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'फैमिली मैन' जैसी सीरीज जो शुरू में तो खूब दौड़ती हैं लेकिन बाद के सीजन में हांफने क्यों लगती हैं?

कुछ सीरीज जिन वजहों से घर-घर पहुंचती हैं, आखिरकार उन्हीं के बोझ तले दबने लगती हैं. 'फैमिली मैन' के साथ भी यही होता दिख रहा है

'फैमिली मैन' सीरीज के पहले सीजन के एक सीन में मनोज बाजपेयी
अपडेटेड 25 नवंबर , 2025

इस बातूनी महादेश के देसी जासूसों की कहानी कहने वाली लोकप्रिय वेब सीरीज़ ‘फैमिली मैन’ ने जब हमारी स्क्रीन्स पर पहले पहल खटखटाहट की थी, तब लोगों ने इसका स्वागत किया. किसी अपने के लौट आने की तरह. ब्रिटिश हैट, ओवरकोट, दास्तानों और काले चश्मों की ओवर हाइप्ड जासूसी दुनिया के बोझ से आज़ाद हमारे अपने जासूस. किसी भी देश की भीतरी-बाहरी सुरक्षा की रीढ़ ‘जानकारी’ के हरकारे. वे जानकारियां, जिनके बारे में भारत के ख़ुफ़िया समाज में ‘मास्टरस्पाई’ कहलाने वाले बनारस के रामेश्वरनाथ काव ने कहा था ‘Information is NEW OIL’. मतलब, जानकारी ही ताक़त है.

लेकिन फैमिली मैन ने इन अय्यारों की बात टोटैलिटी में की. अपने परिवारों से, परिवारों के लिए निकले ये लोग हम आप जैसी परेशानियों से जूझ रहे थे. साग-सब्ज़ी से लेकर बच्चे के स्कूल तक की परेशानियां. मिशनों के बीच परमीशनों की व्यथा-कथा.

इस पहले सीज़न को ऑन एयर हुए 6 साल होने को आए. ‘अरे ये तो हम जैसे ही हैं...’ देखने वालों ने कहा. नौकरी में ‘टू बी ऑर नॉट टू बी’ के सनातन सवाल से जूझते हुए. घर लौटते हुए जेब से तमाम झूठ खंगालकर परिवार के सामने धरते हुए. मशहूर उपन्यासकार नोबोकोव की वह कम मशहूर बात, जब एक किरदार अपने मरे हुए पिता के लिए ताबूत ख़रीद रहा है और ताबूत बेचने वाला पूछता है कि इस पर कितने फूल लगा दूं? अपनी असल जिंदगी से पिता की अनुपस्थिति उसके उस जवाब में है –“इतने, कि कोशिश दिखे, लेकिन इतने नहीं, कि प्यार दिखे’. देर शाम इस महादेश के अनगिनत लोग घर लौटते हुए बस इसी एक ख्वाहिश में घिसटते हैं कि उनकी कोशिश दिखे. फैमिली मैन का श्रीकांत तिवारी जब घर-दफ्तर की रस्सी पर संतुलन साधने के लिए ‘पैशन की लंबी लाठी’ लिए नंगे पांव करतब दिखाता है तो लोग ठिठक जाते हैं. खुद को श्रीकांत से एसोसिएट कर लेते हैं. थोड़ी सी ही कोशिश से श्रीकांत की जासूसी दुनिया में आप दाख़िल हो सकते थे.

फैमिली मैन के पहली सीजन के सीन में मनोज बाजपेयी, आश्लेषा ठाकुर और वेदांत सिन्हा के साथ

सोलहों संस्कारों और नौ रसों से पगा यह मनोरंजन जनता ने भर आंख देखा. ये भी देखा कि आम जनता की तरह ही तमाम परेशानियों से उलझते हुए भी ये अय्यार सात तालों में बंद जानकारी कैसे सूंघ लेते हैं? कैसे उन डॉट्स को मिलाकर एक सरल रेखा बना लेते हैं जो सबके सामने हैं लेकिन दिखाई नहीं देते. सारे तामझाम के बावजूद इन खुफियाकारों के दिमाग़ में एक बात सबसे ऊपर रहती है, और वह है देश की सुरक्षा. 

कई साल पहले शुरू हुए इस मुजस्समे का वही हुआ जो होना था. ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म प्राइम की पहचान बनने के बाद शुरू हुई इसकी एक्स्ट्रा पेराई. जैसे गन्ने से एक-एक बूंद रस निकालने के लिए मशीन में गन्ना डालता दुकानदार किसी सहज योगी सरीखा गन्ने के टुकड़े से हर मुमकिन आसन करवा लेता है और कई-कई जन्मों की अवधारणा को मज़बूत करता हुआ गन्ने को बार-बार दशद्वार से सोपान तक डालता निकालता रहता है. नतीजा, नीरस.

