scorecardresearch

हेडफोन कर रहा युवाओं के कान खराब! क्या है ENT डॉक्टर की सलाह?

ज्यादा शोर से सुनने की ताकत कम होना यानी नॉइज इंड्यूस्ड हियरिंग लॉस (एनआईएचएल) अब हकीकत है और ये परेशानी बड़ी तादाद में युवाओं को अपनी चपेट में ले रही है. वजह है मोबाइल, लैपटॉप और ऑडियो डिवाइस में घंटों तक ऊंचे वॉल्यूम पर गाने या वीडियो सुनना

सांकेतिक तस्वीर
सांकेतिक तस्वीर
अपडेटेड 7 अगस्त , 2025

वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन ने 2015 में ही चेतावनी दी थी कि एक अरब से ज्यादा टीनएजर्स और युवा शोर वाले माहौल में गलत तरीके से सुनने की आदत की वजह से हियरिंग लॉस के खतरे में हैं.

असल में यह खतरा सामान्य लगने वाली आदत से शुरू होता है- हेडफोन या ईयरफोन की आवाज तेज करके सुनना. नई टेक्नोलॉजी ने आज बेहद हल्के और स्मार्ट डिवाइस बना दिए हैं जो कान के अंदर फिट हो जाते हैं.

यह युवाओं के सुनने की क्षमता को किस तरह प्रभा‌वित कर रहा है? पुणे के रूबी हॉल क्लिनिक में सीनियर ईएनटी सर्जन डॉ. मुरर्जी घाडगे बताते हैं कि पिछले कुछ सालों में सुनाई देने से जुड़ी दिक्कतों का पैटर्न तेजी से बदला है. वे बताते हैं, “पहले जो दिक्कत सिर्फ बुजुर्गों में देखी जाती थी, अब वह किशोरों और युवाओं में भी दिख रही है.”

इसकी सबसे बड़ी वजह है हेडफोन और ईयरफोन का जरूरत से ज्यादा और गलत इस्तेमाल. डॉ. घाडगे कहते हैं, “मैंने देखा है कि स्कूल के बच्चों से लेकर कॉलेज के स्टूडेंट्स और नई नौकरी करने वाले युवाओं में सुनने में परेशानी, कान में बजना या सन्नाटा, दर्द और कान भारी लगने की शिकायतें तेजी से बढ़ी हैं.” इन सभी में एक बात समान होती हैः ज्यादा देर तक और तेज आवाज में हेडफोन का इस्तेमाल.

एनआईएचएल यानी नॉइज इंड्यूस्ड हियरिंग लॉस एक ऐसा नुक्सान है जिसे रोका जा सकता है. लेकिन यह अब युवाओं में सबसे आम हियरिंग प्रॉब्लम बन गया है. डॉ. घाडगे बताते हैं, “बुजुर्गों की तरह उम्र से जुड़ी समस्या नहीं है ये. ये कभी भी हो सकती है अगर लंबे समय तक तेज आवाज में कुछ सुनते रहें.”

आज की लाइफस्टाइल में लोग अक्सर तेज आवाज में गाने या वीडियो सुनते हैं, खासकर जब वे पब्लिक ट्रांसपोर्ट या भीड़भाड़ वाली जगहों पर होते हैं. ऐसे में उन्हें आवाज बढ़ानी पड़ती है, जो सुरक्षित स्तर यानी 85 डेसिबल से ऊपर चली जाती है. डॉ. घाडगे बताते हैं, “दिक्कत ये है कि आज के ज्यादातर पर्सनल ऑडियो डिवाइस 100 से 110 डेसिबल तक आवाज देने की क्षमता रखते हैं. इतनी आवाज में रोज सिर्फ 15 मिनट सुनना भी स्थायी नुक्सान कर सकता है.”

कौन-कौन से लक्षण नजर रखें?

सबसे बड़ी चिंता यह है कि युवाओं को शुरुआत में नुक्सान का पता ही नहीं चलता. डॉ. घाडगे कहते हैं, “शुरुआती संकेतों में कान में घंटी या भनभनाहट की आवाज, खासकर शोर वाले माहौल में बात समझने में दिक्कत, टीवी या फोन की आवाज बार-बार बढ़ाने की जरूरत और हेडफोन हटाने के बाद सुनाई कम देना शामिल हैं.” अगर इन्हें नजरअंदाज किया गया तो नुक्सान स्थायी हो सकता है.

बचाव कैसे करें?

ऑनलाइन क्लास, रिमोट वर्क और डिजिटल कंटेंट के चलते आज के युवा लंबे समय तक हेडफोन पर रहते हैं. डॉ. घाडगे कहते हैं, “ऊपर से गेमिंग हेडसेट्स का चलन बढ़ गया है, जिससे आज की पीढ़ी लगातार तेज आवाज की चपेट में है, लेकिन उन्हें खतरे का अंदाजा नहीं है.”

अच्छी बात यह है कि इस नुक्सान को पूरी तरह से रोका जा सकता है. डॉ. घाडगे एक आसान नियम बताते हैंः 60/60 रूल. उनकी सलाह हैः “वॉल्यूम 60 फीसद से ज्यादा न रखें और लगातार 60 मिनट से ज्यादा न सुनें.” वे ये भी कहते हैं कि नॉइज कैंसिलिंग हेडफोन इस्तेमाल करें, जिससे शोर में भी कम आवाज में साफ सुनाई देता है.

सुनने के बीच-बीच में ब्रेक लेना भी जरूरी है. साथ ही समय-समय पर कान की जांच करवाना फायदेमंद है. डॉ. घाडगे यह भी कहते हैं, “और सबसे जरूरी बात यह है कि माता-पिता, टीचर और स्कूल बच्चों को सही सुनने की आदत के बारे में जागरूक करें.”

डॉ. घाडगे के मुताबिक, “अब सुनने की दिक्कत सिर्फ उम्र से जुड़ी बात नहीं रह गई है. डिजिटल दौर में हमें खासकर बच्चों और युवाओं के लिए कानों की सेहत को लेकर अपनी सोच बदलनी होगी,” आसान शब्दों में कहें तो सुनिए, लेकिन समझदारी और सावधानी के साथ.

Advertisement
Advertisement