
10 जून 2025 को, 168 साल बाद, आज वीरता और देशभक्ति का वो अनसुना किस्सा आपको सुनाते हैं जो 1857 की बगावत के बेशुमार किस्सों के बीच कहीं खो गया था. यह कहानी है एक गांव महुआ डाबर की, जो इतिहास के पन्नों में ठीक वैसे ही दर्ज नहीं हुआ जैसे होना चाहिए था.
साल 1857 की गर्मियां. अंग्रेजों के खिलाफ देश भर में फैले सशस्त्र विद्रोह की वजह से हवा में बारूद की गंध थी, और हर तरफ आजादी की चिंगारी सुलग रही थी. मेरठ से शुरू हुई आजादी की ये आग अब पूरे हिंदुस्तान को अपनी लपेट में ले चुकी थी. गोरखपुर, फैजाबाद, और बस्ती के जंगलों, गलियों, और नदियों के किनारे एक नई जंग की शुरुआत हो चुकी थी.
इसी आग में एक छोटा सा कस्बा, महुआ डाबर ने अपनी वीरता की अमर गाथा लिखी जिसके मुख्य किरदार थे गुलाब खां, अमीर खां, पिरई खां, वज़ीर खां, जाफ़र अली और उनके साथी.
महुआ डाबर, एक खुशहाल कस्बे की कहानी
उत्तर प्रदेश में बस्ती जिले के बहादुरपुर विकासखंड में मनोरमा नदी के तट पर बसा महुआ डाबर उस समय एक खुशहाल और हलचल भरा कस्बा था. यहां की गलियां कारीगरों की मेहनत से गूंजती थीं. यहां के सुनहरे और छींट वाले कपड़े दूर-दूर तक, यहां तक कि दुनिया भर में मशहूर थे. बाजारों में मसाले, तंबाकू, कपास, और तांबे-पीतल के बर्तनों की खरीद-फरोख्त होती थी. महुआ डाबर की हवा यहां के लोगों की मेहनत और एकता की खुशबू थी. लेकिन 1857 के जून महीने की उस गर्मी में ये ख़ुशबू जल्द ही बारूद की गंध में बदलने वाली थी.
उधर, गोरखपुर और फैजाबाद में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की लपटें तेज हो चुकी थीं. 5 जून को आजमगढ़ में 17वीं नेटिव इनफेंट्री के सिपाहियों ने बगावत कर दी. 6 जून को सिपाहियों ने अपने अंग्रेज अधिकारियों के आदेश ठुकरा दिए. 7 जून को कैदियों ने जेल तोड़ने की कोशिश की, जिसमें 20 लोग मारे गए. 8 जून को गोरखपुर में सिपाहियों ने अंग्रेजों की सरकारी ट्रेजरी लूटने की कोशिश की, और फैजाबाद छावनी पर विद्रोहियों का कब्जा हो गया. अंग्रेज अधिकारी अपनी जान बचाने के लिए भाग रहे थे.
फैजाबाद से बचाकर निकाले गए अंग्रेज अधिकारियों को दानापुर (पटना) जाने का आदेश मिला. उन्हें चार नावें और यात्रा खर्च दे दिया गया. लेकिन घाघरा नदी के किनारे भारतीय सिपाहियों की लगातार फायरिंग ने उनका रास्ता रोक दिया. डर के मारे उन्होंने जंगल और पगडंडियों का रास्ता चुना. 10 जून की रात, चांद की मद्धम रोशनी में छह अंग्रेज- लेफ्टिनेंट इंग्लिश, लेफ्टिनेंट लिंडसे, लेफ्टिनेंट थॉमस, लेफ्टिनेंट कॉटली, एन्साइन रिची, और सार्जेंट एडवर्ड- एक जमींदार की मदद से अमोढ़ा की ओर बढ़े. उनकी मंजिल थी महुआ डाबर. लेकिन उन्हें क्या पता था कि यह कस्बा उनकी आखिरी मंजिल बनने वाला है.
10 जून 1857 – जांबाज़ी की वो रात
महुआ डाबर के लोग साधारण थे, लेकिन उनके दिल में आजादी की आग धधक रही थी. गुलाब खां, अमीर खां, पिरई खां, वज़ीर खां, और जाफ़र अली जैसे नौजवानों ने अपने गांव वालों के साथ मिलकर एक योजना बनाई. उन्हें खबर मिल चुकी थी कि अंग्रेज भागकर उनके कस्बे की ओर आ रहे हैं. मनोरमा नदी के किनारे, जहां दिन में बच्चे खेलते थे और औरतें पानी भरती थीं, वहां उस रात हथियारों की चमक दिख रही थी.
