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जब विपक्षी नेता अटल बिहारी वाजपेयी और फारुख अब्दुल्ला ने पाकिस्तान को हराया!

पाकिस्तान ने 1994 में कश्मीर के मामले पर यूएन में भारत के खिलाफ एक प्रस्ताव पेश किया था और इसका जवाब देने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने नेता विपक्ष अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल भेजा था

फारूक अब्दुल्ला और अटल बिहारी वाजपेयी/इंडिया टुडे
फारूक अब्दुल्ला और अटल बिहारी वाजपेयी/इंडिया टुडे
अपडेटेड 29 मई , 2025

पहलगाम हमले के बाद भारत सरकार और भारतीय सेना, दोनों ने ही कई बार यह साफ़ किया कि ऑपरेशन सिंदूर आतंकी हमले के बाद की जवाबी कार्रवाई थी. जिसका मकसद पाकिस्तानी सैन्य ठिकानों को निशाना बनाना नहीं थी. लेकिन पाकिस्तानी सेना ने इसे पाकिस्तान पर हमला समझ दुनिया भर में ढिंढोरा पीटा और भारत के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उलटे-सीधे झूठ फैलाए.

पाकिस्तान के झूठ को उजागर करने, आतंकवाद को उसके समर्थन और इस पर भारत की कार्रवाई के बारे में दुनिया को बताने के लिए इस समय देश के सात ऑल पार्टी डेलिगेशन अलग-अलग देशों का दौरा कर रहे हैं. इन डेलिगेशन की खास बात है कि इनमें सत्ताधारी बीजेपी के साथ-साथ मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस और दूसरे विरोधी दल के सांसद भी शामिल हैं.

हालांकि यह पहला मौका नहीं है जब विपक्षी पार्टियों के नेताओं दुनिया के सामने भारत का प्रतिनिधित्व किया हो. ऐसा ही कुछ हुआ था 1994 में. तब पाकिस्तान को यूएन ह्यूमन राइट्स कमीशन में भारत के खिलाफ अपना प्रस्ताव वापस लेना पड़ा था.

उस वक्त पाकिस्तान की प्रधानमंत्री थीं बेनज़ीर भुट्टो. भुट्टो सरकार ने यूएन ह्यूमन राइट्स कमीशन में कश्मीर में भारत के खिलाफ मानवाधिकार के हनन पर प्रस्ताव पेश किया. भारत के प्रधानमंत्री थे नरसिम्हा राव और उन्होंने नेता प्रतिपक्ष अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एक टीम बनाई जो यूएन में पाकिस्तानी चाल को नाकाम कर सके. अभी जैसे विपक्षी पार्टी के नेताओं को नरेंद्र मोदी की सरकार विदेशी डेलीगेशन बनाकर भेज रही है, ऐसा ही कुछ विपक्षी नेता अटल बिहारी वाजपेयी को भेजकर नरसिम्हा राव ने किया था.

इंडिया टुडे मैगजीन के 31 मार्च 1994 के अंक का कवर
इंडिया टुडे मैगजीन के 31 मार्च 1994 के अंक का कवर

इंडिया टुडे मैगजीन के 31 मार्च 1994 के अंक में शेखर गुप्ता बताते हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी के साथ फ़ारूक़ अब्दुल्ला को भेजा गया था और टीम के दूसरे 'खिलाड़ियों' का चयन भी जेनेवा में पैदा हो सकने वाली जटिलताओं को ध्यान में रखकर किया गया. बेनजीर भुट्टो वहां खुद पहुंचीं तो उनका जवाब देने के लिए तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को भेजा गया. मॉडर्न नजरिए वाले मुसलमान फारूक अब्दुल्ला और तब विदेश राज्यमंत्री रहे सलमान खुर्शीद को भी जवाबी दलीलें तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी गई.

विदेश मंत्रालय ने इस काम के लिए उपयुक्त लोगों को छांटने के लिए दुनिया भर में हाथ-पांव मारे. चुने गए लोगों में से एक हामिद अंसारी, संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि थे और ईरान और अफगानिस्तान में पहले राजदूत रह चुके थे. वे सिर्फ अच्छी फारसी ही नहीं जानते थे बल्कि संयुक्त राष्ट्र के तौर-तरीकों और हस्तियों से भी वाकिफ थे. टोक्यो में तैनात भारतीय राजदूत प्रकाश शाह को भी बुलाया गया. वे पहले जेनेवा में राजदूत थे. लिहाजा उनके ज्ञान, अनुभव, संपर्कों और कौशल को जरूरी माना गया.

