रेसिंग की तेज रफ्तार दुनिया पर बनी और जून में रिलीज हुई फिल्म F1 में मशहूर हॉलीवुड अभिनेता ब्रैड पिट का किरदार सनी हेज बड़े आत्मविश्वास के साथ स्क्रीन पर आता है. वह एक अनुभवी रेसर है लेकिन अपने सुनहरे दिन पीछे छोड़ चुका है. सनी फिर से वह शोहरत हासिल करना चाहता है लेकिन यह सब अपने किरदार में छलकने नहीं देना चाहता.
फिल्म के एक सीन में, जब 'पिट लेन' (गाड़ियों के रुकने के लिए रेसिंग ट्रैक के बगल में बना रास्ता) पर धूप पड़ रही है, तब ब्रैड पिट का अनुभवी लेकिन असरदार किरदार नीली खास शर्ट पहनकर आता है. शर्ट पर दाने जैसे हल्के डिजाइन हैं जो रोशनी में चमकते हैं. असल में यह टंगलिया बुनाई है, जो गुजरात के कारीगरों ने हाथ से बनाई है.
कॉस्ट्यूम डिजाइनर जूलियन डे ने यह शर्ट भारतीय सस्टेनेबल ब्रांड 11.11/eleven से ली थी. यह सिर्फ एक कपड़े का चुनाव नहीं था, बल्कि प्रामाणिकता, मजबूती और किसी समय से परे चीज से जुड़ाव का प्रतीक है, जो सनी हेज का खुद को दोबारा पाने के सफर को बताता है. बोहेमियन रैप्सोडी (2018) के लिए मशहूर जूलियन डे ने इस शर्ट को जानबूझकर चुना, क्योंकि उन्हें लगा कि इसका रंग ब्रैड पिट के किरदार पर खूब जमेगा.
इस शर्ट का चुनाव ग्लोबल सिनेमा में असली और पारंपरिक सुंदरता की बढ़ती पसंद को दिखाता है, जिसमें 700 साल पुरानी कला को नए दौर में लाया गया है. यह शर्ट ऑर्गेनिक कॉटन से बनी है, जिसे शत् प्रतिशत फ्रक्टोज वाले इंडिगो रंग में प्राकृतिक ढंग से रंगा गया है. इसे 8 कारीगरों ने 9 घंटे 20 मिनट में तैयार किया है, जो धीरे और ध्यान से की गई बुनाई की खूबसूरती की ओर इशारा करता है.
टंगलिया को 'दाना बुनाई' भी कहा जाता है. यह गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र के सुरेंद्रनगर और कच्छ जिलों में शुरू हुई एक हथकरघा तकनीक है. यह इलाका सूखी जमीन और रंग-बिरंगी सांस्कृतिक परंपराओं के लिए जाना जाता है.
यह कला करीब 700 साल पुरानी है और इसकी खासियत इसके बारीक बिंदियों जैसे डिजाइन हैं. ये डिजाइन धागों को खास तरीके से मोड़कर बनाए जाते हैं, जिससे कपड़े के दोनों तरफ उभरे हुए मनकों जैसे पैटर्न दिखते हैं.
"टंगलिया" शब्द "टांग" से आया है, जिसका मतलब होता है एड़ी से घुटने तक का पैर. यह नाम भरवाड़ समुदाय (चरवाहा समुदाय) की महिलाओं द्वारा पहने जाने वाले काले घाघरे (चणिया) से जुड़ा है, जिसमें सफेद बिंदियां होती हैं.
एक लोककथा के मुताबिक, भरवाड़ समुदाय के एक व्यक्ति ने जुलाहा समुदाय की लड़की से शादी की, जो उस समय के सामाजिक नियमों के खिलाफ था. परिवार ने उसे अपनाने से मना कर दिया, तो उसने बुनाई सीख ली. उसने अपनी भेड़ों की ऊन से खास दाना डिजाइन वाले शॉल बनाए. इसी से डांगसिया समुदाय की शुरुआत हुई, जो आज टंगलिया बुनाई के मुख्य कारीगर हैं. यह कहानी दिखाती है कि यह कला प्रेम, संघर्ष और दो परंपराओं – चरवाहों और बुनकरों – के मेल से जन्मी है.
सौराष्ट्र का इलाका सूखे और खुले इलाकों के साथ-साथ जुड़ी हुई छोटी-छोटी बस्तियों के लिए जाना जाता है. यह क्षेत्र लंबे समय से टंगलिया जैसी पारंपरिक कलाओं को बढ़ावा देता रहा है. पहले यह बुनाई डेडरा, वस्ताड़ी और गोदावरी जैसे गांवों में पिट लूम (गड्ढेदार करघों) पर होती थी. और पारंपरिक रूप से इसमें स्थानीय भेड़ों की ऊन का इस्तेमाल होता था, लेकिन आज कारीगर बदलती मांगों के अनुसार कॉटन, सिल्क और विस्कोस का भी इस्तेमाल करते हैं.
यह प्रक्रिया बहुत मेहनत वाली होती है. बुनकर अपनी उंगलियों से ताने (warp) के धागों की सही गिनती करते हैं और फिर अतिरिक्त बाने (weft) के धागों को मोड़कर बिंदु, गोल या वक्र जैसे ज्यामितीय डिजाइन बनाते हैं, जो कढ़ाई जैसे दिखते हैं. इन डिजाइनों की प्रेरणा अक्सर उनके आसपास के माहौल से मिलती है, जैसे मोर या कुएं, जो डांगसिया समुदाय के प्रकृति से गहरे जुड़ाव को बताता है.
इस कारीगरी की टिकाऊ प्रकृति (सस्टेनेबिलिटी) खास है. 11.11/eleven जैसे ब्रांड देसी ऑर्गेनिक कपास, जैसे 'कला', और एन्वायरनमेंट फ्रैंडली रंगों का इस्तेमाल करते हैं जिससे पर्यावरण पर असर कम होता है. यह टंगलिया की पारंपरिक सोच से मेल खाता है, क्योंकि पहले डांगसिया समुदाय ऊन और अनाज के बदले अपने बुने हुए कपड़े देते थे, जिससे एक आत्मनिर्भर व्यवस्था बनती थी.
टंगलिया बुनाई का सांस्कृतिक महत्व भी बहुत गहरा है. यह डांगसिया समुदाय की पहचान और उनके पूज्य देवी-देवताओं - शिव, शक्ति और करीब 750 साल पुराने पूजनीय संत जोधलपीर - से जुड़ा है. कभी यह कला औद्योगीकरण के कारण खत्म होने के कगार पर पहुंच गई थी, लेकिन गांधीनगर के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फैशन टेक्नोलॉजी (NIFT) जैसे संस्थानों के प्रयासों से फिर से जीवित हुई. NIFT ने 2007 में टंगलिया हस्तकला संघ की स्थापना की थी.
इस पहल में पांच गांवों के 226 बुनकर जुड़े. इनके लिए कौशल बढ़ाने की कार्यशालाएं आयोजित की गईं और नए डिजाइन लाए गए. इसी के चलते टंगलिया को 2009 में GI (जियोग्राफिकल इंडिकेशन) का दर्जा मिला. आज यह कला सुरेंद्रनगर के गांवों में जारी है, जहां कारीगर पारंपरिक तरीकों से दुपट्टे, कुर्ती और होम डेकोर जैसे मॉडर्न प्रोडक्ट बना रहे हैं.
टंगलिया का बाजार बढ़ा है, लेकिन यह अभी भी एक खास वर्ग तक सीमित है. F1 फिल्म में ब्रैड पिट के टंगलिया शर्ट पहनने से दुनियाभर में इसे पहचान मिली है. इसने दिखाया है कि यह कला हाई फैशन में भी जगह बना सकती है. iTokri, Gaatha और Amazon का Garvi Gurjari जैसे प्लेटफॉर्म पर टंगलिया के शॉल से लेकर बिना सिला कुर्ती का कपड़ा तक बिकता है. RaasLeelaTextile और HolyThread India जैसे कम जाने-पहचाने ब्रांड भी टंगलिया सूट और शर्ट बेचते हैं, जो हाथ से बने और टिकाऊ कपड़े पसंद करने वालों को ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं.
हालांकि, चुनौतियां अभी भी बनी हुई हैं. 2022 में अमीषा शाह की एक स्टडी, जिसका शीर्षक था : टंगलिया वीविंग: सुरेंद्रनगर जिले की एक घटती हुई हस्तकला. इसमें बताया गया है कि टंगलिया बुनाई करने वाले सिर्फ 12 फीसद कारीगर ही 30 साल से कम उम्र के हैं, जो युवाओं की कम रुचि को दिखाता है. इसके अलावा, 48 फीसद टंगलिया कारीगर नहीं चाहते कि उनके बच्चे इस कला को सीखें, जिससे इसके भविष्य पर खतरा मंडरा रहा है.
एक और अहम बात कि भले ही टंगलिया प्रोडक्ट्स को अंतरराष्ट्रीय बाजार में अच्छी कीमत मिलती है, लेकिन शोध में पाया गया कि 88 फीसद बुनकरों की मासिक आमदनी 5,000 रुपये से भी कम है. यह इस पारंपरिक कला के टिके रहने में आर्थिक मुश्किलें पैदा करता है. इसके अलावा, बाजार में मशीन से बने सस्ते कपड़ों की भरमार ने पारंपरिक बुनकरों की हालत और खराब कर दी है, जिनमें से कई लोगों ने बुनाई छोड़कर दूसरे काम करना शुरू कर दिया है.
बावजूद इन बातों के, ब्रैड पिट के पहनने से टंगलिया को जो अंतरराष्ट्रीय पहचान मिली है, वह उम्मीद की किरण दिखाती है. F1 में इसके दिखाई देने से लोगों की रुचि बढ़ी है, जिससे नए बाजार खुल सकते हैं और इस कला का सांस्कृतिक और आर्थिक महत्व भी मजबूत हो सकता है. अगर परंपरा को सहेज कर आगे बढ़ाया जाए, तो वह भी भविष्य की रफ्तार पकड़ सकती है.