चाहते तो वे उस 'दृश्य' को नजरअंदाज करके भी निकल सकते थे. आखिर किसी भी मुंबईकर के लिए वह एक आम नजारा ही तो था - मॉनसून का समय और मायानगरी में झमाझम होती बारिश. उस दिन भी सड़कों पर साइकिल से लेकर बाइक और कारों का रेला था. और तिस पर बात ये कि दफ्तर से थके हारे लौटते लोगों को भला दूसरों के बारे में सोचने का मौका कहां मिलता है.
लेकिन इस आम सोच के साथ शायद रतन टाटा नहीं बना जा सकता! वह साल 2003 का अगस्त महीना था. मुंबई की ऐसी ही एक भीगी शाम में रतन टाटा फ्लोरा फाउंटेन में अपने दफ्तर बॉम्बे हाउस से घर लौट रहे थे. रास्ते में उन्होंने एक युवा दंपति को अपने दो बच्चों के साथ स्कूटर पर देखा और गीली सड़क पर दुर्घटना का जोखिम उनके दिमाग में कौंध गया. यही दृश्य 'नैनो' के लिए एक भव्य आइडिया की शुरुआत बन गया.
इंडिया टुडे ने रतन टाटा के दिमाग की उपज नैनो कार (जिसे लोकप्रिय रूप से 'लखटकिया' भी कहा जाता है) पर जनवरी, 2008 में एक कवर स्टोरी छापी थी. उसमें संवाददाता शंकर अय्यर लिखते हैं, "जब रतन टाटा के मन में छोटी कार का विचार उपजा तो उन्होंने एक हफ्ते बाद पुणे में टाटा मोटर्स के संयंत्र के दौरे के दौरान प्रबंध निदेशक रवि कांत के सामने अपने विचार रखे. उनकी पहली जिज्ञासा यही थी कि 'क्या दुपहिया स्कूटर को सुरक्षित बनाया जा सकता है'?"
तब टाटा ने अय्यर को बताया था कि उनकी जो पहली कल्पना थी, वह एक दुपहिया वाहनों के रेखाचित्र (डूडल) थे जिसके चारों तरफ गिरने से बचने के लिए बाड़ होती और मौसम से बचाव के लिए छत. यहां यह जानना दिलचस्प है कि टाटा ने साल 1959 में कॉर्नेल विश्वविद्यालय से आर्किटेक्चर (वास्तुकला) की पढ़ाई की थी. नैनो बनाने के शुरुआती आइडिया के बारे में उन्होंने मई 2022 की अपनी एक इंस्टाग्राम पोस्ट में विस्तार से बताया था.
उस पोस्ट में उन्होंने लिखा, "स्कूल ऑफ आर्किटेक्चर में होने का एक फायदा यह था कि इसने मुझे खाली समय में डूडल बनाना सिखाया. सबसे पहले हम यह पता लगाने की कोशिश कर रहे थे कि दोपहिया वाहनों को कैसे सुरक्षित बनाया जाए. डूडल चार पहियों वाले बन गए जिसमें कोई खिड़कियां नहीं थी, कोई दरवाजे नहीं थे. वह बस एक साधारण ड्यून बग्गी की तरह थी. लेकिन मैंने आखिरकार तय किया कि यह एक कार होनी चाहिए."
अपनी स्टोरी में अय्यर लिखते हैं, इसके बाद 500 लोगों की टीम (जिसमें संयंत्र को स्थापित करने वाले भी शामिल थे) ने चार साल तक इस पर विचार किया. बेशक पहले जो विचार उनके दिमाग में आए वे दरवाजा रहित चार सीटों वाले वाहन के थे, जो कार कम चार पहियों वाली साइकिल अधिक थी. रिक्शा की तरह धूप-बारिश से बचाव के लिए प्लास्टिक और किसी नए मैटिरियल के इस्तेमाल बनी.
बहरहाल, इधर आइडिया को मूर्त रूप देने पर मगजमारी चल ही रही थी, उधर प्रतिस्पर्धियों के घुस आने का भी खतरा था. अय्यर लिखते हैं, "पूरे मुकाबले में जिसमें जापानी और कोरियाई दिग्गज शामिल थे, शानदार डिजाइन और नई कीमतों के मामले में माहिर प्रतिस्पर्धियों ने लखटकिया कार की संकल्पना का ही उपहास उड़ा दिया. उनका कहना था, यह असंभव है. सुजुकी मोटर्स के अध्यक्ष ओसामा सुजुकी ने मजाक उड़ाते हुए कहा - यह कोई तिपहिया होगी या स्टेपनी."