एक समय तो वहां छह राजदूत मौजूद थे, जो अपने संपर्कों के आधार पर भारत के पक्ष में हवा बनाने में जुटे थे. वाजपेयी, फारूक और खुर्शीद 'राजनैतिक दिशा' दे रहे थे. फारूक तो पूरे मूड में कहते फिर रहे थे, "हम जल्दी ही इस मसले को निबटा देंगे. फिर आप गोल्फ खेलने श्रीनगर आइएगा." पाकिस्तान का जवाब देने उठे फारूक ने चुनौती देते हुए कहा था कि वहां पर मौजूद कश्मीरी होने का दावा करने वाला कोई भी पाकिस्तानी प्रतिनिधि उनके साथ कश्मीरी भाषा में बात करके दिखा दे. इस चुनौती से जिन लोगों के चेहरे फीके पड़े उनमें पाकिस्तान के पूर्व मंत्री अतिया इनायतुल्ला भी थे जो तब वर्ल्ड मुस्लिम कांग्रेस में कश्मीरी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते थे. माहौल ऐसा बन गया था कि जेनेवा सम्मलेन में दोनों पक्षों का तकिया कलाम जैसे 'इंशाअल्लाह' ही बन गया था.

तीन दिनों तक चली तीखी बहस के बाद आखिर में पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल के नेता इकबाल अखुंद को प्रस्ताव वापस लेने की घोषणा करनी पड़ी. अध्यक्ष का हथौड़ा मेज पर पड़ा और मुस्कराते भारतीय प्रतिनिधि इस जीत की सूचना नई दिल्ली को देने चल पड़े. पर यहां उन्हें एक कमी बहुत खटकी. वे हॉल में एक कार फोन ले गए थे पर जब उन्होंने इसे प्रधानमंत्री कार्यालय के फोन से जोड़ा तो बैटरी चली गई. मांगकर दूसरी व्यवस्था की गई और प्रफुल्लित हामिद अंसारी ने शिकायत की, "बल्लेबाज मैदान में ही नहीं आए..''

इस जीत के पीछे चीन और ईरान के साथ चली गई समझदारी भरी कूटनीतिक चालों का भी बड़ा हाथ था. विदेश मंत्री दिनेश सिंह ने ईरान का दौरा किया, और राव ने ईरानी नेताओं से स्पष्ट बात की. राव ने ईरानी सुप्रीम लीडर खामनेई से बातचीत की जिससे भारत-ईरान समझौते मजबूत हुए और ईरान ने पाकिस्तान पर दबाव डाला. वे चीनी विदेश मंत्री क्यान क्विचेन से भी मिले, जो तब तेहरान में थे.

इन दोनों ही देशों ने पाकिस्तान को आगाह किया तो यह कश्मीर की 'आजादी' चाहने वाले उग्रवादियों को भी स्पष्ट संदेश था कि वे ईरान से आंख मूंदकर समर्थन या चीन से सहानुभूति की उम्मीद नहीं कर सकते. पाकिस्तान भले ही इस मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय रंग देने का दावा करे पर इससे भारत को अप्रत्याशित बढ़त भी मिल गई. इससे राष्ट्रसंघ के सबसे प्रमुख मंच पर पाकिस्तान की अंतरराष्ट्रीय साख की कलई खुल गई. यूएन कमीशन के लगभग हर सदस्य देश ने, यहां तक कि मतदान में हिस्सा न लेने का मन बना चुके बहुसंख्यक देशों ने भी पाकिस्तान को द्विपक्षीय बातचीत की सलाह दी.

दरअसल पाकिस्तानी प्रवक्ता हार छुपाने के लिए अपने गाल बजाए जा रहे थे कि वे कश्मीर मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय रंगत देने में सफल रहे हैं और जहां मौका मिलेगा इसे उठाते रहेंगे. लेकिन जेनेवा के बाद यह बात फिर साबित हो गई थी कि खुलापन, फरेब और प्रोपेगेंडा से कहीं अधिक बेहतर होता है.

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