
बिहार के मोकामा शहर में स्थित सीआरपीएफ कैंप के भीतर एक छोटा-सा बंगला है. इसके दरवाजे पर लिखा है- हेरिटेज साइट, जिम कॉर्बेट रेसिडेंस 1893-1913. किसी भी अनजान इंसान को यह जानकर हैरत हो सकती है कि मशहूर शिकारी और बाद के दिनों में प्रकृतिविद के रूप में विख्यात जिम कॉर्बेट ने अपने जीवन के 20 साल बिहार के इस कस्बानुमा शहर के बंगले में गुजारे थे.
हम हमेशा से यही जानते-समझते रहे हैं कि उनका कार्यक्षेत्र उत्तराखंड के नैनीताल और आसपास के इलाकों में रहा है, जहां 25 जुलाई, 1875 को उनकी पैदाइश हुई थी. मगर यह भी उतना ही सच है कि इस मशहूर शिकारी और प्रकृतिविद ने अपने जीवन के अनमोल 20 साल जो उनकी जवानी के साल थे, बिहार के मोकामा में गुजारे. साथ में यह भी सच है कि उन्होंने अपनी पहली नौकरी भी बिहार में की.
नैनीताल में पैदा हुए जिम कॉर्बेट का बचपन जंगलों में भटकते और शिकार करते हुए गुजरा था. पिता की असमय मृत्यु और बड़े परिवार के कारण जिम की स्कूली शिक्षा भी पूरी नहीं हो पाई थी कि उन्हें नौकरी करनी पड़ी. उन्होंने पहली नौकरी 17 साल की उम्र में रेलवे में फ्यूल इंस्पेक्टर के रूप में की. उस वक्त रेल इंजन को चलाने के लिए ईंधन के तौर पर लकड़ियों का इस्तेमाल होता था.
ऐसे में फ्यूल इंस्पेक्टर के तौर पर उनका काम जंगलों से लकड़ी कटवाना था. उनकी पहली पोस्टिंग भी बिहार के बख्तियारपुर में हुई, जो पटना जिले का हिस्सा है. लगभग 18 महीने की नौकरी के बाद वे हिसाब देने समस्तीपुर गए थे, वहां उनकी ईमानदारी को देखते हुए उनकी नौकरी और बढ़ा दी गई. कुछ दिनों तक वहां अलग-अलग काम कराने के बाद उन्हें मोकामा घाट रेलवे स्टेशन भेज दिया गया, जहां उनकी नई नौकरी ट्रांस शिपमेंट इंस्पेक्टर के रूप में हुई.

मोकामा घाट उन दिनों रेलवे का एक महत्वपूर्ण स्टेशन हुआ करता था. वहां रेलवे लाइन खत्म हो जाया करती थीं और यात्री उत्तर बिहार जाने के लिए स्टीमर से गंगा नदी को पार करते और सिमरिया घाट पहुंचते. यात्रियों के साथ-साथ भारी मात्रा में माल-असबाब भी नदी के रास्ते पार होता था. मगर मजदूरों की कमी के कारण वहां माल लंबे अरसे तक अटका रहता और खराब हो जाता. इससे रेलवे को भारी नुकसान होता.
अपनी किताब माय इंडिया में जिम कॉर्बेट लिखते हैं, “जब मैं वहां पहुंचा तो सैकड़ों मीटर लंबे रेलवे शेड में छत तक माल अटका पड़ा था. इसके बाहर मीटर और ब्रॉड गेज रेलवे के 400-400 वैगन भी सामान से भरे थे. इनमें लगभग 15 हजार टन माल था. गंगा के दूसरी तरफ वाले सिमरिया घाट स्टेशन पर भी माल लदे एक हजार वैगन खड़े थे. दोनों तरफ के माल को जहाज के जरिये, एक तरफ से दूसरी तरफ भेजना था. मगर न पर्याप्त मजदूर थे और न ही खाली वैगन. इसलिए माल की आवाजाही पिछड़े एक पखवाड़े से बंद थी.”