अलावा इसके, चुनौतियां और भी थीं जैसे, लागत बढ़ने का मामला था. मिसाल के लिए 2008 के पिछले पांच सालों में कच्चे तेल की कीमतें प्रति बैरल 800 रुपये से पांच गुना बढ़कर 4000 रु. के उच्च स्तर पर बढ़ गई थीं. इस्पात भी बहुत महंगा हो गया था. ऐसे में सस्ती और पर्यावरण के लिए अनुकूल कार का निर्माण करना आसान नहीं था.
रतन टाटा ने कहा, वादा तो वादा होता है
जनवरी, 2008. दिल्ली की उस सर्द सुबह में सैकड़ों पत्रकार, व्यवसायी, मंत्री आदि ऑटो एक्सपो में जमा हुए थे. हॉल नंबर 11 खचाखच भरा हुआ था. भीड़ इतनी थी कि खड़े होने की भी जगह नहीं थी. एक्सपो के लिए लोगों में उत्सुकता थी, लेकिन यह किसी बड़ी लग्जरी गाड़ी सेडान या किसी प्रीमियम एसयूवी के लिए नहीं था. बल्कि यह एक छोटी कार के लिए थी जिसे "लखटकिया" कहा जा रहा था.
कार्यक्रम शुरू हुआ. हॉल में संगीत बज रहा था. तभी लोगों के जबरदस्त शोरगुल के बीच स्क्रीन पर लखटकिया कार की झलक दिखाई देने लगी. ये वही कार थी जिसके बारे में सभी ने कहा था कि इसे बनाना संभव नहीं है. कई लोगों ने मजाक में कहा था कि यह एक शानदार 'ऑटो रिक्शा' होगा और यह काफी असुविधाजनक होगा. सबसे अहम बात कि इस कीमत पर कार बनाना संभव ही नहीं है.
लेकिन रतन टाटा का अपने देशवासियों से वादा था - सबसे सस्ती कीमत पर कार उपलब्ध कराने का. नैनो से पहले दुनिया की सबसे सस्ती कार चीन की क्यूक्यू3 थी, जिसकी कीमत तब दो लाख रु. के करीब थी. लेकिन नैनो महज एक लाख रुपये में लोगों की अपनी गाड़ी हो सकती थी. बहरहाल, लोगों की जबरदस्त चीयर्स के बीच टाटा ने छोटी सफेद कार को मंच पर उतारा. 624 सीसी इंजन और करीब 20 किमी प्रति लीटर की माइलेज वाली यह कार सुरक्षा के लिहाज से भी अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुकूल थी.
यह छोटी कार बाहर से तो छोटी थी, लेकिन अंदर से बड़ी थी. केबिन में चार यात्री बैठ सकते थे और चार दरवाजों से प्रवेश किया जा सकता था. इसके अलावा, इसमें एसी भी था. टाटा नैनो का निर्माण इंजीनियरिंग का एक चमत्कार था क्योंकि इंजन पीछे की तरफ लगा था और इससे केबिन में काफी जगह खाली हो गई थी. टाटा ने जब लॉन्चिंग के अवसर पर रवि कांत और गिरीश वाघ के नेतृत्व वाली अपनी टीम को आमंत्रित किया, तो यह भारतीय प्रतिभा के अभिनंदन के साथ-साथ उन लोगों को भी करारा जवाब था जो इसे असंभव बता रहे थे.
लॉन्चिंग के वक्त रतन टाटा ने कहा कि प्रोजेक्ट शुरू होने के बाद से इसकी मैन्यूफैक्चरिंग लागत में काफी बढ़ोत्तरी हुई है, लेकिन नैनो का स्टैंडर्ड वर्जन एक लाख रुपये की कीमत में ही आएगा. वहां मौजूद लोग टाटा की यह बात सुनकर तब और खुशी से पागल हो गए जब उन्होंने कहा, "ऐसा कहने के बाद मैं बस इतना कहना चाहता हूं कि वादा तो वादा होता है."
लेकिन वादा तो टूट जाता है!
