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उस बेलछी कांड की पूरी कहानी जिसने इंदिरा गांधी का राजनीतिक वनवास खत्म किया था

बेलछी कांड जातिवादी हिंसा और पुलिस की मिलीभगत का ऐसा दुर्लभ उदाहरण भी था जहां पटना हाईकोर्ट के जज को खुद इस गांव में जाकर चश्मदीदों की गवाही वेरीफाई करनी पड़ी

इंदिरा गांधी हाथी पर बैठकर बेलछी पहुंची थीं
इंदिरा गांधी हाथी पर बैठकर बेलछी पहुंची थीं
अपडेटेड 31 अक्टूबर , 2025

लोकसभा चुनाव शुरू होने के पांच दिन पहले से ही इंदिरा को पता था कि वे हार रही हैं. इसलिए नहीं कि IB और RAW उन्हें देश में हो रही एक-एक चीज की खबर दे रहे थे. बल्कि इसलिए कि उस दिन उनके गले में सजी रुद्राक्ष की माला टूट गई थी.

हरिद्वार के एक संत ने उन्हें ये माला दी थी. कहा था, जब परेशानी में हो तो इसे पहन लेना, शक्ति मिलेगी. इंदिरा बदहवास जमीन पर बिखरे हुए रुद्राक्ष के मोतियों को ढूंढती रहीं. लेकिन 27 में से 23 दाने ही मिल पाए. 

मार्च, 1977. चुनाव नतीजों की घोषणा के तीन दिन तक लोग सड़कों पर नाच रहे थे. लेकिन इंदिरा के पास उन्हें देखकर बुरा महसूस करने का वक़्त नहीं था. वे अपनी टेबल पर धरी हर उस फाइल को पढ़ने में लगी थीं जिसपर लिखा था 'पीएम ओनली'. जिनमें कांग्रेस नेताओं के राज़ थे. उनकी विवाहेतर प्रेमिकाओं की लिस्ट, भ्रष्टाचार (के आरोपों) में डूबी हुईं डील्स, विपक्ष की फंडिंग के सोर्स. संजय गांधी पर लगे आरोपों की एक और फाइल. इंदिरा ने अपनी डायरी में इनमें से कुछ चीजें नोट कीं. कुछ दिनों बाद संसद में उनपर महत्वपूर्ण फाइलें जलाकर नष्ट करने के आरोप लगने वाले थे. 

लेकिन इंदिरा को बस एक बात की परवाह थी. अपनी वापसी की. और इस वापसी का प्रस्थान बिंदु खोजने की. 

लगभग 6 महीनों तक पूरे धैर्य के साथ प्लानिंग करने बाद इंदिरा ने फैसला लिया कि वे बेलछी जाएंगी. 27 मई 1977 को यहां एक जातिगत हिंसा के बीच 11 लोगों की हत्या कर उन्हें जलती चिता में झोंक दिया गया था. 

इंडिया टुडे के रिपोर्टर फरजंद अहमद ने बेलछी से दो ग्राउंड रिपोर्ट्स कीं. एक जुलाई 15, 1977 अंक के लिए जिसमें कांड के भयावह डीटेल मिलते हैं. और एक सितंबर 15, 1977 अंक के लिए, जब इंदिरा गांधी हाथी पर बैठकर बेलछी गांव पहुंची.  

बेलछी : मौत का तांडव 
 
फरजंद अहमद लिखते हैं, “ये चंगेज खान की कहानी से किसी लूट का किस्सा जान पड़ता है. फर्क बस इतना है कि ये कांड पटना से 90 किमी दूर हुआ.” शुरुआत में आई रिपोर्ट्स से जान पड़ा कि ये दो गुटों के बीच का गैंगवॉर है. बिहार में जिसका होना सचमुच कोई बड़ी बात नहीं थी. अहमद लिखते हैं, ”महावीर और परशुराम का आतंक गांव में पिछले पांच साल से था. महावीर छोटा ज़मींदार था. इस गांव से उसकी दुश्मनी सिद्धेश्वर उर्फ़ सिंहेश्वर उर्फ़ सिंहवा की वजह से थी.”

