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जब सरदार पटेल ने गोलवलकर से कहा कि RSS का विलय कांग्रेस में हो जाना चाहिए...

ब्रिटेन की वारविक यूनिवर्सिटी में इतिहास के प्रोफेसर रहे डेविड हार्डीमैन का यह आलेख इंडिया टुडे मैगजीन के 13 नवंबर, 2013 के अंक में प्रकाशित हुआ था

सरदार वल्लभभाई पटेल एक सभा को संबोधित करते हुए (फाइल फोटो)
अपडेटेड 31 अक्टूबर , 2025

नरेंद्र मोदी ने गुजरात में आजाद भारत के प्रथम गृह मंत्री और उप-प्रधानमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल की लोहे की एक विशाल मूर्ति स्थापित करने का ऐलान किया है. पटेल की छवि एक दृढ़ निश्चयी, मजबूत इरादों वाले नेता की थी, जिन्हें ‘‘भारत का लौह पुरुष’’ माना जाता रहा है.

वैसे तो ज्यादातर विश्लेषकों ने मोदी के इस कदम को बीसवीं सदी के पूर्वार्ध के उस कद्दावर कांग्रेस नेता के गुणगान के तौर पर देखा जिनके प्रति दक्षिणपंथी हिंदू असीम श्रद्धा रखते हैं, लेकिन कुछ लोगों को हैरत है कि मूर्ति के लिए मोदी ने ऐसी धातु क्यों चुनी जिसकी चमक जल्दी ही मंद पड़ने लगती है और उसमें जंग लग जाती है? 

इसके पीछे कहीं पटेल की अवमानना का भाव तो नहीं छिपा है? क्योंकि पटेल ही वे नेता हैं जिन्होंने बतौर गृह मंत्री 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद RSS पर प्रतिबंध लगाया था.

दक्षिणपंथी गलियारों में इस बात पर जोर दिया जाता रहा है कि गांधी ने अपने राजनैतिक वारिस के रूप में जवाहरलाल नेहरू की बजाय पटेल को चुना होता तो भारत की समस्याओं का हल तभी हो गया होता. दावा किया जाता है कि उन्होंने एक सशक्त ‘‘हिंदू’’ भारत बनाया होता न कि नेहरू के सपनों का ‘‘छद्म धर्मनिरपेक्ष’’ भारत. हालांकि सियासी करिअर में पटेल ने सफल गांधीवादी सत्याग्रही नेता के रूप में पहचान बना ली थी पर वे गांधी की तरह अहिंसा के प्रति पूरी तरह से प्रतिबद्ध नहीं थे. 1942 में उन्होंने गुजरात में ऐसी स्थितियां पैदा कर दी थीं जिसने वहां जन विद्रोह पैदा किया जिसमें उपद्रव और हिंसक विरोध प्रदर्शन हुए, राज्य की संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया और विध्वंसक हमले किए गए.

हालांकि, पटेल को आंदोलन शुरू होते ही गिरफ्तार कर लिया गया था, लेकिन उनके समर्थक उनके निर्देशों का पालन करते रहे, जिसकी वजह से उस दौरान साल भर हिंसक घटनाएं होती रहीं. 1947 में गृह मंत्री की कुर्सी संभालते ही उन्होंने कानून-व्यवस्था कायम करने के लिए देश और देश की सेना के सभी तंत्रों का इस्तेमाल किया और जरूरत पडऩे पर ताकत का भी सहारा लिया.

दक्षिणपंथियों ने बंटवारे के समय भारत में ही रह जाने वाले मुसलमानों के प्रति पटेल के कथित ‘‘यथार्थवाद’’ को सिर आंखों पर लिया. दूसरी ओर गांधी ने इस बात पर जोर दिया कि मुसलमानों को निश्चित तौर पर बराबर की नागरिकता मिलेगी. पटेल को भारत के प्रति उनकी प्रतिबद्धता पर शक था. उन्होंने मांग की कि हिंदुस्तान में रह जाने वाले मुसलमानों को नए राष्ट्र के प्रति सक्रिय और व्यावहारिक प्रतिबद्धता दिखानी होगी. उन्होंने उन्हें खुले तौर पर पाकिस्तान की निंदा करने के लिए कहा. हिंदुओं को उन्होंने बिना कुछ कहे ही प्रतिबद्ध मान लिया लेकिन मुसलमानों पर शक की सुई खड़ी कर दी. गांधी ने इस मुद्दे पर उन्हें झिड़का था और गांधी की हत्या तक मतभेद बरकरार रहा.