दूसरे सीज़न तक भी इस गन्ने से जूस निकल आ रहा था, क्योंकि पंखे का स्विच बंद भी कर दें तो पंखा तुरंत नहीं रुकता. लेकिन तब घूम रहा पंखा असल में चल भी नहीं रहा होता. बस यहीं ज़्यादातर क्रिएटर मार खाते हैं, या कहिए मार खाते दिखते हैं. ‘फैमिली मैन’ का गन्ने का सारा रस निचुड़ चुकने के बाद भी इसका तीसरा सीज़न हाज़िर हुआ. हो सकता है चौथा पांचवा छठा और सातवां भी आए. क्रिएटर इस मुगालते में हैं कि जगह बदल देने से भी ग्राहक का गिलास हवा से भरकर कहेंगे कि ये लीजिए आपका फ्रेश गन्ने का जूस. ‘कॉन्टेंट डेमोक्रेसी’ में ये मुमकिन नहीं है भई.

मज़े की बात ये कि भारतीय दर्शकों के हिस्से ये ‘कॉन्टेंट डेमोक्रेसी’ फैमिली मैन जैसे कॉन्टेंट की वजह से ही आई. लेकिन कभी अपनी ताज़ा सोच और जज़्बे की वजह से विकास-पुरुष फलाना-पुरुष ढिकाना-पुरुष कहलाने वाले नेता भी आख़िरकार चुक जाते हैं और अंत में उसी लिजलिजेपन के खाते में जमा होते हैं जहां ‘किसी तरह बने रहने’ की अर्थहीन इच्छा छटपटाती है. 

तीसरे सीजन के अपने किरदार में जयदीप अहलावत

सिर्फ नॉर्थ ईस्ट की तरफ बढ़ चलने से बात नहीं बनेगी ये बात हमारे क्रिएटर कब समझेंगे. उसी कहानी में पूर्वोत्तर को साइड डिश की तरह परोस देने से ताजगी नहीं आएगी. मोमोज़ के सहारे आप फैमिली मैन जैसी कद्दावर सीरीज़ को बचाने की हांफती कोशिश करते अच्छे नहीं लग रहे.

जयदीप अहलावत को आप इसी किरदार में कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक किसी जगह धर दीजिए. उनके हिस्से में यही परफ़ॉर्मेंस आएगी. क्योंकि यह किरदार भाषा-रस-अलंकार के ज़मीनी प्रयोग से मुक्त है. नॉर्थ ईस्ट का सबसे बड़ा आउटकास्ट माफ़िया टाइप्स लेकिन ऐसा लगता है कि अभी सुबह की गाड़ी से दीमापुर आकर प्रैक्टिस शुरू की है. ये तो जयदीप अहलावत जैसा कमाल का अभिनेता है जिसने जादूगर की तरह हवा से सिक्का निकाला और अपना बताकर चला भी दिया.

असल दिक्क़त कहां है?

यह सिर्फ फैमिली मैन के साथ ही नहीं हुआ. हर उस प्रोडक्ट, हर उस ब्रांड के साथ हुआ जिसे बाज़ार ने हवा होने की कीमत पर भी घिसने की कसम खाई हुई है. घिसावट का यह फॉर्मूला है जिसमें आप ‘फ्रेशनेस की क्रांति’ का झंडा बुलंद किए ताल ठोकते हुए बाज़ार के चलते सिकंदरों को ललकारते हैं. लेकिन जब आपके लिए गद्दी छोड़ दी जाती है तब आप कहते हैं ‘अब क्या करें?’.

नाम नहीं लेने की शर्त पर एक बहुत मशहूर (फैमिली मैन नहीं) वेब सीरीज़ के क्रिएटर बताते हैं, “इस बीमारी से बचने का कोई उपाय नहीं. दो साल पहले तक बम-बम कर रहे ओटीटी अब फूंक-फूंक कर कॉन्टेंट अप्रूव कर रहे हैं. आप पाएंगे कि किसी भी ओटीटी प्लेटफॉर्म के पास अपनी पहचान के नाम पर गिनती के शो ही हैं. उन्हें बंद किया नहीं जा सकता. क्रिएटर पहले जूझता है शो-केसिंग के लिए लेकिन एक बार अगर शो ने अपनी जगह बना ली तो प्लेटफॉर्म उसे सीजन-दर-सीजन जारी रखना चाहता है, हर कीमत पर."

यह दोहरा उलझाव है. क्रिएटर और टीम के हिस्से अब आता है पैसा और नाम. इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि क्रिएटर भी नया दांव चलना चाहता है. अब इसी पॉइंट को क्लियर रखने के लिए ओटीटी प्लेटफॉर्म सिंगल सीज़न के प्रपोज़ल पर ध्यान ही नहीं देते. इस दुनिया से जुड़े लोग बताते हैं कि नए शो के कम से कम दो सीज़न लेकर ही ओटीटी के दफ्तर जाना होता है. क्रिएटरों को दुनिया की उन कामयाब सीरीज़ का उदाहरण दिया जाता है जो दस-दस बीस-बीस सीज़न के बाद भी देखी जाती हैं, लेकिन भारत का मामला अलग है ये नहीं समझने कोई तैयार नहीं है.

तो कुल मिलाकर इस बात का कोई तोड़ निकालना होगा. जब तक नहीं निकलता तब तक कगाह बदलती रहें और मिशन अपग्रेड होता रहे. श्रीकांत तिवारी अब रशिया, जापान, चीन के लिए भी क्या बुरा है. लेकिन इस पसंदीदा किरदार और सीरीज़ के आम पहचान के घेरे से बाहर जाने के नुक्सान तो भुगतने ही होंगे.

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