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गोविंद झा : सौ साल जिए, अस्सी साल मैथिली को दिए और इतनी ही किताबें भी लिखीं!

मैथिली के जाने-माने लेखक गोविंद झा का 102 साल की उम्र में 18 अक्टूबर को निधन हो गया

गोविंद झा मैथिली के सम्मानित साहित्यकार थे
गोविंद झा मैथिली के सम्मानित साहित्यकार थे
अपडेटेड 20 अक्टूबर , 2023

पंडित गोविंद झा चले गए. 18 अक्टूबर की रात तकरीबन साढ़े दस बजे फेसबुक पर किसी ने यह पोस्ट लिखी कि वे अब नहीं रहे और उसके बाद श्रद्धांजलियों की बाढ़ आ गई. मिथिला के इलाके में शायद ही कोई सक्रिय सोशल मीडिया वाला रहा हो, जिसने उन्हें श्रद्धांजलि न दी हो. मैं उन श्रद्धांजलियों से गुजरते हुए उनकी टाइमलाइन पर यह देख रहा था कि महज आठ दिन पहले 10 अक्टूबर, 2023 को लोग उन्हें उनकी 100वें जन्मदिन की बधाई दे रहे थे.

हालांकि 10 अक्टूबर, 1923 उनका ऑफिशियल जन्मदिन था, उनके पुत्र अरविंद अक्कू बताते हैं, "उनका असली जन्मदिन अप्रैल, 1921 का था, यानी वे 102 साल के हो गए थे. जीते-जीते थक गए थे, अब जीना नहीं चाहते थे. हम कहते थे, आपको दिक्कत क्या है, तो वे कहते थे, इच्छामृत्यु मिल जाती तो अच्छा होता. वे कहते थे - कई चीजें दुखी करती हैं, जैसे अब मैं दौड़ना चाहता हूं, मगर दौड़ नहीं सकता."

गोविंद झा मैथिली के सम्मानित साहित्यकार थे. मगर ज्यादातर उन्होंने नाटक लिखे, दूसरी भाषाओं की कृतियों का मैथिली में अनुवाद किया और जीवन के आखिरी दिनों में भाषाशास्त्र की तरफ उनकी रुचि कुछ ज्यादा ही बढ़ गई. उनके दो नाटक बसात और रुक्मिणी हरण की बहुत चर्चा होती है. मैथिली के प्रसिद्ध रंगकर्मी और निर्देशक कुणाल इन दोनों नाटकों को नई लीक रचने वाला बताते हैं.

कुणाल कहते हैं, "बसात नाटक(1954) में उन्होंने पहली दफा मिथिला के लोकनाट्य की युक्तियों का इस्तेमाल किया था. उनके दूसरे नाटक रुक्मिणी हरण की वजह से ही मैथिली के नाटकों की पहली दफा राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनी. 1990 में संगीत नाटक अकादमी की योजना में शामिल किया गया." उनके पुत्र अरविंद अक्कू इस हवाले से बताते हैं, "बसात नाटक की ऐसी पॉपुलरिटी थी कि उस जमाने में मिथिला का शायद ही कोई ऐसा गांव रहा होगा, जहां यह नाटक नहीं खेला गया."

बाद के दिनों में गोविंद झा अपनी किताबें खुद टाइप करने लगे थे
बाद के दिनों में गोविंद झा अपनी किताबें खुद टाइप करने लगे थे

गोविंद झा मैथिली के ऐसे लेखक रहे हैं, जिन्होंने मैथिली भाषा को समृद्ध करने के लिए हर तरह का काम किया. मैथिली के वरिष्ठ साहित्यकार रमानंद झा रमण कहते हैं, "उन्होंने कहानी, कविता, उपन्यास सब लिखे. इसके साथ व्याकरण, भाषा विज्ञान और अनुवाद का भी काम किया. दूसरी भाषाओं के विपुल साहित्य को मैथिली में लाने के लिए उन्होंने बांग्ला, उड़िया, उर्दू, असमी, नेपाली आदि भाषाएं सीखीं और इन भाषाओं की कृतियों का खूब अनुवाद किया. हिंदी, मैथिली और संस्कृत के तो वे ज्ञाता थे ही. वे मैथिली के ऐसे इकलौते रचनाकार थे, जिन्हें एक ही साल में साहित्य अकादमी का मूल पुरस्कार भी मिला और अनुवाद का पुरस्कार भी. 1993 में उन्हें उनके मैथिली कहानी संग्रह सामाक पौती के लिए साहित्य अकादमी मूल पुरस्कार मिला, उसी साल अनुवाद का पुरस्कार उन्हें उनकी पुस्तक नेपाली साहित्यक इतिहास के लिए मिला."

अक्कू बताते हैं, "सीखने की उनमें अद्भुत लगन थी. एक बार उनकी एक रचना पर कन्नड़ पत्रिका में कुछ छपा था. उन्होंने उसे पढ़ने के लिए कन्नड़ लिपि सीख ली. वे इसी तरह कई भाषाओं की लिपियां सीख लेते थे. सत्तर साल की उम्र में उन्होंने अपने पोते से जिद करके कंप्यूटर चलाना सीखा. तब से वे अपना पूरा काम कंप्यूटर पर करने लगे. अपनी किताबें तक खुद टाइप करके प्रकाशकों को भेजते थे. वे पेजमेकर पर भी काम करते थे. पिछले साल तक वे कंप्यूटर पर काम करते रहे. उनकी आखिरी किताब जो उन्होंने अपने बड़े भाई पंडित कवि जीवनाथ झा पर लिखी, वो भी उन्होंने खुद टाइप की थी. अभी छह-सात महीने पहले तक वे फेसबुक पर खुद सक्रिय थे."