बेलछी दलितों का गांव था. उनके अलावा सिर्फ एक ब्राह्मण परिवार वहां रहा करता था. सिंहवा दलितों का लीडर था और गांव का दामाद भी. इंडिया टुडे को पुलिस ने बताया था कि इन दोनों गैंग की दुश्मनी पुरानी थी. महावीर, जो जाति से कुर्मी (OBC) था, सिंहवा को अपने गैंग के दो आदमियों की मौत का जिम्मेदार बताता था. और ठानकर बैठा था कि एक दिन बदला लेना ही है. पुलिस के मुताबिक, महावीर के आदमी उस दिन सुबह-सुबह आए लेकिन सिंहवा ने उन्हें खदेड़ दिया. जिसके बाद तपती दुपहरी में महावीर के गैंग ने सिंहवा को मिटाने के लिए हमला किया. और जबतक उसकी जान नहीं ले ली, वे वहां से नहीं हिले.   

महावीर के ऊपर नालंदा की अस्थावां सीट से निर्दलीय विधायक, इंद्रदेव चौधरी, जो अपने दबंगई के लिए जाना जाता था, का हाथ था. चौधरी के आदमियों ने सिंहवा को बातचीत कर मामला सुलटाने के बहाने बाहर बुलाया. और फिर गोली मार दी. 

गांव के चौकीदार गणेश पासवान सुबह ही पुलिस को खबर करने निकल पड़े. पास की सरकोसा चौकी वीरान पड़ी थी. तो पुलिस स्टेशन की ओर बढ़े. लेकिन उन्हें कोई साधन न मिला. 17 किमी पैदल चलकर वे स्टेशन पहुंचे. लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई. पुलिस ने बाद में बताया कि हम तो निकले थे. लेकिन रास्ते में गाड़ी ख़राब हो गई. हालांकि सब ये बात जानते थे कि विधायक की प्रोटेक्शन की वजह से कोई महावीर के गैंग को हाथ नहीं लगाता था.  

अपनी किताब ‘रूरल वायलेंस इन बिहार’ (1993) में लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता और सुलभ इंटरनेशनल के फाउंडर बिंदेश्वर पाठक लिखते हैं, “जब सुबह-सुबह महावीर महतो और परशुराम धानुक ने सिंहवा पर हमला किया, बेलछी के दुसाध (पासवान-दलित) और मुसहरों (दलित) ने उनपर पत्थर बरसाए.” वे पत्रकार अर्जुन रंजन के हवाले से लिखते हैं, “दोपहर में परशुराम, महावीर और चौधरी के आदमियों ने मिलकर सिंहवा के घर पर हमला किया. ये 50-60 लोग थे. सिंहवा समेत 11 लोगों के हाथ बांधकर उन्हें बाहर लाए. और 300 लोगों के सामने पहले उन्हें गोली मार दी. फिर जलती हुई आग में झोंक दिया. इसके बाद शाम 5 बजे तक ये चिता जलती रही.”

मसला संसद में उछला. तत्कालीन होम मिनिस्टर चरण सिंह ने हिंसा की निंदा की. लेकिन इसे जातिगत मानने से इनकार किया. बिहार में जनता पार्टी की सरकार ने भागलपुर से तत्कालीन विधायक विजय कुमार मित्रा की अध्यक्षता में एक जांच कमिटी का गठन किया. कमिटी ने भी इसी लाइन को कायम रखा कि ये एक गैंगवॉर था. 

लेकिन 1979 में इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली (EPW) के लिए हेमेंद्र नारायण ने लिखा, “पुलिस ने सिंहवा को गैंग्स्टर बताया. लेकिन केस की कोई चार्जशीट जब पुलिस ने फाइल ही नहीं की. तो सच कैसे मालूम पड़ेगा… इस वक़्त (जब केस कोर्ट में है), महावीर के गैंग वाले अपनी ही तरफ की एक औरत को जलाने की तैयारी में थे. जिस का दोष वे दलितों पर डालना चाहते थे.” नारायण आगे लिखते हैं, “इंद्रदेव चौधरी ने 1975 में ऐसा ही नरसंहार प्रसुल गांव में करवाया था, लेकिन वो आजतक खुला घूम रहा है.”  

