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जब मोरारजी देसाई पर अमेरिकी खुफिया एजेंसी CIA का मुखबिर होने के आरोप लगे

मोरारजी देसाई के CIA का मुखबिर होने का दावा एक अमेरिकी पत्रकार ने किया था

मोरारजी देसाई
मोरारजी देसाई
अपडेटेड 1 मार्च , 2025

साल 1983 में देश के कई बड़े अख़बारों की सुर्ख़ियों में मोरारजी देसाई का नाम आने लगा जब एक अमेरिकी पत्रकार सेमुर हर्श ने उनपर अपने देश की खुफिया एजेंसी CIA का एजेंट होने के आरोप लगाए. अपनी किताब 'द प्राइस ऑफ पावर' में पुलित्जर पुरस्कार विजेता पत्रकार ने आरोप लगाया था कि देसाई CIA के 'सबसे महत्वपूर्ण' मुखबिर थे और 1971 में भारत-पाक युद्ध के दौरान सूचना देने के लिए एजेंसी उन्हें 20,000 अमेरिकी डॉलर प्रति वर्ष का भुगतान करता थी.

इंदिरा गांधी की उस वक्त दोबारा सरकार बन चुकी थी और मोरारजी देसाई अब 'पूर्व' प्रधानमंत्री हो चुके थे. इंद्रजीत बधवार ने 1983 की अपनी इंडिया टुडे मैगजीन की रिपोर्ट में लिखा, "पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को पिछले पखवाड़े जिस चीज की सबसे ज्यादा जरूरत थी, वह सिर्फ ईश्वर में आस्था नहीं बल्कि अपने साथी देशवासियों में आस्था थी, क्योंकि वे अपने 53 साल के राजनीतिक जीवन के सबसे बड़े तूफान से जूझ रहे थे."

इंडिया टुडे मैगजीन का 1 जून, 1983 का अंक
इंडिया टुडे मैगजीन का 1 जून, 1983 का अंक

क्या था सेमुर हर्श की किताब में?

अपनी पुस्तक में, सेमुर हर्श ने 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के संदर्भ में मोरारजी देसाई का जिक्र किया. उनका दावा था कि देसाई की दी हुई जानकारी की वजह से अमेरिका ने भारत के खिलाफ, विशेष रूप से बांग्लादेश के मामले में, कड़ा रुख अपनाया. हर्श के अनुसार, लिंडन बी. जॉनसन (36 वें अमेरिकी राष्ट्रपति) प्रशासन के दौरान देसाई CIA के लिए एक सहायक थे और कथित तौर पर उनकी सेवाओं के लिए उन्हें प्रति वर्ष 20,000 डॉलर का भुगतान किया जाता था.

हालांकि, कई तथ्यात्मक गड़बड़ियों के कारण हर्श के आरोपों की विश्वसनीयता पर सवाल भी उठाए गए. इंडिया टुडे की 1983 की रिपोर्ट में इंद्रजीत बधवार, दिलीप बॉब और कूमी कपूर ने बताया था कि हर्श की टाइमलाइन भ्रामक है, क्योंकि देसाई को 1969 में ही प्रमुख राजनीतिक पदों से हटा दिया गया था और इस प्रकार वे 1971 के युद्ध के दौरान अहम जानकारियां नहीं दे सकते थे. इसके अलावा, एक कैबिनेट मंत्री के लिए 20,000 डॉलर के भुगतान का दावा अविश्वसनीय लगता है. साथ ही रिपोर्टर्स ने यह भी कहा कि हर्श के स्रोत मुख्य रूप से CIA से थे जो हमेशा विश्वसनीय नहीं होते.

गुलजारीलाल नंदा और चरण सिंह जैसे भारतीय राजनीतिक हस्तियों ने मोरारजी देसाई पर लगे इन आरोपों को खारिज कर दिया, जबकि भारत सरकार इस मामले पर चुप रही. वाशिंगटन में भारतीय दूतावास की ओर से कोई टिप्पणी न किए जाने से दावों के इर्द-गिर्द रहस्य थोड़ा गहरा हो गया था.

इंडिया टुडे की रिपोर्ट के मुताबिक, "इसका एक कारण यह हो सकता है कि इंदिरा गांधी और देसाई वास्तव में अच्छे दोस्त नहीं थे. कट्टर राजनीतिक विरोधी होने के अलावा, देसाई ने उनके प्रति अपना गहरा अविश्वास और नापसंदगी जताने को लेकर कभी कोई संकोच नहीं दिखाया. लेकिन हर्श का आरोप इतना गंभीर था कि व्यक्तिगत नापसंदगी आधिकारिक टिप्पणी के आड़े नहीं आ सकती थी."

भारत में एक कैबिनेट मंत्री के CIA के पेरोल पर होने का दावा करने वाली रिपोर्टें, जिनमें निक्सन और किसिंजर की जीवनी में संदर्भ शामिल हैं, पहले भी सामने आई हैं. लेकिन यह दावा कि वह मोरारजी देसाई थे, अत्यधिक संदिग्ध है. हर्श के मुताबिक उनके पास जानकारी थी कि कैसे देसाई को CIA ने अपने पाले में किया और अलग-अलग प्रोजेक्ट में उनकी भागीदारी थी. हालांकि उनके आरोप तथ्यों से मेल नहीं खाते थे.

