ मजदूरी करने लगता है. पत्नी अपनी गोद में बच्चे को बांधे रहती है. सब कुछ ठीक चल रहा होता है तभी एक दिन उसकी हत्या हो जाती है. क्यों? इसका जवाब आप फिल्म देखकर तलाशें.

बात पत्नी की हत्या पर खत्म नहीं होती. असल संघर्ष यहीं से शुरू होता है. दसरु अपने बच्चे को लेकर भागने लगता है. उसे पकड़ने का नोटिस निकलता है. उसके पीछे मुंबई पुलिस लग जाती है. एक पुलिसवाला है रत्नाकर (ज़ीशान अय्यूब का किरदार) जो उसे पकड़ने की कोशिश में जुटा हुआ है. दसरु और रत्नाकर पूरी फिल्म में एक-दूसरे के आसपास ही दिखते हैं. इस बीच भागते-भागते दसरु वहीं पहुंच जाता है, जहां से ये फिल्म शुरू हुई थी- झारखंड का वही गांव.
मुंबई पुलिस रत्नाकर को झारखंड भेजती है. यहां हर जगह दसरु की दो तस्वीरों के साथ पैम्फलेट लगाया जाता है. पैम्फलेट पर उसे ज़िंदा या मुर्दा पकड़ने की बात लिखी है. जो दो तस्वीरें लगी हैं उनमें एक उस वक्त की है जब वो माओवादियों के साथ रहता था- माओवादियों के ड्रेस वाली फोटो. दूसरी तस्वीर में वो अपने बच्चे को पीठ पर बांधे हुए दिखता है.
जब कहानी में एक बार फिर झारखंड की एंट्री होती है तो साथ दो और प्रमुख किरदार आते हैं- फूलो कर्मा (स्मिता तांबे) और बिदेसी (मेघा माथुर). फूलो कर्मा विधायक है, बिदेसी उसकी बेटी है. फूलो कर्मा के ही आदेश पर दसरु को मारने की जद्दोजहद हो रही है. उसके पुराने साथी 'ऑपरेशन हंट' के तहत मारे जा चुके हैं. एक सैमसन (अमरेंद्र शर्मा) बचा है, जो स्टेट से मिल गया है. दसरु को मरवाना चाहता है लेकिन वो सैमसन के इस इरादे को भांप कर बच जाता है.
कहानी आगे बढ़ती है और दसरु फूलो कर्मा की फ्लीट की एक गाड़ी के पीछे लटककर प्रगति स्टील (फूलो की कंपनी) के क्षेत्र में पहुंच जाता है, जहां खनन का काम चल रहा है. फिल्म अपने आखिरी पड़ाव पर है. सभी प्रमुख किरदार एक जगह आ चुके हैं. रत्नाकर को मुंबई वापस आने का आदेश मिला है लेकिन वो फूलो कर्मा से मिलने उसी जगह पहुंचा हुआ है. दसरु भी फूलो से मिलने और अपनी जान बचाने के लिए अपनी बच्ची जोरम के साथ पहुंच गया है. बिदेसी ये सब देख रही है और यहां जो कुछ होता है उसे दर्शक भी देखते ही रह जाते हैं.
सिम्बॉलिज्म गढ़ती फिल्म
इस फिल्म की सबसे कमाल बात ये है कि कुछ भी थोपा हुआ नहीं लगता . ना आदिवासी जीवन, ना उनका संघर्ष और ना ही स्टेट का व्यवहार. सब कुछ ऐसे घटता है जैसा घटता हुआ हमने अख़बारों में पढ़ा है. इन सबके बीच कई सीन और संवाद सहज ढंग से ताकतवर प्रतीक गढ़ते हुए दिखते हैं.

