फिलहाल मॉनसून का समय है. देश के अन्य हिस्सों के अलावा उत्तर भारत में भी लगातार बारिश हो रही है. गंगा और गंडक जैसी नदियों में लबालब पानी भर चुका है. मॉनसून का असर इतना है कि असम में जहां बाढ़ तबाही मचा रही है वहीं बिहार को इस बार भी इसकी मार झेलने की आशंका है. लेकिन पानी की इस झमाझम चर्चा के बीच इससे ही जुड़ी एक चिंतित करने वाली रिपोर्ट सामने आई है.
हाल में जारी हुई इस रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले 20 सालों में उत्तर भारत में करीब 450 घन किलोमीटर भूजल बर्बाद हो चुका है. और जलवायु परिवर्तन की मार ऐसी है कि इसकी वजह से यहां भूजल के नीचे जाने की दर और भी तेज हो गई है. अध्ययन में यह भी कहा गया है कि उत्तर भारत में मॉनसून के मौसम (जून से सितंबर के बीच) में वर्षा की मात्रा 1951 से 2021 के बीच 8.5 फीसदी तक कम हो गई है.
दरअसल, कम बारिश से भूजल संसाधनों पर अतिरिक्त दबाव पड़ता है और इसके पुनर्भरण में भी कमी आती है. ये कुछ प्रमुख वजहें हैं जिनसे भूजल का स्तर लगातार कम होता जाता है. इस अध्ययन को हैदराबाद स्थित राष्ट्रीय भूभौतिकीय अनुसंधान संस्थान (एनजीआरआई) के शोधकर्ताओं की एक टीम ने अंजाम दिया है. टीम का दावा है कि 1951 से 2021 तक इस क्षेत्र में सर्दियां 0.3 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म हो गई हैं. यह भी एक वजह है कि जिससे भूजल प्रभावित हो रहा है.
पीटीआई की रिपोर्ट के मुताबिक, बीते दो दशकों में 450 घन किलोमीटर भूजल बर्बाद हुआ है. इस बात की गंभीरता इससे भी समझी जा सकती है कि एक घन मीटर, एक हजार लीटर के बराबर होता है, और इस नई रिपोर्ट में करीब 450 घन किलोमीटर के भूजल की बर्बादी का दावा किया गया है. इस अध्ययन के प्रमुख लेखक विमल मिश्रा ने कहा कि 2002 से 2021 तक, इन 20 सालों में बर्बाद हुए इस भूजल की मात्रा भारत के सबसे बड़े जलाशय इंदिरा सागर बांध की पूरी क्षमता से 37 गुना अधिक है.
आईआईटी गांधीनगर में विक्रम साराभाई सिविल इंजीनियरिंग और पृथ्वी विज्ञान के चेयर प्रोफेसर मिश्रा ने पीटीआई-भाषा से कहा, "पृथ्वी के गर्म होने के साथ ही भूजल स्तर में कमी जारी रहने की आशंका है, क्योंकि जलवायु परिवर्तन के कारण भले ही काफी अधिक बारिश हो सकती है. लेकिन इसका अधिकांश हिस्सा चरम घटनाओं के रूप में होगा, जो भूजल पुनर्भरण में सहायक नहीं है."
अब सवाल है कि उत्तर भारत में भूजल स्तर के नीचे जाने के क्या परिणाम हो सकते हैं. दरअसल, गंगा का जो समतल मैदान है, यहां गेहूं, धान, मक्का जैसी फसलें प्रमुखता से उगाई जाती हैं जिनकी सिंचाई के लिए पानी की जरूरत होती है. सिंचाई की ये जरूरत भूजल पूरा करते हैं. आंकड़ों के मुताबिक, भूजल का 89 फीसद हिस्सा सिंचाई क्षेत्र में इस्तेमाल होता है. जबकि घरेलू उपयोग के लिए करीब 9 फीसद हिस्सा काम में आता है.
अगर ऐसे ही भूजल का स्तर गर्त में जाता रहा तो एक समय के बाद सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध होना मुश्किल होगा. इससे कृषि तो प्रभावित होगी ही, घरेलू उपयोग के लिए भी पानी की उपलब्धता काफी जद्दोजहद भरी होगी. इसके अलावा एक पूरा का पूरा पारिस्थितिकी तंत्र भी इससे प्रभावित होगा.
बहरहाल, इस रिपोर्ट में बताया गया है कि 1951 से 2021 के बीच उत्तर भारत में सर्दियां 0.3 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म हो गई हैं. पीटीआई की रिपोर्ट के मुताबिक, शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में साल 2022 की असामान्य रूप से गर्म सर्दियों के दौरान पाया कि ऐसा होने के परिणामस्वरूप मिट्टी अपेक्षाकृत शुष्क हो जाती है, और इस वजह से उसकी सिंचाई के लिए अधिक पानी की जरूरत होती है जो भूजल ही पूरा करता है. इससे भी भूजल पर अतिरिक्त दबाव पड़ता है. भारत मौसम विज्ञान विभाग 1901 से मौसम का आंकड़ा दर्ज कर रहा है और इसके हिसाब से 2022 की सर्दी भारत की पांचवीं सबसे गर्म सर्दी थी.
इन सबके अलावा अध्ययन में यह भी कहा गया कि पिछले चार दशकों में मिट्टी से नमी की मात्रा घटी है, जिसकी वजह से खेती के लिए अधिक सिंचाई की जरूरत पड़ी है. पीटीआई की रिपोर्ट के मुताबिक, अगर उत्तर भारत के तापमान में 1 से 3 डिग्री सेल्सियस की और बढ़ोत्तरी होती है तो भूजल पुनर्भरण में 7 से 10 फीसदी तक बाधा पहुंच सकती है.
भूजल स्तर में बदलाव कैसे होता है, पीटीआई के हवाले से विमल मिश्रा बताते हैं, "यह बदलाव मुख्यतः ग्रीष्मकालीन मॉनसून के दौरान प्राप्त वर्षा और खरीफ (जून से सितम्बर) और रबी (दिसम्बर से मार्च) के दौरान फसलों की सिंचाई के लिए भूजल के उपयोग पर निर्भर करता है. सिंचाई की बढ़ती मांग और भूजल पुनर्भरण में कमी के कारण संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा है, जो पहले से ही तेज गति से कम हो रहा है."