पुराने समय में जब वस्तु विनिमय प्रणाली में जटिलताएं सामने आईं, तो करेंसी (मुद्रा) प्रचलन में आई. धीरे-धीरे इस प्रणाली में और सुधार हुआ और आज के समय में यह वैश्विक अर्थव्यवस्था में लेन-देन का सबसे अहम माध्यम बन चुकी है. आज इस बात की गणना की जाती है कि कौन सी देश की मुद्रा कितनी मजबूत है. जिस देश की मुद्रा जितनी ज्यादा ताकतवर होगी, वह देश आर्थिक लिहाज से उतना ही स्थिर और मजबूत होगा.
इसी सिलसिले में फोर्ब्स पत्रिका ने विश्व की दस सबसे मजबूत करेंसी की एक लिस्ट जारी की है, जिसमें कुवैती दीनार को दुनिया की सबसे मजबूत करेंसी बताया गया है. एक कुवैती दीनार 270.23 भारतीय रुपये के बराबर है. अगर इसकी तुलना डॉलर से की जाए तो 1 कुवैती दीनार में 3.25 डॉलर आते हैं. इस सूची में दूसरे नंबर पर बहरीन दीनार है, जिसकी कीमत 220.4 भारतीय रुपये और 2.65 डॉलर है.
अगर डॉलर की बात की जाए तो भले ही दुनिया भर में लेन-देन के लिए व्यापक रूप से इसका इस्तेमाल होता है, लेकिन उसे सूची में अंतिम यानी दसवां स्थान हासिल हुआ है. हालांकि वो प्राइमरी रिजर्व करेंसी के रूप में अपना स्थान बनाए हुए है. ऐसे में सवाल उठता है कि वे क्या वजहें हैं जिनसे किसी देश की करेंसी की मजबूती का पता चलता है? कुवैती दीनार इतनी मजबूत क्यों है? इसका क्या इतिहास रहा है?
रिपोर्ट के मुताबिक, किसी देश की करेंसी की मजबूती का आकलन इस बात से किया जाता है कि उसकी एक इकाई से कितनी वस्तुएं या सेवाएं प्राप्त की जा सकती हैं, साथ ही उससे कितनी विदेशी मुद्राएं प्राप्त की जा सकती हैं. उदाहरण के लिए, एक कुवैती दीनार से 3.25 डॉलर हासिल किए जा सकते हैं. इस लिहाज से यहां कुवैती दीनार, डॉलर के मुकाबले मजबूत स्थिति रखता है.
इसके अलावा उस देश के आर्थिक विकास, राजनीतिक स्थिरता, वैश्विक मांग और प्राकृतिक संसाधन करेंसी की मजबूती और उसके वैल्यू के निर्धारित कारक होते हैं. जहां तक कुवैती दीनार के मजबूती की बात है, 1961 में अपनी शुरुआत के बाद से ही यह दुनिया की सबसे मूल्यवान मुद्रा बनी हुई है. इस सफलता के पीछे का कारण कुवैत की आर्थिक स्थिरता है, जो इसके तेल भंडार और कर-मुक्त प्रणाली द्वारा संचालित है.
हालांकि 1950 के दशक तक संयुक्त अरब अमीरात (यूएई), कुवैत, बहरीन, ओमान और कतर (तब इन्हें ट्रूशियल स्टेट्स कहा जाता था) में भारतीय रुपया चलता था. यह प्रणाली अंग्रेजों द्वारा लागू की गई थी. भारत को आजादी मिलने के बाद भी यह व्यवस्था चालू रही, क्योंकि भारतीय रिजर्व बैंक के लिए यह एक अनुकूल व्यवस्था थी. तब खाड़ी देश पाउंड स्टर्लिंग के साथ भारतीय मुद्रा का विनिमय करते थे. हालांकि यह व्यवस्था ज्यादा दिन नहीं चल सकी.
दरअसल, सोने के तस्करों ने अपने फायदे के लिए इस प्रणाली का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. वे व्यापार के नाम पर लोगों को भारतीय रुपयों के साथ खाड़ी देशों में भेजते, और वापसी में सोना मंगाते. इससे खाड़ी देशों में भारतीय रुपयों की मौजूदगी ज्यादा हो जाती, और वहां के लोग पाउंड स्टर्लिंग के बदले इसे रिजर्व बैंक में जमा कराते. इसका नतीजा यह हुआ कि रिजर्व बैंक के सामने विदेशी मुद्रा का संकट पैदा होने लगा. साल 1959 तक जब देश में सोने की तस्करी काफी बढ़ गई, तो सरकार ने तरकीब लगाई और एक नई करेंसी सामने आई.
साल 1959 में ही संसद में एक नया बिल 'भारतीय रिजर्व बैंक (संशोधन) अधिनियम, 1959' पेश हुआ, जिसे 1 मई, 1959 को, तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने कानून बनने के लिए सहमति दे दी. इस कानून ने सरकार और आरबीआई को विशेष नोट जारी करने की अनुमति दी, जो केवल खाड़ी क्षेत्र में जारी किए जाने वाले थे. इस करेंसी का मूल्य भारतीय रुपये के ही समान था. विशेष करेंसी के रूप में जारी इस मुद्रा को 'गल्फ रुपी' (खाड़ी रुपया) या बाहरी रुपया कहा गया.
19 जून, 1961 को जब कुवैत को ब्रिटेन से स्वतंत्रता मिली, तो कुवैत ने अपनी एक नई करेंसी भी जारी की. यह वो दौर था जब भारत की आर्थिक वृद्धि सुस्त चल रही थी, और खाड़ी देशों का उभार शुरू होने वाला था. अब भी गल्फ रुपया खाड़ी देशों में चल रहा था, और हज यात्रा करने वाले लोग इसका इस्तेमाल कर रहे थे. लेकिन जून, 1966 में तत्कालीन वित्त मंत्री सचिंद्र चौधरी ने इंदिरा गांधी से सलाह-मशविरे के बाद रुपए के अवमूल्यन का फैसला किया. परिणाम यह हुआ कि रातों-रात डॉलर की विनिमय दर 4.76 रुपये से बढ़कर 7.5 रुपये हो गई.
पर इसका सिर्फ इतना ही असर नहीं हुआ. कतर और दुबई ने भारतीय रुपये के अवमूल्यन के कुछ महीनों के भीतर गल्फ रुपये को प्रचलन से वापस ले लिया. दोनों राज्यों ने अस्थायी रूप से सऊदी रियाल का उपयोग शुरू कर दिया. इसके बाद उन्होंने कतर और दुबई रियाल का भी उपयोग किया, जिनकी वैल्यू अवमूल्यन-पूर्व भारतीय रुपये के समान थी. धीरे-धीरे अधिकांश खाड़ी देशों ने इसी का अनुसरण किया.
कुवैत ने तो साल 1961 में ही अपनी करेंसी जारी कर दी थी. बाद के समय में जब खाड़ी देशों का उभार होना शुरू हुआ और तेल की वजह से इलाका काफी फल-फूल गया, तो कुवैती दीनार में काफी मजबूती आई. साल 1990 में जब इराक ने कुवैत पर हमला कर उस पर सात महीनों के लिए कब्जा जमा लिया, तो कुवैती दीनार में कुछ अस्थिरता आई. लेकिन उसके बाद से यह लगातार दुनिया की सबसे मूल्यवान करेंसी बनी हुई है.