6 अगस्त, 1977 के  EPW में पत्रकार और लेखक अरुण सिन्हा लिखते हैं, “महावीर जेल में है. लेकिन दुसाधों के साथ उन कुर्मियों को भी अंदर से धमकी भेजता है जो गवाही देने को तैयार हैं.” सिन्हा आगे लिखते हैं, “महावीर से केवल दलित ही नहीं, ब्राह्मण, बनिया और गरीब कुर्मी भी डरते हैं. सबकी जमीन पर महावीर का कब्ज़ा होता है. और उनपर मजदूरी करने वालों को वो सिर्फ एक सेर मकई बेगारी देता है, जबकि रेट तीन सेर का चल रहा है… इतना ही नहीं, महावीर के आदमियों ने बेलछी की सभी सरकारी जमीनों, ताल-पोखरों पर पूरा कब्ज़ा कर रखा है.” 

सिन्हा के मुताबिक बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के घरों को 100 रुपये प्रति परिवार मिलने थे, जिन्हें महावीर के आदमियों ने बीच में ही डकार लिया. वहीं 1979 की अपनी रिपोर्ट में हेमेंद्र नारायण बताते हैं कि राहत के तौर पर सरकार ने बेलछी के पीड़ित परिवारों को जो जमीनें अलॉट की थीं, उनसे दलित परिवारों को खदेड़कर कुर्मियों ने कब्ज़ा कर लिया है. 

संसद में आग 

13 जून 1977 को संसद में कोयंबतूर से कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया की सांसद पार्वती कृष्णन ने बेलछी कांड पर चरण सिंह से जवाब मांगा. जवाब में कोई फर्क नहीं आया था. सिंह ने कहा, “इस हिंसा का जाति, धर्म या जमीन की राजनीति से कोई संबध नहीं था. ये समाज के कमजोर वर्ग के शोषण का मामला नहीं था.” लेकिन पार्वती मसले को छोड़ने वाली नहीं थीं. वे इसे लेकर गरजती रहीं. लोक सभा से भले ही कांग्रेस का सफाया हो चुका हो, लेकिन सदन में राज्य सभा में अब भी कांग्रेस बहुमत में थी. इंदिरा यूं भी संसद के बाहर से जनता पार्टी पर हमले के मौके ढूंढ रही थीं. प्रेशर बनते ही जनता पार्टी में फूट पड़ने लगी. 

तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को केंद्र से चिट्ठियां जाने लगीं. कांड की जांच करने वाले अधिकारी अवधेश कुमार मिश्र से इस्तीफ़ा ले लिया गया. लेकिन अगले 15 दिन में जनता पार्टी के दलित सांसद चरण सिंह की नीयत पर सवाल उठाने लगे. सत्ताधारी पार्टी में संसद के अंदर दो-फाड़ हो गई. और कुछ सांसदों ने मिलकर ‘पार्लियामेंट्री फोरम ऑफ़ शेड्यूल्ड कास्ट एंड शेड्यूल्ड ट्राइब्स मेंबर्स ऑफ़ पार्लियामेंट’ का गठन किया. फोरम ने उत्तर प्रदेश के दलित नेता राम धन कि अध्यक्षता में एक 8-सदस्यों की समिति बनाई. जो बेलछी जाकर अपनी स्वतंत्र रिपोर्ट तैयार करने वाली थी. जानते हैं, इस कमिटी में कौन शामिल था? अब गुजर चुके रामविलास पासवान, जिन्हें हम लोक जनशक्ति पार्टी के फाउंडर के तौर पर जानते हैं. 

खैर, 8 सांसदों की इस कमिटी ने पाया कि चरण सिंह के पास गलत जानकारी थी. महावीर महतो की गुंडई और शोषण के किस्से सदन ने सुने. ये भी सामने आया कि कांड के कुछ दिन पहले ही पासवानों ने महावीर और परशुराम के खिलाफ FIR लिखाई थी. और पुलिस को बताया था कि उन्हें जान का खतरा है. लेकिन पुलिस ने कुछ भी नहीं किया था. आखिरकार चरण सिंह ने माना कि उनसे गलती हुई. लेकिन खुद को जस्टिफाई करने के लिए उन्होंने कई दांव खेले. लालकृष्ण आडवाणी और बीजू पटनायक लगातार उनके लिए लड़ते रहे. यहां तक कि चरण सिंह ने कर्पूरी ठाकुर को भेजे हुए अपने ख़त सदन में पढ़े.

अपनी किताब ‘कास्ट प्राइड : बैटल्स फॉर इक्वलिटी इन हिंदू इंडिया’ में मनोज मिट्टा लिखते हैं, “चरण सिंह का अपनी गलती मानना ऐतिहासिक था. और तमाम दलित नेताओं के साथ आने का नतीजा था.” 