मोरारजी देसाई, अपने कम्युनिस्ट विरोधी रुख के बावजूद, कभी भी सोवियत विरोधी नहीं रहे और उन्होंने 1968 में परमाणु अप्रसार संधि जैसे कुछ अमेरिकी प्रोजेक्ट्स का भी कड़ा विरोध किया. उन्होंने नंदा देवी पर्वत पर चीन की जासूसी के लिए परमाणु डिवाइस की तैनाती और तिब्बत के खम्पा विद्रोहियों के प्रशिक्षण सहित भारत में CIA के ऑपरेशन का भी विरोध किया था. अपनी किताब में हर्श ने बताया कि पाकिस्तान से युद्ध के दौरान देसाई के पास कैबिनेट के भीतर विश्वसनीय स्रोत थे, लेकिन यह भी तथ्य है कि इंदिरा गांधी ने कैबिनेट के साथ संवेदनशील जानकारी साझा नहीं की थी, और उनके करीबी लोग देसाई के खिलाफ थे. भारत में काम करने वाले अमेरिकी अधिकारियों, जिनमें पूर्व राजदूत और CIA स्टेशन प्रमुख शामिल थे, ने भी हर्श के आरोपों को खारिज कर दिया, और उनकी वैधता पर सवाल उठाया.

अपने खिलाफ लगे आरोपों पर मोरारजी देसाई ने क्या किया?

मोरारजी देसाई ने हर्श के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की. उन्होंने 1984 में अमेरिका में मानहानि का मुकदमा दायर किया, जिसमें हर्श की पुस्तक में किए गए दावों से उनकी प्रतिष्ठा को हुए नुकसान के लिए हर्जाना मांगा गया.

मुकदमे में, देसाई ने हर्श पर CIA से अपने कथित संबंधों के बारे में मानहानि और निराधार दावे करने का आरोप लगाया. कानूनी लड़ाई ने न केवल भारत में बल्कि अमेरिका में भी लोगों का ध्यान खींचा, क्योंकि इसने हर्श के स्रोतों की विश्वसनीयता और उनके दावों की सटीकता पर सवाल उठाया.

6 अक्टूबर, 1989 को शिकागो में एक जूरी ने फैसला सुनाया कि पत्रकार सेमुर एम. हर्श ने भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को जब सेंट्रल CIA का मुखबिर बताया था, तब उन्हें बदनाम करने की उनकी मंशा नहीं थी.

छह घंटे के विचार-विमर्श के बाद, जूरी ने माना कि मोरारजी देसाई ने यह साबित नहीं किया कि हर्श का दावा झूठा था, या यह कि यह सच्चाई की अनदेखी करते हुए लिखा गया था. जूरी ने अमेरिकी नियमों का हवाला देते हुए बताया था कि मानहानि का मुकदमा जीतने के लिए, एक सार्वजनिक हस्ती को न केवल यह दिखाना होगा कि आपत्तिजनक बयान झूठा है, बल्कि यह भी कि लेखक या तो जानता था कि यह झूठा है या उसे इस बात की परवाह नहीं थी कि यह सच है या नहीं.

यह फैसला पूर्व प्रधानमंत्री की ओर से शिकागो के एक कोर्ट में हर्श के खिलाफ पांच करोड़ डॉलर का मुकदमा दायर करने के साढ़े छह साल बाद आया.

क्या भारतीय अधिकारियों को देसाई पर लगाए जा रहे इल्जाम के बारे में पता था?

साल 2011 में विदेश मंत्रालय की गोपनीय फाइलों से मोरारजी के मुखबिर होने की बात फिर से उठी. हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, फाइलों में दर्ज था कि अमेरिकी पत्रकार सेमुर हर्श ने अपनी पुस्तक में ऐसे गंभीर आरोप लगाने से पहले कुछ भारतीय अधिकारियों से संपर्क किया था.

हालांकि, तत्कालीन विदेश मंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने 1983 में संसद को बताया था कि हर्श ने अपनी पुस्तक 'द प्राइस ऑफ पावर: किसिंजर इन द निक्सन व्हाइट हाउस' में देसाई के खिलाफ गंभीर आरोप लगाने से पहले कभी किसी भारतीय अधिकारी से संपर्क नहीं किया था.

दस्तावेजों से यह भी पता चला था कि भारतीय राजनयिकों ने हर्श को यह भी बताया था कि उन्होंने 1971 में देसाई को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल का सदस्य बताकर गलती की थी.

विदेश मंत्रालय की फाइलों में मोरारजी देसाई वाले विवाद पर एक नोट में लिखा था, " हर्श दूतावास के संपर्क में रहे हैं, क्योंकि संयुक्त राज्य अमेरिका में दूतावासों के लिए प्रमुख पत्रकारों के साथ संपर्क बनाए रखना एक सामान्य प्रथा है. ऐसे अनौपचारिक संपर्कों में, कथित आरोपों का सार हमारे कुछ अधिकारियों को बताया गया, जिन्होंने बताया कि उस अवधि (1971) के दौरान, श्री मोरारजी देसाई कैबिनेट में भी नहीं थे." यह इस मुद्दे पर संसदीय चर्चा के लिए तैयार नोट का हिस्सा था. यह चर्चा 18 अगस्त, 1983 को आयोजित की जानी थी. इस पैराग्राफ को 'केवल वित्त मंत्री की जानकारी के लिए' चिह्नित किया गया था, जिसे कथित तौर पर नरसिंह राव ने सदन को नहीं बताया.

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