scorecardresearch

साहित्य अकादेमी पुरस्कार : महेंद्र मलंगिया ने कैसे तोड़ा मैथिली का कुलीन तानाबाना?

इस साल मैथिली का साहित्य अकादेमी पुरस्कार पाने वाले महेंद्र मलंगिया के भाषाई प्रयोग से न सिर्फ भारत बल्कि नेपाल का रंगमंच भी गुलज़ार होता रहा है

महेंद्र मलंगिया
अपडेटेड 21 दिसंबर , 2024

"बहुत दिनों बाद किसी ऐसे रचनाकार को मैथिली का साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला है, जिससे मिथिला का जन-जन खुश है." दिल्ली में मैथिली नाटकों के प्रदर्शन के लिए बनी संस्था मैलोरंग के निर्देशक प्रकाश झा जब यह कहते हैं तो उनका दायरा सिर्फ बिहार के मिथिला का इलाका नहीं होता या वे लोग नहीं होते जो रहने वाले उस मिथिला के हैं और किसी अन्य जगह में रह रहे हैं.

यह दायरा नेपाल के तराई इलाके में फैले मिथिला के इलाके को भी अपने आप में शामिल कर लेता है. दरअसल इस बार मैथिली भाषा का साहित्य अकादेमी पुरस्कार जिस नाटककार महेंद्र मलंगिया को मिला है, उनकी ख्याति बिहार के मिथिला से अधिक नेपाल के मिथिला  इलाके में है. नेपाल उन्हें कला और संस्कृति के क्षेत्र में दिये जाने वाले सर्वोच्च पुरस्कार जैसे विद्यापति पुरस्कार और संगीत नाटक अकादेमी पुरस्कार पहले दे चुका है.

नेपाल के संगीत नाटक प्रज्ञा प्रतिष्ठान के पूर्व प्रमुख, वहां के चर्चित नाटककार और अभिनेता रमेश रंजन कहते हैं, "नेपाल में नाटककार महेंद्र मलंगिया की वही ख्याति है, जो आपके यहां बादल सरकार और गिरीश कर्नाड जैसे नाटककारों की है. भारत ने अब उन्हें साहित्य अकादेमी पुरस्कार दिया है, मलंगिया जी को नेपाल में इस क्षेत्र के तमाम प्रतिष्ठित पुरस्कार पहले ही मिल चुके हैं. वह भी तब जबकि वे भारत के नागरिक हैं, नेपाल के नहीं. यहां उनकी काफी प्रतिष्ठा है. दिलचस्प बात तो यह है कि वे नेपाल के नागरिक नहीं हैं, यह बात नेपाल में मधेशियों को छोड़कर शायद ही किसी को पता हो."

हालांकि भारत और नेपाल दोनों देशों में प्रतिष्ठित नाटककार महेंद्र मलंगिया को मैथिली भाषा का साहित्य अकादेमी पुरस्कार उनकी किसी नाट्य रचना के लिए नहीं बल्कि शोध निबंधों की पुस्तक 'प्रबंध संग्रह' के लिए मिला है, जिसमें मिथिला की लोक रचनाओं पर शोधपरक निबंध शामिल हैं.  हालांकि उनके चाहने वाले मानते हैं कि उन्हें उनके किसी नाटक के लिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिलना चाहिए था क्योंकि उनकी मूल पहचान एक नाटककार के तौर पर है. 

मिथिला के संस्कृतिकर्मी किसलय कृष्ण कहते हैं, "यह सच है कि मलंगिया जी की पहचान ‘ओकरा अंगना के बारहमासा’, ‘काठ के लोग’ और ‘ओरिजनल काम’ जैसे नाटकों की वजह से है. मगर तब के निर्णायकों ने उन्हें यह अवॉर्ड नहीं दिया, आज जब उन्हें अकादेमी पुरस्कार दिये जाने की बात उठी होगी तो शायद वे किताबें इस दायरे में नहीं आई होंगी, क्योंकि साहित्य अकादेमी पुरस्कार पिछले पांच वर्षों में लिखित पुस्तक के लिए ही मिलता है. इसलिए इस पुस्तक को अवॉर्ड मिला होगा."