आज हम अक्सर संसद से कांग्रेस का वॉकआउट देखते हैं. लेकिन बेलछी पर होने वाली बहस में इतिहास का वो पहला मौका था जब कांग्रेस विपक्ष में थी. और वॉकआउट किया था. 

हालांकि ये हाइ वोल्टेज ड्रामा संसद की दीवारों तक महदूद नहीं रहने वाला था. अभी तक तो इंदिरा संसद के बाहर से प्लानिंग कर रही थीं. अब उनका अपनी शिकस्त के बाद पहली बार दिल्ली से निकलने का समय आ गया था.  

और आईं इंदिरा 

11 अगस्त की शाम बिहार प्रदेश कांग्रेस के हेडक्वार्टर सदाकत आश्रम में फोन की घंटी बजती है. प्रदेश कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष केदार पांडे को बताया जाता है कि फोन दिल्ली से आया है. फोन रखते हुए पांडे कुछ हैरान दिख रहे थे. आखिर इंदिरा बिहार क्यों आना चाहती हैं? वो भी इस मौसम में? क्या उन्हें मालूम नहीं कि 6 माह पहले लोग यहां उनके खून के प्यासे थे? 

एक दिन बाद इंदिरा का हवाई जहाज दिल्ली से पटना के लिए रवाना हो गया. अगस्त की झमाझम बारिश के बीच उनका जहाज तय समय से 35 मिनट लेट पहुंचा. लेकिन सैकड़ों कांग्रेस वर्कर्स को बारिश की परवाह नहीं थी. वे फूल-माला लेकर उनका इंतजार करते रहे और जहाज के लैंड होते ही उसकी ओर भागे.

इंदिरा गाड़ी में बैठकर निकलीं. मगर बेलछी के लिए नहीं. बिहारशरीफ के लिए. जहां हिंदुओं और मुसलमानों के बीच छुटपुट विवाद चलते ही रहते थे. ऐसे ही एक दंगे में यहां बीते महीने चार 4 लोगों की जान गई थी. इंदिरा की झलक पाने को लोग घरों की छतों पर पहुंच गए. पेड़ों पर चढ़ गए. हाथ में माइक लेकर इंदिरा ने कहा, “मैं कोई भाषण देने नहीं, बस आपका दर्द बांटने आई हूं.” अबतक ये साफ़ था कि इंदिरा सिर्फ दलित ही नहीं, मुसलमानों को भी वापस कांग्रेस के पाले में लाना चाहती थीं. 

इंदिरा रुकते-रुकाते चलतीं. फरजंद अहमद लिखते हैं– क्या ये एक और दांडी मार्च था? इंदिरा जहां जा रही थीं, भीड़ उमड़ी जा रही थी. लोग नारे लगाते थे, “आधी रोटी खाएंगे, इंदिरा को बुलाएंगे.” कोई काला झंडा नहीं, कोई उपद्रवी भीड़ नहीं–मानो इमरजेंसी के दिन लोगों की स्मृति से मिट गए हों. इंदिरा का चेहरा अपने सम्मान में लगे नारों से गुलाबी हुआ जाता था– “इंदिरा तेरे अभाव में, हरिजन मारे जाते हैं.” आपको याद दिला दें कि हरिजन शब्द उन दिनों दलित समुदाय के लिए आधिकारिक तौर पर इस्तेमाल होता था.

अभी बेलछी 15 किमी दूर था. पास की छोटी नदियां तगड़ी बारिश से उफान मार रही थीं. आगे का रास्ता गड्ढों, नालों और कीचड़ से बजबजा रहा था. मोटर गाड़ी का आगे बढ़ पाना संभव नहीं था. “मैडम आज शायद कैंसिल कर दें”, इंदिरा के पीछे चलते लोग आपस में चर्चा कर रहे थे. लेकिन इंदिरा गाड़ी से उतरीं, और पैरों पर साड़ी समेटकर पैदल चलने लगीं. 60 बरस की इंदिरा बिना थकान चलती जाती थीं. जैसे अपनी जीत की ओर बढ़ रही हों. उनके गले में रुद्राक्ष की एक नई माला सज चुकी थी.

