
कांग्रेस के गठन को तब 17 साल हो चुके थे. संगठन में ऐसे गुट का दबदबा था जो यह मानता था कि भारत में अंग्रेजी हुकूमत एक दैवीय विधान है. यह एक ऐसा नजरिया था जिससे आजादी की लौ लहलहाने के बजाय भुकभुका कर ही जल सकती थी. साथ ही, इस नजरिए को लेकर एक वर्ग में रोष भी लगातार फैल रहा था. यह गरम दल था जिसमें लाल-बाल-पाल की जोड़ी लगातार युवाओं को आकर्षित कर रही थी.
क्रांतिकारी विचारों से लैस एक युवक को भी यह लगातार महसूस हो रहा था कि नरमपंथियों का तरीका बहुत ही संकुचित और सीमित है. उसने पुणे से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र 'इंदु प्रकाश' में 'न्यू लैम्पस फॉर ओल्ड' नाम से सिरीज में लेख लिखे और नरमपंथी नेताओं की याचिकाओं और प्रार्थनाओं की राजनीति की जमकर आलोचना की. इस विचारवान युवक का नाम था - अरबिंदो घोष, जो आगे चलकर भारतीय स्वतंत्रता इतिहास में एक बड़ा नाम बनने वाला था. लेकिन ये सब शुरू कहां से हुआ था.

साल 1872 में कोलकाता के एक संपन्न परिवार में अरबिंदो घोष का जन्म हुआ था. पिता कृष्णधन घोष एक जाने-माने डॉक्टर थे और पाश्चात्य संस्कृति के बड़े पैरोकारों में से एक. पिता चाहते थे कि बेटा भी पढ़-लिख कर बड़ा आदमी बने. पांच साल के अरबिंदो को पढ़ने के लिए दार्जिलिंग के एक क्रिश्चियन कॉन्वेंट स्कूल में भेज दिया गया. इसके बाद वे उच्च शिक्षा के लिए लंदन गए, जहां उन्होंने कैंब्रिज विश्वविद्यालय से भी पढ़ाई की. पिता के कहने पर अरबिंदो ने आईसीएस (भारतीय सिविल सेवा) की परीक्षा भी दी लेकिन घुड़सवारी की परीक्षा पास न कर सके और अधिकारी बनते-बनते रह गए.
1892 में अरबिंदो वापस देश लौट रहे थे. ये वो समय था जब तीव्र राष्ट्रवाद की चर्चा जोरों पर थी. बंकिमचंद्र चटर्जी, स्वामी विवेकानंद, दयानंद सरस्वती जैसे लोग भारतीयों को लगातार जागरूक कर रहे थे. स्वदेश वापसी पर अरबिंदो की प्रतिभा देख गायकवाड़ के राजा ने उन्हें अपना निजी सचिव बना लिया. इस बीच अरबिंदो लगातार भारतीय इतिहास और दर्शनशास्त्र का अध्ययन कर रहे थे. 20वीं सदी की शुरुआत हो चुकी थी. कांग्रेस में भी एक नया धड़ा आकार ले रहा था, इसे गरम दल कहा जा रहा था.
साल 1902. अहमदाबाद का कांग्रेस अधिवेशन. तब तक कांग्रेस में मतभेद खुल कर सामने नहीं आया था. इस बीच बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, विपिन चंद्र पाल जैसे नेता अपने तेवरों के कारण देश में काफी लोकप्रिय हो चुके थे. उस अधिवेशन में अरबिंदो की मुलाकात बाल गंगाधर तिलक से हुई और घोष उनसे काफी प्रभावित हुए. इस बीच देश में अनुशीलन समितियों का भी असर दिखने लगा था. अरबिंदो के क्रांतिकारी भाई बारीन्द्र घोष खुद समिति में काम करते थे. बारीन्द्र ने अरबिंदो को समिति के कई लोगों से मिलाया जिनमें बाघा जतिन, जतिन बनर्जी, सुरेंद्र नाथ टैगोर जैसे लोग थे. तब तक बंगाल विभाजन का शोर सुनाई देने लगा.

बंगाल के गवर्नर लॉर्ड कर्जन ने साल 1905 में बंगाल को दो हिस्सों में बांटने का आदेश दिया. पूरे भारत में इसका तीव्र विरोध हुआ. बंगाल में यह गुस्सा और ज्यादा था. अरबिंदो ने नौकरी छोड़ बड़ौदा से कोलकाता का रुख किया. बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय की किताब से सूत्र वाक्य लेकर पत्रिका शुरू की. 'वंदे मातरम्' नाम की इस पत्रिका ने लोगों के मन में जल रही आग को शोला बनाने का काम किया. मुरारीपुकुर गार्डन हाऊस, जो अरबिंदो का निज निवास था, वह क्रांतिकारियों का अड्डा बन गया. वहां आगे के कमरों में कीर्तन होता, पीछे बम बनाने की प्रक्रिया चलती. मुखबिरों ने अंग्रेजों को यह सूचना दी. अरबिंदो गिरफ्तार हुए. उनपर देशद्रोह का आरोप लगाया गया.
उस दौरान अनुशीलन समिति के कार्यकर्ता बम बनाते और अंग्रेज दुष्ट अधिकारियों को अपना निशाना बनाने की ताक में रहते. इस बीच सूरत अधिवेशन के दौरान कांग्रेस दो धड़ों में बंट चुकी थी. इस शून्यता में क्रांतिकारी लगातार अंग्रेजों के खिलाफ आग उगल रहे थे. तभी अलीपुर बम कांड के आरोप में साल 1908 में अरबिंदो सहित कई क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया. मुकदमा चला. क्रांतिकारियों की तरफ से वकील चितरंजन दास ने केस लड़ा. अंग्रेजों की पुरजोर कोशिशों के बावजूद अरबिंदो के खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं मिले. वे रिहा हो गए लेकिन उनके भाई बारींद्र को फांसी की सजा हुई जो आगे जाकर उम्रकैद में बदल गई.

अलीपुर बम कांड केस में जेल में रहने के दौरान अरबिंदो में आमूलचूल बदलाव हुए. वे यकायक अध्यात्म की ओर मुड़ गए थे. साल 1910 में अरबिंदो पांडिचेरी चले गए जो उस समय फ्रांस का उपनिवेश हुआ करता था. 1926 में वहां उन्होंने अरबिंदो आश्रम बनाया. उन्होंने वहां कई किताबें लिखीं. इनमें 'द लाइफ डिवाइन' (दिव्य जीवन) उनकी सबसे प्रमुख कृति रही, जो विश्व साहित्य में स्थान रखती है. एक समय अपने ओजस्वी लेखों से देश-दुनिया में छाने वाले इस महान क्रांतिकारी की कलम अब भी चल रही थी लेकिन विषय अब दर्शनशास्त्र के थे, मानव कल्याण के थे. उनके दर्शन की बानगी देखिए,
"जैसे मानव प्रजाति जानवरों की प्रजातियों के बाद विकसित हुई है, उसी प्रकार मानव प्रजातियों से आगे बढ़कर दुनिया विकसित हो सकती है और नई प्रजातियों के साथ एक नई दुनिया का निर्माण हो सकता है"
साल 1950 में आज ही के दिन यानी 5 दिसंबर को इस महान क्रांतिकारी, संत और दार्शनिक का देहावसान हो गया.