महेंद्र मलंगिया

महेंद्र मलंगिया ने 1970 से ही मैथिली नाट्य लेखन की शुरुआत कर दी थी. उनका पहला नाटक ‘लक्ष्मण रेखा खंडित’ 1970 में छपा था. ‘औकरा अंगना के बारहमासा’ 1980 में, ‘काठक लोक’ 1981 में छपा, ‘ओरिजनल काम’ 2000 ईस्वी में. उनके द्वारा रचित आखिरी नाटक ‘छुतहा घैल’ 2010 में छपा. उन्होंने 2015 से शोध ग्रंथों के लेखन का काम शुरू कर दिया था. जिस प्रबंध संग्रह को साहित्य अकादमी अवॉर्ड मिला वह 2019 में छपा है.

उन्हें उनके नाटकों के लिए अवॉर्ड क्यों नहीं मिला, निबंध संग्रह के लिए क्यों मिला? पहले क्यों नहीं मिला, अब क्यों मिला? इस सवालों को मलंगिया हंसते हुए टाल जाते हैं और कहते हैं, "आपलोग सब समझते ही हैं. वैसे मेरे लिए जितना प्रिय नाटक लेखन था, उतना ही प्रिय शोध निबंध लेखन भी है. इसलिए इस किताब के लिए अव\र्ड मिलना भी मुझे आनंदित और उर्जावान कर रहा है."

बिहार के मधुबनी जिले के मलंगिया गांव में 20 जनवरी, 1946 को जन्मे इस लेखक का नाम पहले महेंद्र झा था, मगर अपने गांव के नाम से स्नेह की वजह से उन्होंने अपने नाम के पीछे टाइटल मलंगिया रख लिया. उन्होंने भूगोल विषय की पढ़ाई की और शिक्षक की नौकरी पाने के लिए पड़ोसी देश नेपाल चले गये. वहां जनकपुर के बभनगामा गांव में कंटीर झा माध्यमिक विद्यालय में उन्हें शिक्षक की नौकरी मिली और फिर रिटायर होने तक वे वहीं रहे.

नेपाल से उनके जुड़ाव की यही वजह रही. वहीं उन्होंने नाटक लेखक और रंगकर्म की शुरुआत की. मैथिली नाट्यकला परिषद नामक एक रंग समूह की स्थापना की, जिसके अब 50 साल पूरे होने वाले हैं. इस संस्था में उन्होंने नाट्य लेखन, मंचन, अभिनय, निर्देशन सब किया. नाटक की हर विधा में हाथ आजमाया. आज इस संस्था से जुड़कर नाटक करने वाले कई लोग नेपाल के सांस्कृतिक जीवन की धुरी बने हुए हैं. रमेश रंजन भी इन्हीं में से एक हैं, जो महेंद्र मलंगिया के स्कूल के छात्र भी थे और उनकी नाट्य संस्था के सदस्य भी.

मलंगिया के नाट्यलेखन की एक बड़ी खासियत यह रही कि वे नाटकों को लिखते वक्त रंगकर्म की खूबियों और खामियों को समझते हुए लेखन करते थे. प्रकाश झा कहते हैं, "वे पहले नाटक लिखते, फिर उसका कई बार मंचन करते. और मंचन के अनुभवों से गुजरकर जब नाटक घिस जाता, दोषरहित हो जाता. फिर उसे वे प्रकाशन के लिए भेजते. इस तरह उनके नाटकों को मंचित करने में कभी किसी दूसरे निर्देशक को कोई दिक्कत नहीं हुई."

मगर नाटकों के जरिये उन्होंने मैथिली साहित्य को जो सबसे अनमोल चीज दी, वह थी भाषाई विविधता. मैथिली भाषा की हमेशा से इस बात को लेकर आलोचना रही है कि वह दो जाति ब्राह्मण और कायस्थ और दो जिले दरभंगा और मधुबनी की भाषा है. इसकी वजह यह थी कि इस भाषा पर सवर्ण जातियों के दबदबे के कारण भाषा में पांडित्य का अधिक बोलबाला था और मिथिला के आम लोग जो अलग-अलग जातियों से जुड़े थे, उनकी भाषा को यह समाज खारिज करता था और भ्रष्ट मानता था. इस वजह से मिथिला की दूसरी जातियों और जिलों की दूरी इस भाषा से बढ़ने लगी थी.