रात गहरा रही थी. चांद की रोशनी में नदी का पानी चमक रहा था. तभी अंग्रेजों की नावें दिखाई दीं. गुलाब खां ने अपने साथियों को इशारा किया. एकाएक, महुआ डाबर, अमिलहा, मुहम्मदपुर, और नकहा के वीरों ने नदी के किनारे से हमला बोल दिया. तलवारें चमकीं, भाले चले, और गोलियां चलने की आवाज़ से रात की खामोशी टूट गई. अंग्रेजों ने जवाबी हमला करने की कोशिश की, लेकिन वो अचानक हुए इस हमले के लिए तैयार नहीं थे. एक-एक करके छह अंग्रेज- लेफ्टिनेंट इंग्लिश, लिंडसे, थॉमस, कॉटली, रिची, और सार्जेंट एडवर्ड मारे गए.
केवल सार्जेंट बुशर किसी तरह बच निकला, लेकिन उसे बाद में कलवारी के जमींदार बाबू बल्ली सिंह ने बंधक बना लिया.
यह रात महुआ डाबर के लिए गर्व की रात थी. एक छोटे से कस्बे ने फिरंगियों को दिखा दिया कि हिंदुस्तान की मिट्टी में कितना दम है. लेकिन यह जीत आसान नहीं थी. इस जीत की कीमत महुआ डाबर को अपनी सारी खुशहाली देकर चुकानी पड़ी.

फिर आया ब्रिटिश हुकूमत का खौफनाक जवाब
महुआ डाबर की इस हिम्मत से अंग्रेज बुरी तरह बौखला गए. ध्यान देने लायक बात ये है कि आज़ादी के लिए चल रहे सबसे बड़े सशस्त्र विद्रोह में अंग्रेजी सेना झोंक दी गई थी, लेकिन इस हार का बदला अंग्रेजों ने तुरंत लेने का फैसला किया. John William Kaye की किताब "A History Of The Sepoy War In India 1857-1858" का तीसरा वॉल्यूम जो 1876 में छपा, उसमें महुआ डाबर गांव के बारे में लिखा है कि यह मुसलमानों का संपन्न गांव था जहां ज्यादातर लोग दूर इलाकों से व्यापार करते थे.
साल 1999 से महुआ डाबर में निजी संग्राहलय चला रहे डॉक्टर शाह आलम राना ने गुमनाम क्रांतिकारियों पर बेहद शानदार काम किया है. डॉ. राना ने इस गांव और ऐसे ही अनगिनत अनाम क्रांति स्थलों को क्रांति के इतिहास में पहचान दिलाने के लिए करीब 26 साल काम किया है. डॉ. राना महुआ डाबर में हुई इस लड़ाई की तफ्सील अंग्रेजों के ही तैयार किए गए गजेटियर के हवाले से बताते हुए कहते हैं, "20 जून 1857 को बस्ती में मार्शल लॉ लागू कर दिया गया. गोरखपुर के कलेक्टर पेपे विलियम्स को सख्त आदेश मिला- महुआ डाबर को इस तरह तबाह कर दो कि भविष्य में कोई भी अंग्रेजों के खिलाफ सिर न उठा सके. 3 जुलाई 1857 की सुबह, 12वीं अश्वारोही बटालियन के साथ पेपे ने 5,000 की आबादी वाले इस कस्बे को चारों ओर से घेर लिया और कस्बे को आग लगा दी."
घर जल रहे थे, लोग चीख रहे थे. अंग्रेज सैनिकों ने निर्दयता की सारी हदें पार कर दीं. भागने वालों को गोली मार दी गई, बौखलाए अंग्रेज सिपाहियों ने उनके शवों को टुकड़े-टुकड़े कर फेंक दिया. बची-खुची संपत्ति की नीलामी कर दी गई और रकम को राजकोष में डाल दिया गया. अध्यापन के पेशे से जुड़े डॉ. शालीन सिंह एस.एस कॉलेज, शाहजहांपुर में अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष हैं, लेकिन अध्यापन के साथ-साथ गुमनाम क्रांतिकारियों पर भी लगातार काम करते रहे हैं. अंग्रेज इस गांव से बदले की किस हद तक गए, इसके बारे में बताते हुए डॉ. शालीन कहते हैं, “अंग्रेजों ने महुआ डाबर को 'ग़ैर-चिरागी' घोषित कर दिया, मतलब एक ऐसी जगह, जहां दोबारा कोई बस्ती न बस सके. और इससे भी आगे बढ़कर इसी तहसील में महुआ डाबर नाम का दूसरा गांव बसा दिया. इस गांव को नक़्शे से मिटा देने की हर मुमकिन कोशिश अंग्रेजों ने की. लेकिन इन्हीं अंग्रेजों में से कुछ इतिहासकारों ने इस घटना का जिक्र अपनी किताबों में किया जिससे महुआ डाबर यहां की वीरगाथा गुमनाम ना रह पाई.”
