
साल 2015 में ‘मसान’ से करीबन पूरी दुनिया को चौंकाने के बाद इसके निर्देशक नीरज घेवान कई बरसों तक पर्दे से गायब रहे. या कहिए साधना करते रहे. और अब दस साल बाद नीरज जिस जादू के साथ लौटे हैं उसका नाम है ‘होमबाउंड’. बीच के किसी साल नीरज ने चार कहानियों की सुंदर फिल्म ‘अजीब दास्तान्स’ में अपने हिस्से की कमाल कहानी ‘गीली पुच्ची’ से मुनादी पीटी थी कि मैं वापस आऊंगा. नीरज वापस आए हैं, और उनके साथ पर्दे पर वापस आई हैं वे संवेदनाएं जिन्हें अब गुमशुदा मान लिया गया था.
होमबाउंड कहानी है तीन किरदारों चंदन, शोएब और सुधा की. जो हाशिए से मुंह फेरे गुलाबी नींद में करवट बदल रहे समाज को न सिर्फ जगाते हैं, बल्कि उनके सपने में अपना दखल पत्थर की लकीर की तरह दर्ज करते हैं. बहुत समय के बाद सिनेमाघरों में एक ऐसी फिल्म की आमद हुई है जिसे हर मुमकिन कीमत पर देखा जाना चाहिए. बतौर दर्शक भी और बतौर नागरिक भी.
किस बारे में है फिल्म?
हर उस बारे में, जिस पर बात होनी चाहिए. एक मुस्लिम लड़का शोएब और एक दलित लड़का चंदन अपनी पहचान से छुटकारा पाना चाहते हैं. वह पहचान, जिसकी वजह से बार-बार इन दोनों को ये बताया जाता है कि ‘तुम लोग’ हमारे समाज का हिस्सा नहीं हो सकते. अपनी जद में जो एक पहचान इन्हें हासिल होती हुई दिखाई देती है वो है वर्दी की पहचान. जिसे एक बार शरीर पर पहन लेने के बाद इन्हें वह आम जन का दर्जा हासिल होता जो किसी गैर-मुस्लिम और गैर-दलित को अपने जीवन में सहज ही हासिल है. फिल्म में एक जगह सीन आता है जब दलित लड़का चंदन पुलिस भर्ती का फॉर्म जनरल कैटेगरी से भरता है. उसकी लाचारी को ऐतिहासिक तरीके से दर्ज करते हुए वह कहता है, "सही नाम लिखता हूं तो दूसरों से दूर हो जाता हूं. झूठा नाम लिखता हूं तो ख़ुद से दूर हो जाता हूं."
होमबाउंड एक जबरदस्त पॉलिटिकल स्टेटमेंट है. अधिकार की वह लड़ाई जिसमें हर दिन अनगिनत शोएब और चंदन ईंधन बन जाते हैं. कैसे एक मामूली सा सपना लेकर चल रहे लड़के एक गैर-मामूली जरूरत की तरफ आपका ध्यान खींचते हैं इसका एक शाहकार नमूना है ये फिल्म.
ईशान खट्टर और विशाल जेठवा ने अपने गजब के काम से ये साबित किया है कि उम्मीद हमेशा जिंदा रहती है. तमाम फ़ॉर्मूला और सेट नैरेशन के बीच भी खोजने से उम्मीद का जुगनू हासिल हो ही जाता है. ईशान इससे पहले भी अपने काम से खुद को साबित कर चुके हैं लेकिन विशाल जेठवा के लिए यह ऐसा मौका है जो उनके करियर को सीधा एक गियर अप करता है. अब कायदे का सिनेमा बनाने वाले हर निर्देशक की लिस्ट में विशाल जेठवा का नाम पक्की सियाही से दर्ज मिलना चाहिए. जाह्नवी कपूर ने बेशक अपने करियर के सबसे उम्दा किरदारों में से एक को पर्दे पर जिंदा कर दिया है.

