
फील्डमार्शल सैम मानिकशॉ की कहानी कहने वाली फिल्म ‘सैम बहादुर’ आज यानी एक दिसंबर को ही रिलीज हुई है. इस फिल्म में एक सीन है, जिसमें सैम अपनी टुकड़ी के जवानों से कहते हैं- “मेरे ऑर्डर के बगैर अपनी पोजिशन से कोई हटेगा नहीं और ये ऑर्डर में दूंगा नहीं.” लेकिन 1962 में जब भारत-चीन युद्ध हो रहा था तो एक मेजर को अपनी पोजिशन से हट जाने का विकल्प मिला था. लेकिन वो ये कहकर नहीं हटा कि अपने सैनिकों को क्या मुंह दिखाएगा.
ये एक और बहादुर शैतान सिंह की कहानी है. 13 कुमाऊं बटालियन की चार्ली कंपनी के मेजर शैतान सिंह. राजस्थान के फलोदी जिले के बंसार गांव में उनका जन्म हुआ था. पिता हेम सिंह भी सेना में थे. लेफ्टिनेंट कर्नल हेम सिंह प्रथम विश्व युद्ध के दौरान फ्रांस में भारतीय सेना की टुकड़ी में शामिल थे. बाद में ब्रिटिश सरकार ने हेम सिंह को ऑर्डर ऑफ द ब्रिटिश एम्पायर से सम्मानित भी किया था.
पिता सेना में जरूर थे लेकिन शैतान सिंह की दिलचस्पी वकालत करने में थी. फुटबॉल खेलना भी उन्हें पसंद था. फुटबॉल सिर्फ शौकिया नहीं खेलते थे बल्कि माहिर खिलाड़ी थे. शैतान सिंह वकालत की तैयारी कर रहे थे लेकिन एक दिन भेंट हो गई कर्नल मोहन सिंह से. कर्नल मोहन ने हेम सिंह के अंडर में अपनी सेवा शुरू की थी. कर्नल मोहन ने शैतान सिंह को भी सेना ज्वाइन करने के लिए कहा. तर्क दिया कि तुम्हारे पिता एक बहादुर जवान हैं तो तुम क्यों वकील बनना चाहते हो.
आजादी के 2 साल बाद वो सेना में शामिल हो गए. सैनिकों के हिस्से आने वाली लड़ाइयां उनके खाते में भी आईं. लेकिन एक लड़ाई 1962 में उनका इंतजार कर रही थी, जिसने मेजर शैतान को हीरो बना दिया. एक ऐसा हीरो जिसकी कहानी कम कही गई है.
आजादी के बाद से ही भारत और चीन के रिश्ते कभी ठीक नहीं रहे. रिश्तों को सुधारने के लिए ही ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ जैसे नारे बुने गए. ताकि दोस्ती कुछ पक्की हो. पंचशील समझौता भी हुआ. लेकिन चीन को इन सबसे ठंडक नहीं मिलनी थी. तल्खियां बढ़ीं और जंग छिड़ गई. 1962 में लड़ा भारत-चीन युद्ध, जिसमें भारत की हार हुई. हार का जिम्मेदार कौन? चीन के साथ रिश्तों में रणनीतिक चूक कैसे हुई? सैनिकों को पूरी तैयारी के साथ सीमा पर क्यों नहीं तैनात किया गया? सैनिकों के पास हथियार और अन्य सामान पर्याप्त और गुणवत्तापूर्ण क्यों नहीं थे? ये सवाल गूंजते रहे और इसी शोर में दब कर रह गईं कहानियां भारतीय सैनिकों के अदम्य साहस की.
उनके शव भी दब ही गए थे बर्फ तले जिन्होंने रेज़ांग-ला की लड़ाई लड़ी और करीब 5 हज़ार चीनी सैनिकों को आगे बढ़ने से रोका. वो तो भला हो एक लद्दाखी गड़ेरिए का जो चुशूल से रेज़ांग-ला पहुंच गया था. जहां उसने देखा कि 100 से ज्यादा सैनिकों का शव दबा पड़ा है. हाथ में बंदूकें हैं. शव निकाले गए और फिर कहानियां भी निकलने लगीं.

रेज़ांग-ला पर 13 कुमाऊं बटालियन की चार्ली कंपनी के 114 सैनिकों ने 5000 चीनी सैनिकों का सामना किया. इन्हीं 114 सैनिकों में से एक थे मेजर शैतान सिंह जो अपनी टुकड़ी का नेतृत्व कर रहे थे. चीनी सैनिकों के मुकाबले भारतीय जवानों के पास कमजोर हथियार थे. 1962 की लड़ाई भारत ज़रूर हार गया लेकिन रेज़ांग-ला पर चीनी सैनिकों को मेजर शैतान और उनके साथियों ने रोक दिया था.
इंडियन नेवी के लिए अपनी सेवाएं दे चुके लेखक कुलप्रीत यादव ने इस लड़ाई पर ‘द बैटल ऑफ रेज़ांग-ला’ नाम से एक किताब लिखी है. मेजर शैतान की कहानी पर जय समोता ने ‘मेजर शैतान सिंह, पीवीसी: द मैन इन हाफ लाइट’ लिखी है.
मेजर डीडी सकलानी ने अपने एक आर्टिकल में मेजर शैतान से बातचीत का किस्सा शेयर किया है. 17 नवंबर की शाम सकलानी और शैतान की फोन पर बातचीत हो रही थी. जिसमें उन्होंने सकलानी को बताया कि जोधपुर में उनके शहीद हो जाने की ख़बर फैल गई है. जोधपुर से किसी रिश्तेदार ने चार्ली कंपनी को इस बाबत चिट्ठी भेजी थी. इस बात पर दोनों ने खूब ठहाके लगाए. लेकिन शैतान सिंह को पता नहीं था कि ये झूठी ख़बर उनकी शहादत की पूर्व सूचना थी. अगली ही शाम (18 नवंबर) रेज़ांग-ला पर लड़ाई शुरू हुई और मेजर शैतान शहीद हो गए.
एक ठहाका ट्रेन में लगा था. ये उसी साल अप्रैल महीने की कहानी है. इस कहानी में भी डीडी सकलानी का किरदार मौजूद है. दोनों एक दोस्त की शादी के लिए ट्रेन में पठानकोट से अंबाला जा रहे थे. कोच में एक ज्योतिषी मिले. शैतान सिंह ने हाथ आगे कर दिया. ज्योतिषी ने कहा कि जल्द ही उनकी जिंदगी का सबसे बड़ा गौरव उनको मिलने वाला है. सकलानी और शैतान ने फिर ठहाके लगाए. इत्तेफाक की बात ये कि 6 महीने बाद मेजर शैतान सिंह शहीद हुए. 1963 में उन्हें मरणोपरान्त परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया.