हमारे भोजन की व्यवस्था करने वाले किसान जलवायु परिवर्तन के सबसे पहले शिकार होते हैं क्योंकि कई बार उनकी फसलें बाढ़, सूखे, कीटों के हमलों और बेमौसम ठंड या गर्मी की भेंट चढ़ जाती हैं. ये तब है जबकि कृषि और पशुधन दुनिया के ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के प्रमुख स्रोतों में से एक है.
विशेषज्ञों का कहना है कि मौजूदा कृषि परिदृश्य पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है, क्योंकि यही जीवित रहने के लिए आवश्यक भोजन, पोषण और आजीविका मुहैया कराने का प्रमुख आधार है. इसलिए, सबसे बड़ा सवाल ये है कि खाद्य प्रणालियों को टिकाऊ कैसे बनाया जाए, और यह सुनिश्चित हो सके कि कृषि आजीविका, पोषण और पर्यावरण के साथ हमें कोई समझौता न करना पड़े.
ये इसलिए और भी अहम हो जाता है क्योंकि मौजूदा कृषि प्रणाली न तो किसानों को जलवायु जोखिमों से बचाती है और न ही भोजन में उतना पोषक और स्वास्थ्यकर ही बना रही है, जितना होना चाहिए. सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (CSE) की महानिदेशक सुनीता नारायण का कहना है, “हम जीवाश्म ईंधन के कारण उत्सर्जन और जलवायु परिवर्तन पर तो खूब चर्चा करते हैं लेकिन दूसरी बड़ी समस्या, कृषि और हमारे भोजन पर ज्यादा बात नहीं करते.”
नारायण ने यह बात 27 से 29 अक्टूबर तक अलवर के निमली में आयोजित सतत खाद्य प्रणालियों पर राष्ट्रीय सम्मेलन में कही. कार्यक्रम में ‘Sustainable Food Systems: An Agenda for Climate-Risked Times’ रिपोर्ट का विमोचन भी किया गया. जलवायु परिवर्तन का खाद्य उत्पादन पर गंभीर दुष्प्रभाव पड़ने का अनुमान है. रिपोर्ट दर्शाती है कि जरूरी उपायों के बिना वर्षा आधारित धान की पैदावार 2050 तक 20 फीसद और 2080 तक 47 फीसद घट सकती है.
चिंताजनक स्थिति इसलिए भी है क्योंकि भारत में सबसे ज्यादा संख्या छोटी जोत वाले सीमांत किसानों की है, जबकि विकसित देशों में कृषि मॉडल बड़े खेतों, अधिक पशुधन और भारी मात्रा में रासायनिक इनपुट वाला है. नारायण ने कहा, “भारतीय किसान पहले से ही जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की अग्रिम पंक्ति में हैं, और इन प्रभावों के संपर्क में आने से उनकी फसलों और आजीविका पर और भी अधिक प्रभाव पड़ेगा. इसलिए, ये समझना जरूरी है कि कृषि को जलवायु परिवर्तन के प्रति अधिक लचीला बनाने के लिए क्या किया जाना चाहिए.”
अब कृषि-पारिस्थितिक खेती को बढ़ावा देना सबसे बड़ी जरूरत है, जो टिकाऊ है. लेकिन अभी भारत में छोटी-मोटी, मामूली पहलों तक सीमित है. इसे बड़े पैमाने पर विस्तारित करने की जरूरत है. ये एक बदलाव न केवल किसानों की खेती की लागत कम कर सकता है, बल्कि उनकी आय में भी इजाफा कर सकता है.
रिपोर्ट के मुताबिक, कम लागत वाली खेती किसानों को जोखिमों से बचाने में मददगार साबित हो सकती है. नारायण ने कहा, “ऐसा नहीं है कि कम लागत वाली कृषि कम उत्पादकता होगी. मिट्टी को उर्वर बनाए रखने, सिंचाई सुनिश्चित करने, कीटनाशकों के गैर-रासायनिक विकल्पों का उपयोग करने और किसानों को अधिकतम लाभ के अवसर मुहैया कराने वाले बाजारों में निवेश करके बड़े बदलाव लाए जा सकते हैं.”
रिपोर्ट में सिफारिश की गई है कि जलवायु परिवर्तन के मद्देनजर, किसानों को केवल कृषि पर निर्भर रहने के बजाय आय के स्रोतों में विविधता लाकर जोखिमों को कम करना चाहिए. इसे खेती में पशुओं को शामिल करके या बहु-फसल प्रणाली अपनाकर हासिल किया जा सकता है.
ये सब इसलिए ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत के 573 ग्रामीण जिलों में से लगभग 90 फीसद जलवायु जोखिमों का सामना कर रहे हैं. बढ़ते तापमान के कारण कीटों और बीमारियों का प्रकोप बढ़ रहा है और फसल उत्पादकता प्रभावित हो रही है, जबकि अनियमित मानसून जल संकट बढ़ा रहा है.
सरकार को ऐसी नीतियां बनानी चाहिए जो स्थानीय वातावरण के अनुकूल, जलवायु परिवर्तनों के प्रति अधिक लचीली और पोषण से भरपूर मानी जाने वाली देसी फसलों की खेती को प्रोत्साहित करें. बतौर उदाहरण, पानी की कमी वाले क्षेत्रों में किसान बाजरा जैसी फसलों की खेती कर सकते हैं जिनके लिए पानी की कम जरूरत होती है और ये जलवायु परिवर्तन के असर को आसानी से सहन कर सकती हैं.
इसके अलावा, किसानों की अच्छी उपज के लिए बेहतर बाजार मुहैया कराने वाली कृषि खरीद नीतियां स्थानीय स्तर पर उत्पादकता और खान-पान की आदतों में सुधार ला सकती हैं. मध्याह्न भोजन के लिए ओडिशा सरकार की तरफ से बाजरा की खरीद ऐसी ही एक प्रक्रिया है. जैसा नारायण कहती हैं, "भोजन-जलवायु-पोषण का संबंध वीगन, वेजटेरियन या ऑर्गेनिक होने में निहित नहीं है. ये इस पर निर्भर करता है कि भोजन उगाया कैसे जाता है, हम पोषण के लिए क्या खाते हैं, और कितना खाते हैं.”