जब दसरु माओवादी था तब उसका एक साथी सैमसन था. सैमसन बाद के दिनों में स्टेट से मिल गया है वो दसरु को मरवाने के लिए मुखबिरी करता है. दसरु समझ जाता है और एक नुकीली लकड़ी उसकी आंख पर भिड़ाकर वजह पूछता है. सैमसन कहता है, "मैं क्या करूं. बोल, क्या करूं. अगर पुलिस की मदद नहीं करता हूं तो सिंपेथाइजर बोलकर जेल में ठूस देते हैं. और माओवादियों की मदद नहीं करें तो सरकारी कुत्ता बोलकर उल्टा लटका देते हैं. दोनों तरफ से तो हम मर रहे हैं. मेरे पास तो कोई चारा ही नहीं है." माओवादियों और स्टेट के बीच फंसे आम आदिवासियों की पूरी ज़िंदगी इस एक डायलॉग में दिख जाती है.
एक सीन में स्टेट के प्रतिनिधि के तौर पर एक आदमी आदिवासियों से कह रहा है कि अपनी ज़मीन दे दो, सरकार यहां विकास का काम करेगी. ज़मीन के लिए उचित कीमत भी देगी. पलटकर दसरु कहता है, हम यहां 2 हज़ार साल से रहते हैं. इस पर स्टेट का आदमी पूछता है कि आईडी कार्ड, आधार कार्ड है? प्रगति के नाम पर ज़मीन लेने और जंगल काटने के विरोध में आदिवासी संघर्ष यहां दिखता है. साथ ही दिखता है 'मूल निवासी' शब्द और पहचान की पॉलिटिक्स.
हरे शिलालेख पर 'भारत का संविधान' और उसके नीचे बैठा दसरु भी इसी सिम्बॉलिज्म का हिस्सा है. पूरी फिल्म में दसरु की पीठ पर जोरम नीले कपड़े से बंधी रहती है. ये कपड़ा उसी प्रतिकात्मकता का एक सिरा है. जब दसरु झारखंड लौटता है तो चीत्कार के भाव में जोरम से कहता है, "यहां कभी बड़े-बड़े हुआ करते थे. एक नदी बहती थी, मिला दिया होगा इन लोगों ने डैम में. अब देखो यहां क्या लगा हुआ है." वहां बिजली के विशालकाय खंभे लगे हैं.
एक्टिंग:
दसरु के किरदार में मनोज बाजपेयी का अभिनय अद्भुत है. उनके चेहरे पर बेचैनी, डर और अपनी बच्ची को बचाने के लिए हर किसी से लड़ जाने की हिम्मत एक साथ दिखती है. फिल्म के पहले सीन में अपनी पत्नी के साथ गाना गाते हुए उनके चेहरे पर जो सुकून दिखता है बाद में वो उसी दर्जे की बेचैनी बन जाती है. फूलो कर्मा के किरदार में स्मिता तांबे ने अलग ही छाप छोड़ी है. बहुत ज्यादा वो पर्दे पर दिखी नहीं हैं लेकिन जितनी देर भी रहती हैं नज़र उनसे हटती नहीं.

आखिर के सीन में जब दसरु और फूलो के बीच संवाद होता है तब स्मिता की चुप्पी मनोज बाजपेयी की कहन पर हावी दिखती है. ज़ीशान अय्यूब हमेशा की तरह इस फिल्म में भी पानी की तरह किरदार की धारा में बहते नज़र आए. सैमसन, मंजू, कॉन्स्टेबल साठे जैसे किरदार 2-4 सीन के लिए सामने आते हैं लेकिन गहरा असर छोड़ते हैं.
सोशल मीडिया से लेकर आम बातचीत तक में दर्शकों की शिकायत रहती है कि एक सेट टेम्पलेट से हटकर फिल्में नहीं बनतीं. फिल्म बनाने वाले लोगों की शिकायत रहती है कि ऐसी छोटी बजट की लेकिन 'आर्ट सिनेमा' को लोग सिनेमा हॉल में देखते नहीं हैं. जोरम उसी तहखाने से निकली है. ये फिल्म पर्दे पर उतरी भी अच्छी है. दर्शकों को अपनी शिकायतें दूर कर लेनी चाहिए ऐसे मौकों पर. इससे फिल्मकार की शिकायत भी दूर होती दिखने लगेगी.