लेकिन रास्ता खराब होता गया. उन्हें किसी ने सलाह दी कि आगे सिर्फ हाथी पर जाया जा सकता है. और मिनटों में मोती को लेकर आया गया. इंदिरा ने उस हाथी को नज़र भर देखा और अपने साथ चल रहीं सांसद प्रतिभा सिन्हा से कहा, “चलो अच्छा हुआ, बड़े दिनों बाद आज हाथी पर चढ़ रही हूं.” कुछ डरी सहमी सी प्रतिभा भी उनके साथ चढ़ीं. और मोती चल पड़ा. मोती जैसे-जैसे आगे बढ़ता जाता था, उसके पेट में बंधी घंटी इंदिरा के आने की खबर देती हुई बजती जाती थी. पीछे-पीछे बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र और केदार पांडे के अलावा इंदिरा के साथ आए कई सांसद चलते थे. उनके पीछे यूथ कांग्रेस के वर्कर चलते थे. उनके भी पीछे टीवी कैमरे वाले और पत्रकार चलते थे.

बेलछी पहुंचने में साढ़े तीन घंटे लगे. इंदिरा के पहुंचते पहुंचते सूरज छुपने लगा. मोती पांव मोड़कर बैठ गया और इंदिरा ने उसकी पीठ पर बैठे-बैठे लोगों से मुलाकात की. 

साढ़े तीन घंटे का सफ़र वापस तय करना था. फिर पटना की ओर निकलना था. लेकिन इंदिरा के चेहरे पर थकान फिर भी नहीं थी. रात 11:30 बजे वो पटना से सटे बख्तियारपुर के एक कॉलेज में छात्रों को भाषण दे रही थीं. 

अगली सुबह इंदिरा दिल की बीमारी से ग्रसित, शारीरिक रूप से कमजोर पड़ चुके जेपी से मिलीं. दोनों की तस्वीरें अखबारों में दिखीं. जेपी ने उन्हें भविष्य के लिए शुभकामनाएं दीं. देश कह रहा था, जेपी का आशीर्वाद मिला है. इंदिरा की वापसी पक्की है.

क्या हुआ बेलछी का?

इंदिरा के सत्ता में लौटने के चार माह बाद, 19 मई 1980 में को पटना ट्रायल कोर्ट ने फैसला सुनाया–17 को उम्रकैद. और महावीर महतो और परशुराम धानुक को सजा-ए-मौत. लेकिन केस पटना हाई कोर्ट में पहुंचा. जहां डिफेंस ने ये साबित करने का प्रयास किया कि गवाहों के बयानों में एकरूपता नहीं है. जजों की पीठ– जस्टिस हरिलाल अग्रवाल और जस्टिस मनोरंजन प्रसाद– में मौत की सजा को लेकर मतभेद था. जिसकी वजह से तीसरे जज जस्टिस उदय सिन्हा को शामिल किया गया. केस की सुनवाई नए सिरे से शुरू हुई. मसला तबतक इतना बड़ा हो चुका था कि जस्टिस सिन्हा को खुद बेलछी, यानी क्राइम सीन तक जाकर गवाहों के बयान वेरीफाई करने पड़े. सिन्हा ने अंततः फैसला सुनाया– “यह ऐसा रेयर केस है जिसमें अधिकतम सजा देना ही न्यायसंगत है.”

25 मई 1983 को भागलपुर सेंट्रल जेल में दोनों की फांसी होनी थी. अब महावीर और परशुराम के पास कोई और रास्ता नहीं था. आखिरी उपाय ये था कि वो कोर्ट से थोड़ी मोहलत ये कहकर मांग लें कि उन्हें किसी अन्य, कम दर्दनाक तरीके से मौत दी जाए. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट को टेलीग्राम भेज स्टे की गुहार लगाई. कोर्ट समर वेकेशन पर था. वेकेशन जज जस्टिस ए. वरदराजन ने स्टे लगाया. मगर तत्कालीन चीफ जस्टिस वाइ.वी. चंद्रचूड़ ने याचिका खारिज कर दी. 9 नवंबर 1983 को दोनों को भागलपुर सेंट्रल जेल में फांसी दी गई. दोनों को फांसी के ठीक पहले उनकी मांग पर दही और मिठाई खिलाई गई.

मनोज मिट्टा लिखते हैं, “मानवाधिकार के नजरिए से देखें तो डेथ पेनल्टी अमानवीय लगती है. लेकिन उस वक़्त बेलछी के हत्यारों की फांसी एक मील का पत्थर साबित हुई. इसने दलितों को उम्मीद दी.” 

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