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AI, IT, शेयर बाजार… भारत के आदिवासियों के लिए इन सबके मायने क्या हैं?

भारत के आदिवासी राजनीति, खेल, साहित्य, सिनेमा, सिविल सर्विसेज में अपनी जगह तो बना रहे हैं लेकिन इसके बावजूद उसकी मुख्यधारा से दूरी क्यों बनी हुई है

सांकेतिक तस्वीर
अपडेटेड 10 अगस्त , 2025

भारत की जनजातीय आबादी देश की नई आर्थिक व्यवस्था के एक निर्णायक मोड़ पर खड़ी है. यह व्यवस्था तेज़ औद्योगिकीकरण, बुनियादी ढांचे के विस्तार और डिजिटल विकास से आकार ले रही है. लेकिन खरबों डॉलर की खदानों पर बसा आदिवासी समाज आज भी निफ्टी, शेयर बाजार, सूचकांक जैसे शब्दावलियों के आसपास तो दूर, इनके बारे में सोच तक नहीं पा रहा है. 

भारत के आदिवासी राजनीति, खेल, साहित्य, सिनेमा, सिविल सर्विसेज में अपनी जगह तो बना रहे हैं, लेकिन नई आर्थिक व्यवस्था में खुद को शामिल करने से अभी भी मीलों दूर हैं. साल 1855 (हूल विद्रोह) में शुरू हुई जमीन बचाने की लड़ाई, आज भी जल, जंगल और जमीन की लड़ाई पर ही अटकी हुई है. हालांकि ये लड़ाई आज भी आदिवासियों की जरूरत और मजबूरी दोनों बने हुए हैं. 

असुर आदिवासी समुदाय ने लोहा गलाने की कला दुनिया को बता दिया, लेकिन आज वो खुद अपनी जनसंख्या बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है. 2011 की जनगणना के मुताबिक उसकी आबादी मात्र 33 हजार के लगभग है. जिसमें अधिकांश हिस्सा झारखंड में रहता है. 

आदिवासी आईटी, वित्त या शहरी सेवाओं जैसे उच्च-विकास वाले क्षेत्रों से लगभग गायब हैं. भारतीय अर्थव्यवस्था में खेती, जंगल उत्पाद संग्रहण और दिहाड़ी मजदूरी जैसे असंगठित या जीवन-निर्वाह वाले क्षेत्रों में काम कर केवल खुद को किसी तरह खड़ा कर पा रहे हैं. 

शिक्षा की कमी, बाज़ार तक पहुंच न होना उन्हें औपचारिक अर्थव्यवस्था में भागीदारी से दूर रखता है. भारत भले ही डिजिटल युग में जा रहा हो, लेकिन आदिवासी क्षेत्र इंटरनेट, डिजिटल साक्षरता और ऑनलाइन वित्तीय सेवाओं में काफी पीछे हैं. 

आखिर इसका कारण क्या है? क्या ऐसा उनके लिए सही है? उनके मूल को बचाए रखने के लिए उनका इन सब चीजों से दूर रहना कितना सही है? 

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री और झारखंड-छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच लंबे समय से काम कर रहे ज्यां द्रेज कहते हैं, ‘’दुनियाभर में बाजार का स्ट्रक्चर है कि एक बॉस मुनाफा कमाएगा, बाकि उसके यहां मजदूरी करेंगे, वो आदिवासियों के नेचर में नहीं है. लोग अच्छे से रहना चाहते हैं, लेकिन व्यक्तिगत लालच कम है. इसका मतलब ये नहीं है कि उन्हें आर्थिक तरक्की पसंद नहीं है या जरूरत नहीं है.’’ 

द्रेज आगे यह भी जोड़ते हैं, “आदिवासी अर्थशास्त्र को विकसित करना है तो स्थानीय संसाधन को विकसित करने के लिए वास्तविक को-ऑपरेटिव बनाना होगा. पशुपालन, जड़ी-बूटी, फॉरेस्ट प्रोडक्ट, मछली पालन आदि पर फोकस करने से बहुत अच्छी संभावना बन सकती है. लेकिन सरकार की नजर इस पर कम है.’’ 

ट्राइबल चैंबर ऑफ कॉमर्स की सदस्य डॉ वासवी कीड़ो कहती हैं, “सरकार लोन देना चाहती है, लेकिन आदिवासी 50 हजार से 1 लाख रुपए तक का लोन लेकर रिटर्न करने की क्षमता में नहीं है. तो भला वो कैसे शेयर बाजार में कैसे घुस पाएगा. महाजनी व्यवस्था से वो काफी हद तक मुक्त हुए ही थे, कि सरकार नई महाजन बन गई है.’’ 

कीड़ो के मुताबिक, “जो फॉरेस्ट प्रोड्यूस (जंगल में पाई जाने वाली चिरौंजी के अंदर का दाना) सरकार 30 रुपए किलो खरीदती है, वो बाजार में 1200 रुपए किलो मिलता है. सरकार कोऑपरेटिव बनाकर इनसे खरीदती है और बड़ी कंपनियों को ऑक्शन में बेच देती है. बड़ा मुनाफा महाजन बनी सरकार ही ले लेती है.’’ 