नैनो की लॉन्चिंग के बाद इसकी शुरुआती बुकिंग में उछाल देखने को मिला. लेकिन जल्द ही विवाद भी शुरू हो गए. सबसे अहम विवाद इसके निर्माण संयंत्र के स्थान को लेकर हुआ. बिजनेस टुडे की एक रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2006 में पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की तत्कालीन वाम मोर्चा सरकार ने नैनो फैक्ट्री स्थापित करने के लिए टाटा मोटर्स को सिंगूर में करीब 1,000 एकड़ जमीन देने की पेशकश की थी.
सरकार का उद्देश्य राज्य में औद्योगिक विकास लाना था. हालांकि, स्थानीय किसानों और छोटे राजनीतिक समूहों ने उपजाऊ भूमि के अधिग्रहण का विरोध किया. शुरुआती प्रतिरोध के बावजूद, अधिग्रहण पूरा हो गया और प्लांट का निर्माण शुरू हो गया.
लेकिन 2007 में तत्कालीन विपक्षी नेता और अब राज्य की सीएम ममता बनर्जी ने भूमि अधिग्रहण के खिलाफ एक उग्र आंदोलन शुरू किया. इसमें राज्य के फैसले को चुनौती दी गई. सिंगूर में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के कार्यकर्ताओं की पुलिस से झड़प के बाद उनका अभियान और तेज हो गया. बनर्जी की 26 दिन की भूख हड़ताल ने समूचे राष्ट्र का ध्यान अपनी ओर खींचा, पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने भी उनका समर्थन किया और उनके राजनीतिक प्रभाव को बढ़ाया.
नतीजा यह हुआ कि राज्यपाल गोपालकृष्ण गांधी द्वारा किए गए तमाम प्रयास, और सुलह की सारी कोशिशें उस कायम गतिरोध को हल करने में विफल रहीं. विरोध प्रदर्शन बढ़ने और तनाव बढ़ने के कारण टाटा मोटर्स ने सिंगूर प्रोजेक्ट को छोड़ने का फैसला किया. तीन अक्टूबर 2008 को रतन टाटा ने घोषणा की कि नैनो का प्रोडक्शन गुजरात के साणंद में स्थानांतरित किया जाएगा, जहां तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसका खुले दिल से स्वागत किया था.
लेकिन इस समाधान के बाद भी नैनो की मुश्किलें खत्म नहीं हुईं. मशीनी समस्याएं जैसे - कारों में आग लगने की रिपोर्ट और सुरक्षा संबंधी चिंताओं ने इसकी प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाया. हालांकि इन सब में, सबसे ज्यादा नुकसानदायक यह धारणा थी कि नैनो एक "गरीब आदमी की कार" थी. यह एक ऐसा लेबल था जिसे हटाना मुश्किल साबित हुआ.
2013 के एक साक्षात्कार में खुद टाटा ने इसे एक ब्रांड इश्यू बताया. उन्होंने इसे 'धब्बे' के रूप में चित्रित किया जिसने कार की इमेज को नुकसान पहुंचाया. उन्होंने स्वीकार किया, "जब कंपनी इसका मार्केटिंग कर रही थी तब मेरे द्वारा नहीं, बल्कि हमारी कंपनी द्वारा इसे लोगों के लिए सबसे सस्ती कार बताया गया. मुझे लगता है कि यह दुर्भाग्यपूर्ण था." उनका मानना था कि नैनो की मार्केटिंग दोपहिया वाहन मालिकों के लिए एक किफायती, सभी मौसम में चलने वाले वाहन के रूप में की जानी चाहिए थी, न कि इसकी कम कीमत पर जोर दिया जाना चाहिए था.
बहरहाल, तमाम प्रयासों के बावजूद नैनो का बाजार प्रदर्शन गिरता रहा. 2019 तक टाटा मोटर्स ने कार का प्रोडक्शन पूरी तरह से बंद कर दिया था. यह एक ऐसे शानदार प्रोजेक्ट का शांत अंत था, जिसने कभी बहुत सारे वादे किए थे. हालांकि नैनो आखिरकार अपने महत्वाकांक्षी लक्ष्यों को प्राप्त करने में विफल रही, लेकिन रतन टाटा का लाखों भारतीयों के लिए कार का विजन किसी ऐसे सपने की तरह था जो बहुत हसीन था.