IVF से जुड़ी भावनात्मक और क्लीनिकल जटिलताओं से जूझ रहे जोड़ों के लिए तो हर कदम उत्साह से भरा होता है. लेकिन स्वस्थ बच्चे के जन्म की संभावनाओं और अनिश्चितता को लेकर एक दुविधा भी लगातार घेरे रहती है. कुछ जोड़ों के मामले में IVF से आगे भी कुछ करने की जरूरत पड़ सकती है और यहीं पर व्यक्तिगत एंटी-रेट्रोवायरल थेरेपी (ART) अपनाने की जरूरत पड़ती है.
प्रीइम्प्लांटेशन जेनेटिक टेस्टिंग (PGT) इसी प्रक्रिया को स्पष्ट करने के सबसे शक्तिशाली तरीकों में से एक है. PGT उन विकल्पों में से एक है, जिसमें कुछ मामलों में यह IVF के साथ सफलता की अधिक संभावनाएं उत्पन्न करता है. आधुनिक फर्टिलिटी केयर में PGT के बढ़ते उपयोग के बावजूद इसे अक्सर गलत समझा जाता है.
कुछ लोग इसे सफलता की गारंटी मानते हैं तो कुछ को आशंका है कि ये ‘डिजाइनर बेबी’ की तरफ कदम बढ़ाने जैसा है. हालांकि, वास्तविकता कहीं अधिक गहरी और आश्वस्त करने वाली है. नई दिल्ली स्थित बिरला फर्टिलिटी एंड आईवीएफ में भ्रूणविज्ञान यानी Embryology डिपार्टमेंट की प्रमुख डॉ. वर्षा सैमसन रॉय बता रही हैं कि PGT से कैसे उम्मीद के मुताबिक नतीजे मिल सकते हैं :
PGT क्या है?
PGT IVF के दौरान इस्तेमाल की जाने वाली एक उन्नत आनुवंशिक जांच तकनीक है, जिसके जरिये डॉक्टर भ्रूण को गर्भाशय में इंप्लांट करने से पहले उसमें किसी तरह की आनुवांशिक या क्रोमोसोम संबंधी असामान्यताओं का पता लगा सकते हैं. यह परीक्षण उन भ्रूणों का चयन करने में मदद करता है जो आनुवांशिक रूप से सामान्य हैं और ये उनके इंप्लांट की संभावना को बढ़ाता है. इससे सफल प्रेगनेंसी की संभावना तो बढ़ती ही है, गर्भपात या वंशानुगत बीमारियों का खतरा कम हो जाता है. PGT के मुख्यत: तीन प्रकार का होता है:
PGT-A (Aneuploidy) : इससे पता चलता है कि भ्रूण में क्रोमोसोम की सही संख्या है या नहीं, जो आमतौर पर एक स्वस्थ मानव भ्रूण में 23 जोड़े होते हैं. प्रत्येक भ्रूण में क्रोमोसोम का एक सेट पिता से आता और दूसरा मां से. इन क्रोमोसोम की संख्या में किसी तरह का बदलाव, चाहे वो ज्यादा हो या कम हो जाए, असफल इंप्लांट, गर्भपात या डाउन सिंड्रोम जैसे आनुवांशिक विकारों का कारण बन सकता है. PGT-A उन जोड़ों के लिए विशेष तौर पर लाभकारी है जो बार-बार IVF नाकाम रहने, अधिक आयु होने या बिना किसी स्पष्ट कारण से गर्भपात होने जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं.
PGT- SR (structural rearrangement) का इस्तेमाल तब किया जाता है जब एक या दोनों पार्टनर में ट्रांसलोकेशन या फिर क्रम उल्टा होने जैसा क्रोमोसोम रिअरेंजमेंट होता है. इसकी पहचान कैरियोटाइपिंग नामक एक साधारण रक्त परीक्षण से की जा सकती है. क्रोमोसोम रिअरेंजमेंट की वजह से भ्रूण की व्यवहार्यता प्रभावित होती है और ये असफल गर्भधारण का कारण बन सकता है. इन मामलों में किसी एक पार्टनर या दोनों की कैरियोटाइप रिपोर्ट असामान्य हो सकती है, यही बांझपन या बार-बार गर्भपात का कारण हो सकता है.