अपने गांव के खेत में महेंद्र मलंगिया

हालांकि मलंगिया खुद मधुबनी जिले से थे और ब्राह्मण जाति से संबंधित थे, मगर उन्होंने अपने नाटकों में भाषाई मानक और पांडित्य को तोड़ा. मिथिला के अलग-अलग इलाके, अलग-अलग जाति और धर्म के लोगों की बोलियों को संवाद में जगह दी. प्रकाश कहते हैं, "अगर उनके नाम में 11 पात्र होते तो वे 11 तरह से मैथिली बोलते. मुसलमान की मैथिली अलग होती, पिछड़ी और दलित जातियों की मैथिली अलग और यहां तक कि घर की महिलाओं की मैथिली भी घर के पुरुषों की मैथिली से अलग होती. यहां तक कि साधुओं की सधुक्कड़ी भाषा को भी उन्होंने नाटकों में जगह दी. उन्होंने हर जाति और वर्ग द्वारा बोली जाने वाली भाषा की टोन को पकड़ा और उसे उसी रूप में नाटकों में उतारा. इसलिए उनके नाटकों का भाषा शास्त्रीय महत्व भी है."

मगर यह महत्व सिर्फ भाषा शास्त्रीय नहीं रहा. इसने मिथिला के सभी वर्गों को उनके नाटकों से जोड़ा. उनके नाटकों में मिथिला के हर वर्ग के लोगों की भीड़ उमड़ने लगी. किसलय कृष्ण कहते हैं, "आज जब शहरी रंगमंच शहरों तक ही सीमित है, वहां भी दर्शकों का टोटा है, ग्रामीण रंगमंच तो दम तोड़ ही चुका है, ऐसे में उनके नाटकों में आज भी सैकड़ों-हजारों की भीड़ इसी वजह से जुटती है. गांव में भी और शहर में भी."

ऐसा ही एक अनुभव सुनाते हुए महेंद्र मलंगिया खुद कहते हैं, "एक बार जब मैं नेपाल में नाटक कर रहा था तो दर्शकों में मौजूद एक साहूजी (ग्रामीण दुकानदारों की जाति से जुड़े व्यक्ति) ने कहा कि अगर इस नाटक में जो बोली बोली जा रही है, वह मैथिली है तो मैं गर्व से कहता हूं, मैं मैथिली भाषी हूं."

मगर यह सब करना मलंगिया जी के लिए इतना आसान नहीं था. मैथिली के आचार्यों ने इसका खूब विरोध किया. रमेश रंजन कहते हैं, "नेपाल में तो नहीं मगर भारत के मैथिली के अभिजात्य वर्ग ने 'ओकरा आंगनक बारहमासा' की यह कह कर आलोचना की कि यह तो दुसाधक आंगनक बारहमासा है. यानि दुसाध जाति की कहानी. अब क्या नाटकों में यह सब भी लिखा जायेगा?" मगर महेंद्र मलंगिया ने इन आलोचनाओं की परवाह नहीं की, लगातार लिखते रहे. क्योंकि उन्हें दर्शकों से समर्थन मिल रहा था.

रमेश रंजन कहते हैं, "उन्होंने मैथिली में सिर्फ सर्वहारा की भाषा को जगह नहीं दी, बल्कि उनके सवालों को भी उठाया. 'ओकरा आंगनक बारहमासा' नाटक में एक अत्यंत दरिद्र मजदूर परिवार की दारुण कथा है, कहानी का सार यह है कि गरीबों के घर में बारहों महीने एक जैसे होते हैं, दुख से भरे. किसी महीने में सुख नहीं आता. 'ओरिजनल काम' नाटक में भी निम्न वर्ग के परिवार के पीढ़ियों का द्वंद्व है."

उनके नाटकों का मंचन जितना नेपाल में हुआ, उतना ही भारत में भी. पटना में भंगिमा नाट्य समूह से जुड़े निर्देशक कुणाल कहते हैं, "यह मेरा सौभाग्य है कि मैंने उनके दो चर्चित नाटकों ओकरा आंगनक बारहमासा और काठक लोक दोनों का मंचन शुरुआती दौर में ही किया. औकरा आंगनक बारहमासा का मंचन सबसे पहले 1975 में चेतना समिति ने किया था. उसके बाद उसका मंचन नहीं होता था, फिर हम लोगों ने 1984 में उसका मंचन किया और उसके बाद लगातार उसका मंचन होने लगा. काठक लोक का मंचन सबसे पहले हमारे समूह ने ही 1985 में किया. मलंगिया जी भी यह कहते हैं कि कुणाल ने उस नाटक का बेहतरीन मंचन किया है."