डॉक्टर शालीन बताते हैं कि “The History Of The Indian Mutiny" जिसे Charles Ball ने कई वॉल्यूम में लिखा, इसके 1860 में छपे पहले वॉल्यूम के पेज नंबर 398 पर महुआ डाबर में घटी घटनाओं के विवरण मिलते हैं. इसके अलावा भी कई अंग्रेज इतिहासकार महुआ डाबर को इतिहास में दर्ज कर चुके हैं”
इस किताब में जिक्र आता है कि अंग्रेजों ने गुलाम खां, गुलजार खां, निहाल खां, और घीसा खां को 18 फरवरी 1858 को सबके सामने फांसी पर लटका दिया. जाफ़र अली, जो 12 साल तक अंग्रेजों से बचते रहे, आखिरकार टांडा घाट पर पकड़े गए और बस्ती में फांसी पर चढ़ा दिए गए. हालांकि महुआ डाबर को इतिहास में ज़रूरी जगह ना मिलने की वजहों पर बात करते हुए डॉ. शालीन की हताशा साफ झलकती है. यह एक बुद्धिजीवी की हताशा तो लगती ही है, बल्कि एक शोधपरक जिज्ञासु की हताशा भी मालूम पड़ती है, जो इस बात से अधिक निराश है कि 1857 जैसे वैश्विक महत्त्व के समय को इतिहास में शोषकों की तरफ से दर्ज किया गया, ना कि शोषितों की तरफ से.

प्रतिशोध की आग: क्रांतिकारियों का जवाब
लेकिन शोषित होते हुए भी महुआ डाबर के लोगों ने हार नहीं मानी. उनकी रगों में आजादी की ज्वाला अभी बुझी नहीं थी. 21 मई 1858 को, क्रांतिकारियों ने पेपे विलियम्स पर हमला बोल दिया. इस भीषण लड़ाई में 17 लोग मारे गए, और पेपे को अपने दो यूरोपीय साथियों के साथ भागना पड़ा. बाद में, बर्डपुर हाउस और वहां के कारखाने को आग के हवाले कर दिया गया. 12 जून 1859 को एक और हमले में पेपे बुरी तरह घायल हो गया. उसकी एक अंगुली हमेशा के लिए कट गई. ये प्रतिशोध उस क्रूर दमन का जवाब था, जिसने महुआ डाबर को मिट्टी में मिला दिया था.
इतिहास के पन्नों में छुपी सच्चाई
डॉक्टर शाह आलम राना बताते हैं, “6 अक्टूबर 1860 को प्रकाशित 'महुआ डाबर प्रोसीडिंग' में इस घटना का ब्यौरा दर्ज है, लेकिन ये दस्तावेज सवालों से भरे हैं. अभियुक्तों के नाम और हथियारों की सूची, जो पहले दर्ज की गई थी, बाद में गायब हो गई. थाना डायरी में भी कई खामियां हैं. सार्जेंट बुशर और अन्य गवाहों ने मुख्य आरोपी मेहरबान खां और जासूस बदलू खां पर इल्ज़ाम लगाया. बदलू खां ने कहा कि योजना मेहरबान खां ने बनाई थी, लेकिन वो नरसंहार में शामिल नहीं था. मेहरबान खां को फांसी और दो अन्य कर्मचारियों को कालापानी की सजा दी गई. लेकिन ब्रिटिश दस्तावेजों में पक्षपात साफ दिखता है. शायद सच्चाई को दबाने की कोशिश की गई थी.”

महुआ डाबर आज के आईने में
15 जून 2011 से यहां पुरातात्विक खुदाई शुरू हुई, जिसमें कई साक्ष्य सामने आए. डॉ. राना के प्रयासों से उत्तर प्रदेश पर्यटन नीति 2022 के 'स्वतंत्रता संग्राम सर्किट' में महुआ डाबर को शामिल किया गया. 168 साल बाद आज जब महुआ डाबर के शहीदों को याद करने में सरकार की भागीदारी दिख रही है, ये वाक़ई राहत की बात लगती है.
स्थानीय लोगों का मनोबल इस बात से बढ़ता है कि उत्तर प्रदेश पुलिस के सलामी गार्ड्स बाक़ायदा आकर शहीदी स्थल पर सलामी देते हैं. लेकिन यह जगह आज भी एक राष्ट्रीय स्मारक बनाए जाने की मान्यता का इंतज़ार कर रही है.