एक लंबे अरसे से किताबों, रिवीजन नोट्स और मॉक परीक्षाओं में उलझे रहने के बाद 30 साल की रुचिरा भटनागर इस जून मनाली में परिवार के साथ छुट्टियां मनाने के लिए पूरी तरह तैयार थीं. वे लंबे समय से इस पल का इंतजार कर रही थीं. उनकी योजना थी कि यूजीसी-नेट की परीक्षा देने के एक हफ्ते बाद वे ट्रिप पर निकल जाएंगी.
मुंबई विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में एमए रुचिरा की ये सारी योजनाएं धरी की धरी रह गईं. वजह - नेट की परीक्षा ही रद्द हो गई. नेट के बारे में कहें तो इसे राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा कहा जाता है जिसे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) आयोजित करता है. शिक्षा और शोध में करियर बनाने वालों के लिए यह एक महत्वपूर्ण प्रवेश परीक्षा होती है.
रुचिरा को भी पीएचडी करने और फिर उस विषय में प्रोफेसर बनने के लिए इस परीक्षा को पास करना जरूरी था. लेकिन अब इसके रद्द हो जाने से उनकी सारी योजनाएं धूमिल हो गई हैं, उनका हौसला पस्त हो गया है. वे कहती हैं, "मुझे इस परीक्षा में अच्छे अंक लाने का भरोसा था. पर अब जैसे सारी मेहनत पर पानी फिर गया लगता है."
रुचिरा के लिए इस वक्त सबसे बड़ी चिंता यही है कि परीक्षा रद्द होने से उनका एक पूरा साल जाया हो सकता है और उन्हें दुबारा प्रयास करना पड़ सकता है. वे कहती भी हैं, "मेरा आत्मविश्वास टूट-सा गया है. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा. क्या मुझे दुबारा रिवीजन करना चाहिए या फिर से तैयारी शुरू कर देनी चाहिए? यह बहुत कंफ्यूजिंग है. शायद अभी जो मेरे दिमाग में चल रहा है, उसके हिसाब से एक साल छोड़ देना ही सबसे बेहतर होगा. लेकिन यह काफी निराश करने वाला है कि ये सब मेरी अपनी किसी गलती के बगैर हो रहा है."
रुचिरा की तरह और भी बहुत से लोग कुछ ऐसा ही महसूस कर रहे हैं. वे किताबों को हाथ में लेने के विचार से भी घबरा रहे हैं, क्योंकि इस वक्त उन्हें सिर्फ और सिर्फ एक ब्रेक और आराम चाहिए. उनका दिमाग अभी इस बात के लिए तैयार ही नहीं है कि वो पढ़ाई से जुड़ी किसी गतिविधि में हिस्सा ले. बल्कि दिमाग में तो ये रचा-बसा था कि लगातार तैयारी के बाद जब वे परीक्षा से फारिग हो जाएंगे तो इस वक्त वे छुट्टियां मना रहे होंगे.
रुचिरा बताती हैं, "परीक्षा की तैयारी किसी ज्वालामुखी की तरह ही है. तैयारी के दौरान आप लगातार तनाव बढ़ा रहे होते हैं और परीक्षा के खत्म होने के बाद आप इसे पूरी तरह से रिलीज कर देते हैं. उसके बाद आपको आराम करने की जरूरत होती है क्योंकि आप किसी और चीज के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं होते. मैं अभी इतनी थकी हुई हूं कि मेरे लिए संगीत सुनना भी काफी तनावपूर्ण है. मैं बस सोना चाहती हूं."
मेंटल हेल्थ के जानकारों का भी कहना है कि यह कोई अचरज वाली बात नहीं है. छात्रों पर तनाव और चिंता का इतना गहरा दबाव होता है कि परीक्षाएं खत्म होने के बाद ही इससे मुक्ति मिलती है. हालांकि, महीनों या फिर सालों तक इतने तनाव में रहना जरूर चिंता की बात है और हर कोई इससे नहीं निपट सकता.
पुणे स्थित हेल्थ कंसलटेंट स्वाति भंडारी बताती हैं, "आप हर दिन कैसा महसूस करते हैं, यह काफी मायने रखता है. आप ये सोचकर अपने मन और शरीर को महीनों तक लगातार तनाव और चिंता में नहीं रख सकते कि फलां दिन के बाद मैं सब कुछ ठीक कर लूंगा."
वे इसका दुष्परिणाम बताते हुए कहती हैं, "कभी-कभी इसका नुकसान इतना घातक होता है कि उसे ठीक नहीं किया जा सकता या फिर आपको उसे ठीक करने का कभी मौका ही नहीं मिल पाता. फिर होता यह है कि ये समस्याएं दिमाग में घर बना लेती हैं और उससे आपकी रोजमर्रा की जिंदगी प्रभावित होने लगती है."
भंडारी बताती हैं कि अत्यधिक काम के लक्षणों में अनिद्रा, अनियमित नींद, भूख के पैटर्न में बदलाव, मूड स्विंग, घबराहट के दौरे, अत्यधिक सुस्ती, फोन की लत और लोगों से मिलने-जुलने में आनाकानी शामिल हैं.
वे सुझाव देते हुए बताती हैं, "आजकल शिक्षा और प्रतिस्पर्धा में तेजी को देखते हुए छात्रों को काउंसलिंग की जरूरत है. इसके अलावा कुछ मानसिक तरकीबें भी उनके तनाव, अकेलेपन और थकावट को कम करने और याददाश्त, ध्यान और आराम करने की क्षमता में सुधार करने में मदद कर सकती हैं."
देखा जाए तो भारत में युवाओं और छात्रों की आत्महत्या की दर सबसे ज्यादा है. विशेषज्ञों की सलाह है कि या तो प्रतियोगी परीक्षाओं को लेकर माहौल कम तनावपूर्ण हो या फिर सभी संस्थानों को छात्रों के मेंटल हेल्थ से जुड़ी समस्याओं के समाधान और उनकी किस प्रकार मदद की जा सकती है, इस पर निवेश करने की जरूरत है.