PGT-M (Monogenic Disorders)) में आनुवांशिक रूप से विरासत में मिली बीमारियों से ग्रसित दंपतियों में थैलेसीमिया, सिस्टिक फाइब्रोसिस या हंटिंगटन रोग जैसे एकल-जीन विकारों की जांच की जाती है. ऐसे रोग पैदा करने वाला जीन बार-बार म्यूटेशन के साथ एक से दूसरी पीढ़ी को अपना शिकार बनाते रहते हैं. PGT-M के माध्यम से इन म्यूटेशन से मुक्त भ्रूणों की पहचान की जाती है और उन्हें ट्रांसफर किया जाता है, जिससे एक स्वस्थ बच्चे के जन्म की संभावनाएं बढ़ जाती है और कुछ मामलों में भावी पीढ़ियों में संक्रमण को भी रोका जा सकता है.
यहां ये समझना जरूरी है कि PGT भ्रूणों की आनुवंशिक संरचना में कोई बदलाव नहीं करता, बल्कि सामान्य भ्रूणों की पहचान करने में मदद करता है. यह केवल उस भ्रूण की पहचान में मदद करता है जिससे स्वस्थ शिशु होने की सबसे अधिक संभावना है. हालांकि, इसे लेकर कई तरह के मिथक कायम हैं:
मिथक 1: PGT IVF की सफलता की गारंटी देता है
क्रोमोसोम की दृष्टि से सामान्य भ्रूण होने पर भी IVF की सफलता गर्भाशय की स्थिति, भ्रूण के विकास और रोगी के समग्र स्वास्थ्य जैसे कई फैक्टर पर निर्भर करती है. PGT संभावनाओं को बढ़ाता है लेकिन यह पूर्ण सफलता की गारंटी नहीं है.
मिथक 2: PGT का इस्तेमाल शिशु के लिंग का चयन के लिए किया जाता है
ये न केवल गलत है बल्कि भारत में लागू कानूनों के खिलाफ भी है. PGT क्रोसोसोम के लिहाज से असामान्य भ्रूणों की पहचान करने की एक मेडिकल तकनीक है, न कि उनमें किसी तरह के बदलाव करने की. इसका उद्देश्य केवल होने वाले बच्चे को गंभीर आनुवांशिक और क्रोमोसोम से जुड़े विकारों से बचाना है.
मिथक 3: PGT से भ्रूण को नुकसान पहुंचता है
जोड़ों की एक आम चिंता ये होती है कि क्या भ्रूण बायोप्सी भ्रूण की व्यवहार्यता या आगे चलकर उसके विकास को किसी तरह का नुकसान पहुंचा सकती है. लेकिन ये प्रक्रिया ज़्यादातर लोगों की सोच-समझ से कहीं अधिक सटीक और सुरक्षित है. विकास के पांचवें दिन तक, एक भ्रूण (जिसे ब्लास्टोसिस्ट कहा जाता है) में लगभग 200 कोशिकाएं होती हैं. PGT के दौरान अंतत: प्लेसेंटा बनाने वाली परत यानी ट्रोफेक्टोडर्म से केवल पांच से आठ कोशिकाओं को धीरे से हटाया जाता है. आंतरिक कोशिका द्रव्यमान इससे पूरी तरह अछूता रहता है और आगे चलकर इसी से शिशु अपना आकार लेता है. कुशल और प्रमाणित भ्रूण विज्ञानियों की निगरानी में इस तकनीक के इस्तेमाल को सुरक्षित माना जाता है और भ्रूण के इंप्लांट होने या स्वस्थ गर्भावस्था में विकसित होने की संभावनाओं पर इसका कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ता है.