काठक लोक कुणाल के प्रिय नाटकों में से है. वे कहते हैं, "यह नाटक आज भी प्रासंगिक है. यह एक लोककथा का मर्म लेकर रची गई कहानी है. जिसमें एक साधू एक चोर को बार-बार चोरी करने जाने से पहले टोक देता है, ताकि उसकी चोरी विफल हो जाये. इसके लिए चोर उसकी पिटाई भी करता है, मगर साधू टोकने से बाज नहीं आता. एक तरह से वह साधू कम सोशल एक्टिविस्ट अधिक है."

महेंद्र मलंगिया के नाटकों की आलोचना संवाद में गालियों को जगह देने की वजह से भी हुई है. खासकर ओरिजनल काम नाटक में गालियों का भरपूर प्रयोग है. किसलय कहते हैं, नाटक से पहले सूत्रधार आकर कहता है, "शब्द अश्लील नहीं होते, मानसिकता अश्लील होती है." कुणाल कहते हैं, "नाटक में गालियों का इस्तेमाल किसी को नीचा दिखाने या अपमानित करने के लिए नहीं बल्कि इसलिए है कि नाटक के पात्रों की भाषा में ही गालियां हैं. मैं उन गालियों को स्लैंग मानता हूं, वे निर्दोष अभिव्यक्ति हैं." महेंद्र मलंगिया खुद कहते हैं, "इस नाटक में मेरा एक पात्र कहता है, अरे मैं तुमको गाली थोड़े ही दे रहा हूं. यह तो मेरे मुंह से अपने आप निकल जाता है."

नेपाल के पहले राष्ट्रपति रामवरण यादव के साथ महेंद्र मलंगिया

कुणाल कहते हैं, "मलंगिया जी मैथिली में एक ताजा बयार की तरह आये. उन्होंने मैथिली भाषा के आभिजात्य के ताने-बाने को चुनौती दी. अपने नाटकों में आम लोगों की भाषा और उनके मुद्दों को जगह दी. यही उनकी खासियत है."

नाटकों के अलावा महेंद्र मलंगिया ने एकांकी और रेडियो नाटक भी खूब लिखे. वे भी काफी चर्चित हुए. उनके नाटकों को पाठ्यक्रमों में भी जगह मिली. उनके रंगकर्म की प्रतिष्ठा दिल्ली तक भी पहुंची. प्रकाश झा कहते हैं, "वे दिल्ली आते हैं तो एनएसडी से उन्हें बुलावा आने लगता है. यहां की प्रो. त्रिपुरारी शर्मा उनकी अच्छी मित्र थीं, उन्होंने सीता पर नाटक लिखा तो रिसर्च के लिए वे जनकपुर तक गईं, उन्हें इसमें मलंगिया जी से काफी मदद मिलीं. जब भी वे दिल्ली आते तो त्रिपुरारी शर्मा उनसे मिलतीं. देवेंद्रराज अंकुर और रामगोपाल बजाज से उनके आत्मीय संबंध रहे. मेरी संस्था मैलोरंग जो 2006 में बनी, उनके वे शुरुआत से आज तक अध्यक्ष हैं. वे हमारे समूह में हमेशा आकर नाटक देखते हैं."

मगर रिटायरमेंट के बाद महेंद्र नेपाल से लौटे तो अपने गांव मलंगिया में रहने लगे हैं. वे अब पूरा समय शोध में लगा रहे हैं. कभी कभार अपने बेटे के यहां दिल्ली भी चले जाते हैं. उन्होंने 14वीं सदी में लिखी मैथिली की गद्य रचना वर्ण रत्नाकर को अपने शोध का विषय बनाया है और इस पर वे दो खंड में शोध पुस्तकें लिख चुके हैं. जिनका नाम है 'शब्दक जंगल में अर्थक खोज'. फिलहाल वे इसका तीसरा खंड पूरा करने की तैयारी में हैं. इसके बाद फिर से उनका इरादा एक नया नाटक लिखने का है.

Advertisement
Advertisement