मौत का दर्शन जब जीवन से हाथ मिलाता है
कभी किसी दार्शनिक ने कहा था कि जवान लोग बूढ़ों को इसलिए नज़रअंदाज करते हैं क्योंकि उनकी झुकती और निरीह काया नौजवानों को याद दिलाती है ‘अंत यही है’...और अंत के बारे में कोई भी सोचना नहीं चाहता. महाभारत के यक्ष युधिष्ठिर संवाद में जब यक्ष पूछता है कि ‘आश्चर्य क्या है?’ तब युधिष्ठिर कहते हैं कि हर क्षण अपने आस-पास मरते हुए लोगों को देखकर भी मनुष्य कभी मौत के बारे में नहीं सोचता यही आश्चर्य है. ठीक इसी तरह सिर्फ भारत ने ही नहीं, पूरी दुनिया ने 21वीं सदी की सबसे भयावह विभीषिका को भुला दिया. कोविड महामारी को हम ऐसे भूले जैसे ये हमारा कोई बुरा सपना थी. क्योंकि हम खाने अघाने और बेनतीजा दौड़ के बीच ये सोचना ही नहीं चाहते कि इंसान बुलबुले की तरह एक क्षण में समाप्त हो सकता है.
यही वजह थी कि कोविड महामारी को सिनेमा में इस तरह डॉक्यूमेंट नहीं किया गया जिससे आने वाली पीढ़ी, या हमारी पानी पीढ़ी कभी पलटकर देख सके कि आखिर हुआ क्या था. सोचिए कि इसी स्मृति विलोप से अगर विश्व युद्धों के बाद की पीढ़ी पीड़ित होती तो हिटलर के डेथ कैम्प सिर्फ किस्सों में जिंदा होते जिन्हें अपनी सुविधानुसार भूला और याद किया जा सकता था.
होमबाउंड आपको ना चाहते हुए भी किसी परिचित के दाह संस्कार में ले जाकर श्मशान के ठीक बीच खड़ा कर देती है, जहां एक दो नहीं अनगिनत लाशें जल रही हैं. मानव मन की कुटिल आग में वे संभावनाएं राख हो रही हैं जिनसे हमारी दुनिया और बेहतर होनी थी.
कोविड महामारी का एक बेहद ज़रूरी और कलात्मक आख्यान बनकर इस फिल्म ने हिंदी सिनेमा को एक ग्लानि से मुक्त किया है. इसके लिए पूरी सिनेमा बिरादरी नीरज घेवान के एहसान पर जिंदा रहेगी. नीरज अब चाहे जितने वर्षों का अज्ञातवास लें, उन्हें फिर भी याद किया जाता रहेगा एक ऐसे सजग निर्देशक के तौर पर जिसने आगे बढ़कर जिम्मेदारी ली और क्या कमाल तरीके से निभाई.

सिनेमा की वजह याद आती है
हम सब धीरे-धीरे ये भूल चुके थे या भूलने पर विवश कर दिए गए थे कि आखिर सिनेमा का काम क्या है? अगर थिएटर से बाहर निकलते हुए वह आपके व्यक्तित्व में कोई नया आयाम नहीं जोड़ता, आपकी जेब में चुपके से कोई नया सवाल नहीं रखता, तो भुने हुए मकई के दानों और तेजाबी चीनी के साथ जो आपने जज्ब किया उसका कोई अर्थ था?
होमबाउंड देखी जानी चाहिए. इसलिए नहीं कि इससे सार्थक सिनेमा को ताकत मिलेगी और वह फिर लौटकर हमें और अच्छा इंसान बनाएगा... बल्कि इसलिए क्योंकि हम भूल रहे हैं. नकली हंसी और बेहूदे भाषणों के बीच हम भूल रहे हैं कि हम असल में क्या थे? और क्या बन गए हैं.
ये याद आ सकना भी कम बड़ा हासिल नहीं होगा, भरोसा रखिए.