इस पूरे माल को क्लियर करने की कठिन जिम्मेदारी जिम कॉर्बेट के युवा कंधे पर डाली गई थी, मगर उन्होंने स्थानीय मजदूरों की मदद से इस कठिन काम को आसान बना दिया. इसके बाद वे मोकामा घाट में ट्रांसशिपमेंट इंस्पेक्टर की नौकरी में टिक गए और स्टेशन की आमदनी भी बढ़ने लगी.
नौकरी अपनी जगह मगर वहां रहते हुए जिम कॉर्बेट ने स्थानीय लोगों से, खास तौर पर दलित-वंचित समुदाय के लोगों से काफी करीबी रिश्ते बनाए और उन्हें आगे बढ़ाया. ऐसे कई किरदारों के किस्से वे अपनी किताब माय इंडिया में लिखते हैं. उनमें बुद्धू का परिवार था और चमारी और लालाजी जैसे किरदार थे. यहीं नौकरी करते हुए उनके रिश्ते नेपाल के महाराजा के परिवार से भी बने.

वहां रहते हुए उन्होंने अपने पैसों से रेलवे के कामगारों के बच्चों के लिए स्कूल की शुरुआत की, जिसमें पहले साल 20 बच्चों ने एडमिशन लिया. इसमें उनके सहयोगी रामशरण ने बड़ी मदद की. जब वे मोकामा घाट से जाने लगे तो उस स्कूल में बच्चों की संख्या 200 पहुंच गई थी. उसे मिडल स्कूल के रूप में सरकारी मान्यता मिल गई थी.
उस स्कूल का जिक्र करते हुए जिम कॉर्बेट वहां भी सवर्णों और दलितों के बच्चों में साथ बैठने की हिचकिचाहट का जिक्र करते हैं, मगर यह भी बताते हैं कि रामशरण की कोशिशों से धीरे-धीरे यह हिचक खत्म हो गई. स्थानीय लोग बताते हैं कि जिम कॉर्बेट के बंगले से सटा वह स्कूल 1982 में केंद्रीय विद्यालय में बदल गया है.
1914 में जब पहला विश्व युद्ध शुरू हुआ तो जिम कॉर्बेट का मन युद्ध में शामिल होने के लिए मचलने लगा. हालांकि तब उनकी उम्र 38-39 साल की हो गई थी, इसलिए सेना वाले उन्हें लेने में हिचक रहे थे. मगर राइफल चलाने की उनकी प्रतिभा की वजह से उनकी यह ख्वाहिश पूरी हो गई और वे हमेशा के लिए मोकामा घाट की रेलवे की नौकरी छोड़कर चले गए.
मोकामा में सीआरपीएफ के परिसर में आज भी उनका बंगला ठीक हालत में है, जहां इक्के-दुक्के सैलानी पहुंचते हैं. हालांकि यह बंगला सीआरपीएफ कैंपस में होने की वजह से उसे देखना मुश्किल काम होता है. अधिकारियों से इजाजत मिलने के बाद वहां का कोई जवान आगंतुक को वह बंगला दिखाता है. स्थानीय लोग चाहते हैं कि उस बंगले को एक म्यूजियम में या स्मारक में बदला जाए जहां कोई भी आसानी से आकर उसे देख सके. मगर अभी यह मुश्किल काम लगता है.
वहां से कुछ ही दूरी पर रेलवे का वह शेड भी है, जहां रेलवे का माल असबाब रखा रहता था. उसकी हालत भी जर्जर हो गई है. मगर जिन्हें जिम कॉर्बेट का यह किस्सा मालूम है, वे वहां जाकर उन दिनों की परिस्थितियों का अनुमान लगा सकते हैं, जब 18-19 साल का वह नौजवान इस शेड के भीतर हफ्ते से पड़े माल को क्लियर करने की जिम्मेदारी लेकर आया था और जहां मेहनत करते हुए उसने अपनी जवानी के दिन गुजारे.