धीमी है बदलाव की रफ्तार 

लेकिन क्या सबकुछ ठहरा हुआ है? नहीं ऐसा नहीं है, आदिवासी समुदाय सेल्फ हेल्प ग्रुप, फार्मर प्रोड्यूसर ऑर्गेनाइजेशन, ट्राइफेड, झारखंड का ब्रांड पलास, ऑर्गेनिक खेती, हस्तशिल्प, खाद्य प्रसंस्करण, वनोपज और इको-टूरिज्म जैसे क्षेत्रों में धीरे-धीरे ही सही, कदम रख रहा है. ऐसा करनेवाले आदिवासियों को भारत सरकार भी मदद कर रही है. नेशनल शेड्यूल ट्राइब्स फाइनेंस एंड डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (एनएसटीएफडीसी) ने बीते पांच साल (2020-25) में कुल 16,650 करोड़ रुपए का लोन उन्हें अपना बिजनेस शुरू करने, उच्च शिक्षा में आगे बढ़ने के लिए दिया है. 

एनएसटीएफडीसी चार कैटेगरी में लोन देती है. वो 50 लाख रुपए तक की लागत वाली उद्योग को शुरू करने के लिए 6 फीसदी सालाना ब्याज की दर से कुल लागत का 90 प्रतिशत रकम लोन के तौर पर देती है. वहीं महिलाओं के लिए आदिवासी महिला सशक्तिकरण योजना के तहत 2 लाख रुपए तक की लागत वाली यूनिट के लिए 4 फीसदी सालाना ब्याज पर कुल लागत का 90 प्रतिशत लोन मुहैया कराती है. 

लेकिन इन योजनाओं की पहुंच भी बहुत कम आदिवासियों के पास है. बीते 3 अप्रैल 2025 को संसद में दिए जवाब के मुताबिक आंध्र प्रदेश में बीते पांच साल में एक भी आदिवासी महिला ने 50 लाख वाले लोन के लिए तो दूर, 2 लाख रुपए वाली योजना के लिए भी एप्लाई नहीं किया है. आखिर ऐसा क्यों? 

बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में ट्राइबल आंत्रप्रेन्योरशिप एंड इकॉनोमिक्स कोर्स के विभागाध्यक्ष डॉ आशीष कांत चौधरी कहते हैं, “सरकार जो फंड जारी कर रही है, वो असली लाभार्थी को मिल नहीं रहा है. ये पैसा उनलोगों के पास जा रहा है, जो उनके लिए काम कर रहे हैं.” 

चौधरी अपनी बात आगे बढ़ाते हैं, “ऐसे लोग इनके बीच जाकर इनसे 100 रुपए किलो चिरौंजी (एक आयुर्वेदिक प्रोडक्ट) खरीद लाते हैं और बाजार में उसे 1200 रुपए किलो बेचते हैं.” उनका मानना है कि आदिवासी जिन जगहों पर रहते हैं उनके रिसोर्स का सिविलाइजेशन नहीं हो पाया है. इसलिए ऐसा हो रहा है.  

शिक्षा वजह या कुछ और ? 

क्या इसका एक बड़ा कारण शिक्षा की कमी का होना है? डॉ राजकुमार सिंह गोंड आदिवासी हैं और मध्य प्रदेश के अनुपुर जिले के रहनेवाले हैं. फिलहाल इलाहाबाद विवि के सीएमपी कॉलेज में सहायक प्रध्यापक हैं. वे कहते हैं, “आदिवासियों में लिटरेसी रेट का बहुत कम होना इसकी एक बड़ी वजह है. जो आदिवासी शहरों की तरफ बढ़ गए, उनमें भी शेयर बाजार जैसी चीजों को लेकर कोई रूझान नहीं है क्योंकि उनकी पिछले जेनरेशन ने बड़ी मुश्किल के जॉब सिक्योर किया. अब यह जेनरेशन उसे आगे बढ़ाने में लगी है.’’

वो आगे कहते हैं, “बाकी जो 99 प्रतिशत आदिवासी आबादी है, सरकार उनतक फिलहाल मूलभूत सुविधाएं पहुंचाने में ही पूरी तरह से सफल नहीं हो पा रही है. लेकिन चीजें बदल रही हैं.’’  

झारखंड के जमशेदपुर के रहनेवाले रौशन हेम्ब्रम कंस्ट्रक्शन कंपनी चलाते हैं. उनका सलाना टर्नओवर 50 करोड़ रुपए से अधिक का है. वे अलग राय रखते हैं. उनके मुताबिक मारवाड़ी समाज या सिख समाज कभी सड़कों पर लड़ाई नहीं करता. वह काम करता है. आदिवासियों को अपनी उलझन से बाहर निकल शिक्षा पर सबसे अधिक ध्यान देना होगा. तभी शेयर बाजार की रेस में शामिल हो पाएंगे. 

हालांकि इस मामले में सुधार हो रहा है. एनएसटीएफडीसी उच्च शिक्षा के लिए 6 फीसदी सालाना ब्याज की दर से 10 लाख रुपए तक का लोन मुहैया कराती है. आदिवासी मंत्रालय की ओर से दी गई जानकारी के मुताबिक साल 2020 से 2025 तक में देशभर में कुल 5,91,532 छात्रों ने इसका लाभ लिया है. 

इसके अलावा 18 राज्य और एक केंद्र शासित प्रदेश में रहने वाले 75 ऐसे आदिवासी समूह, जो लगभग खत्म होने के कगार पर हैं, उनके लिए कुल 24,104 करोड़ रुपए के बजट वाला पीएम जनमन योजना की शुरूआत हुई है. 

साथ ही देशभर के 63,843 आदिवासी बहुल गांवों में बुनियादी ढांचो की कमियों को दूर करने के लिए 79,156 करोड़ रुपए का बजट रखा गया है. 

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