23 जनवरी, 2023 को फेसबुक पर उनकी आखिरी पोस्ट थी, सत् एक-मत अनेक. इसमें उन्होंने बताया था कि भले ही हिंदू, मुस्लिम और ईसाई अलग-अलग धारणा के धर्म हैं, मगर इन धर्मों का मूल विचार एक ही है. यह उन्होंने इन तीनों धर्मों के बीच चल रही परंपराओं का उदाहरण देकर लिखा था. अक्कू कहते हैं, "उनकी रुचि सोशल मीडिया में थी, वे कागज पर लिखकर देते थे और कहते थे, इसे पोस्ट कर दो."

100वें जन्मदिन पर मैथिली के लेखकों ने उनके गावं में यादगार कार्यक्रम आयोजित किया था
100वें जन्मदिन पर मैथिली के लेखकों ने उनके गावं में कार्यक्रम आयोजित किया था

आखिरी दिनों में गोविंद झा की रुचि शब्द संधान में हो गई थी. वे हर शब्द के निर्माण की कथा तलाशते और उसे लिखते. उनकी एक पुस्तक भी इस विषय पर 2018 में प्रकाशित हुई, जिसका नाम था मैथिली शब्द संधान. 1923 में जन्में गोविंद झा की किताबें 1944 से छपने लगी थीं. पहली किताब कालिदास की महत्वपूर्ण कृति मालविकाग्निमित्र का मैथिली अनुवाद थी. रमानंद झा रमण उनकी रचनाओं की लंबी सूची देते हैं. इसके हिसाब से 79 वर्षों में फैले अपने साहित्यिक जीवन में उनकी 80 किताबें प्रकाशित हुईं. यानी अनवरत लेखन जारी रहा. हर साल एक किताब.

रमानंद झा रमण कहते हैं, "उन्हें किसी एक विधा में नहीं बांधा जा सकता, या कोई एक कृति उनका परिचय नहीं हो सकती. उनका अवदान समग्रता में है. उन्होंने हमेशा अलग-अलग विधाओं और विषयों पर लेखन किया. लगातार सक्रियता उनकी सबसे बड़ी पहचान है. मैथिली में आज उनके जैसा कोई लेखक नहीं है, जो साहित्य, भाषा, व्याकरण और अनुवाद हर काम उसी उत्साह और गुणवत्ता के साथ कर सके जिसकी जरूरत है."

उनके बाद मैथिली साहित्य में कई पीढ़ियां आईं, हर पीढ़ी को उनका स्नेह और मार्गदर्शन मिला. रमण कहते हैं, "हमलोगों ने 1989-90 के दौर में एक साहित्यिक गोष्ठी, 'सगर राति दीप जरय' (पूरी रात दीप जले) की शुरुआत की थी. हर तीन महीने पर होने वाली यह गोष्ठी पूरी-पूरी रात चलती थी. वे उस गोष्ठी में भी आते थे और अपने सभी कनीय लेखकों की रचनाओं पर टिप्पणी करते."

गोविंद झा
मैथिली भाषियों ने गोविंद झा को उनके श्रम के लिए भरपूर सम्मान दिया

गोविंद झा ने भाषा को लेकर सरकार की भी सेवा की है. वे बिहार सरकार के राजभाषा विभाग में अनुवाद पदाधिकारी थे. यह काम करते हुए उन्होंने कानून और पुलिस मैनुअल आदि के लिए हिंदी की शब्दावलियां विकसित कीं. इसके बाद वे सात साल तक बिहार सरकार की मैथिली अकादमी के उपनिदेशक रहे और अपने दौर में मैथिली की कई महत्वपूर्ण किताबें लिखीं और प्रकाशित की. उन्होंने इस दौरान विद्यापति और ज्योतिरीश्वर ठाकुर की कृतियों पर अच्छा काम किया. खासकर विद्यापति की कई ऐसी कृतियों का संपादन किया, जो अब तक अप्रकाशित थीं. अवकाश प्राप्त होने के बाद वे साहित्य अकादमी और भारतीय भाषा संस्थान, मैसूर जैसी संस्थाओं से जुड़े रहे. तिब्बती इंस्टीट्यूट, सारनाथ के लिए भी लिपिशिक्षण कर्मशाला का आयोजन किया. उन्हें साहित्य अकादमी के अलावा मैथिली का प्रतिष्ठित प्रबोध साहित्य सम्मान भी मिला. उन्होंने रामशरण शर्मा की प्राचीन भारत पुस्तक का हिंदी अनुवाद भी किया.

हर सौ साल जीने वाले से उनके सुदीर्घ जीवन का राज पूछा जाता है. उनसे तो पूछ नहीं पाया. मगर उनके पुत्र अरविंद अक्कू कहते हैं, "अनुशासित जीवन. उनका हर काम घड़ी के हिसाब से होता था. उनसे खाना-खाने के लिए पूछो तो कहते थे, ‘मुझसे क्यों पूछते हो, घड़ी से पूछो.’ वे हर काम समय से करते थे. हमने भी कोशिश की कि ताउम्र उनका हर काम घड़ी के मुताबिक हो."

वे इसी कठोर अनुशासन में एक सौ दो साल जिये और उन 102 वर्षों में से उन्होंने तकरीबन अस्सी साल मैथिली साहित्य को दे दिया. वे एक भाषा श्रमिक की तरह पूरी उम्र जुटे रहे. हर पल कुछ नया रचते रहे. मैथिली भाषियों ने भी उन्हें उनके इस श्रम के लिए भरपूर स्नेह और सम्मान दिया.

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