सच है कि पटेल ने RSS पर प्रतिबंध लगाया, पर वे इसके अनुशासन और देशभक्ति की भावना के बहुत पहले से कायल थे. वे RSS की ही तरह कम्युनिस्टों से बहुत नफरत करते थे. उस समय पटेल ने ही जेल में कैद RSS प्रमुख एम.एस गोलवलकर के साथ बातचीत कर उन्हें RSS का कांग्रेस पार्टी में विलय कर भारत के नए संविधान को अपनाने का आग्रह किया था. गोलवलकर ने प्रस्ताव ठुकरा दिया और RSS के संविधान का अलग ही मसौदा तैयार कर सरकार के पास भेजा. जुलाई, 1949 में गृह विभाग के साथ लंबी चर्चा के बाद प्रतिबंध हटा लिया गया. अब RSS के लिए मंच खुल चुका था. आजाद भारत में धीरे-धीरे उसे फिर से शोहरत का झंडा बुलंद कर खुद को मजबूती देनी थी.

अपनी मंजिल हासिल करने के इस क्रम में RSS ने जो सबसे दिलचस्प कदम उठाया, वह था ऊंची जाति के अपने पारंपरिक शहरी आधार से आगे निकलकर गुजरात के पाटीदारों, पटेलों जैसे ग्रामीण समुदायों को भी शामिल करना जिनका वहां दबदबा था. यह समुदाय आजादी के पहले और बाद में 1960 के दशक के अंत तक गांधीवादी कांग्रेस का प्रबल समर्थक था. जब कांग्रेस दो भागों में बंटकर इंदिरा गांधी की कांग्रेस (आइ) और मोरारजी देसाई की कांग्रेस (ओ) में बदल गई तो पटेलों ने मोरारजी देसाई की कांग्रेस का समर्थन किया.

सत्तर के दशक में जब यह मोरारजी देसाई की जनता पार्टी बनी, तब भी पटेलों ने समर्थन बनाए रखा. उस वक्त गुजरात में जनता पार्टी का नेतृत्व पाटीदार बाबूभाई जशभाई पटेल के हाथ था. इसी दशक के उत्तर्रार्ध में जनता पार्टी में बिखराव हुआ तो पटेल समुदाय अटल बिहारी वाजपेयी और आडवाणी के नेतृत्व वाली भाजपा के साथ हो गया.

पटेलों ने आरक्षण के खिलाफ हुए 1980 के आंदोलनों और बाद में 1990 के दशक में अयोध्या आंदोलन को भी समर्थन दिया. गुजरात में भाजपा के पहले मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल बने, जो उसी समुदाय से हैं. महान पाटीदार नायक वल्लभभाई पटेल की मूर्ति बनवाकर मोदी उसी जनाधार को स्वर दे रहे हैं. मोदी के लिए सरदार पटेल कई सकारात्मक गुणों के प्रतीक हैं. उनकी पहली पहचान एक मजबूत नेता और हिंदू राष्ट्रवादी के रूप में बनी हुई है. मोदी खुद को उन्हीं के रूप में देखते हैं. आज के गुजरात के ‘‘लौह पुरुष’’ के रूप में वे नेहरूवादी कमान से संचालित देश में हुई गलतियों को सुधारते हुए मन ही मन प्रधानमंत्री बनने की उम्मीद पाले हुए हैं.

सियासी तौर पर चीजें उनके मनमाफिक रहीं तो वह दिन दूर नहीं जब लौह सरदार की बगल में मोदी की भी एक विशाल लोहे की मूर्ति सज जाए. बहरहाल, सही अर्थों में कांग्रेस के महान नेता वल्लभभाई पटेल की दृढ़ निश्चयी शख्सियत का अनुकरण करने की बजाए इस तरह का स्मारक बनाने की घोषणा कर वे मायावती की तरह अपनी बेतुकी महत्वाकांक्षा को संतुष्ट करने का जतन कर रहे हैं.
 
(डेविड हार्डीमैन ब्रिटेन की वारविक यूनिवर्सिटी में इतिहास के प्रोफेसर रहे हैं और उन्होंने यह आलेख इंडिया टुडे मैगजीन के 13 नवंबर, 2013 के लिए लिखा था)

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