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एस.आर. बोम्मई केस : जब सुप्रीम कोर्ट ने तय की थी राष्ट्रपति-राज्यपाल की हद!

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से उनके और राज्यपालों के अधिकारों पर जवाब-तलब किया है हालांकि इससे पहले 1994 में एस.आर. बोम्मई केस में सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले पर ऐसा फैसला दिया था जिसने पूरे देश की सियासत पर बड़ा असर डाला

एस.आर. बोम्मई (माइक पर) एचडी देवेगौड़ा (दाएं) और रामकृष्ण हेगड़े (सबसे बाएं)/इंडिया टुडे मैगजीन
एस.आर. बोम्मई (माइक पर) एचडी देवेगौड़ा (दाएं) और रामकृष्ण हेगड़े (सबसे बाएं)/इंडिया टुडे मैगजीन
अपडेटेड 15 मई , 2025

यह मामला शुरू हुआ कर्नाटक में उठे एक सियासी तूफान से, लेकिन इसने पूरे देश की व्यवस्था पर बड़ा असर डाला. 1989 में जनता दल की सरकार को गवर्नर ने रातोरात बर्खास्त कर दिया. केंद्र में बैठी कांग्रेस सरकार ने राष्ट्रपति शासन थोप दिया, और सियासी उठापटक शुरू हो गई. लेकिन 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसा ऐतिहासिक फैसला सुनाया, जिसने राज्यपालों की मनमानी पर लगाम लगाई और भारत के संघीय ढांचे को मज़बूत किया. ये था एस.आर. बोम्मई केस. वहीं आज, 2025 में, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से राज्यपालों की भूमिका पर जवाब मांगा है. क्या इतिहास फिर दोहराया जा रहा है?

साल 1988 में कर्नाटक में सियासत का मैदान गरमाया हुआ था. जनता पार्टी ने 1985 में विधानसभा चुनाव जीता, और रामकृष्ण हेगड़े मुख्यमंत्री बने. लेकिन 1988 में टेलीफोन टैपिंग कांड ने हेगड़े को इस्तीफा देने पर मजबूर कर दिया. इंडिया टुडे मैगज़ीन में 1988 में छपी राज चेंगप्पा की एक रिपोर्ट के मुताबिक, उनकी जगह एस.आर. बोम्मई को चुना गया—एक ऐसा नेता, जो क्रिकेट का शौकीन था और संगठन में माहिर. बोम्मई के सामने कई चुनौतियां थीं- 300 करोड़ का बजट घाटा, बेलगाम नौकरशाही, और जनता पार्टी के भीतर बगावत.

एचडी देवेगौड़ा, एक ताकतवर वोक्कालिगा नेता, बोम्मई के खिलाफ खड़े थे. लिंगायत और वोकालिगा समुदायों के बीच की सियासी अदावत किसी से छिपी नहीं थी. बोम्मई, जो लिंगायत थे, ने पार्टी को एकजुट करने की कोशिश की, लेकिन देवेगौड़ा ने अपने समर्थकों को कैबिनेट में जगह दिलाने के लिए दबाव बनाया.

असली तूफान तब आया जब सितंबर 1988 में जनता दल के एक विधायक केआर मोलकेरी ने पार्टी छोड़ दी और राज्यपाल पी वेंकटसुब्बैया को विधानसभा के 19 अन्य सदस्यों के साथ एक पत्र सौंपा, जिसमें उन्होंने बोम्मई सरकार से समर्थन वापस लेने का अपना निर्णय बताया. केंद्र की सरकार ने बोम्मई को बहुमत साबित करने का मौका दिए बिना अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल करके राज्य सरकार को बर्खास्त कर दिया और राष्ट्रपति शासन लगा दिया. बर्खास्तगी का आधार यह था कि कई पार्टी नेताओं के बड़े पैमाने पर दलबदल के बाद सरकार ने अपना बहुमत खो दिया था.

बाद में राज्यपाल पी वेंकटसुब्बैया ने बोम्मई को विधानसभा में बहुमत साबित करने का मौका देने से इनकार कर दिया. बोम्मई को कर्नाटक हाई कोर्ट से भी कोई राहत नहीं मिली और फिर उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया.

11 मार्च 1994 को नौ जजों की बेंच ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया, जिसने भारत की सियासत को हमेशा के लिए बदल दिया. एस.आर. बोम्मई बनाम भारत सरकार केस में सुप्रीम कोर्ट ने आर्टिकल 356 की समीक्षा की, जो केंद्र को राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाने की ताकत देता है. कोर्ट ने साफ कहा- राष्ट्रपति का फैसला असीमित नहीं है. ये न्यायिक समीक्षा के दायरे में है. अगर राष्ट्रपति की संतुष्टि गलत, पक्षपातपूर्ण, या अप्रासंगिक आधारों पर हो, तो कोर्ट उसे रद्द कर सकता है.

कोर्ट ने राज्यपाल की भूमिका पर भी सवाल उठाए. कर्नाटक के राज्यपाल पी वेंकटसुब्बैया ने बोम्मई को फ्लोर टेस्ट का मौका नहीं दिया था. सुप्रीम कोर्ट ने कहा- किसी सरकार की बहुमत की जांच विधानसभा के फ्लोर पर होनी चाहिए, न कि गवर्नर की व्यक्तिगत राय से. एस.आर. बोम्मई केस में 19 में से 7 MLA ने बाद में कहा कि उनके हस्ताक्षर धोखे से लिए गए थे. फिर भी, राज्यपाल ने जल्दबाज़ी में सिफारिश कर दी.

कोर्ट ने सरकारिया कमीशन (1988) की सिफारिशों का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि आर्टिकल 356 का इस्तेमाल सिर्फ “संवैधानिक मशीनरी के टूटने” पर हो, न कि सियासी फायदे के लिए. कोर्ट ने कर्नाटक, नागालैंड, और मेघालय में राष्ट्रपति शासन को असंवैधानिक बताया, लेकिन मध्य प्रदेश, राजस्थान, और हिमाचल प्रदेश में इसे जायज़ ठहराया, क्योंकि वहां गैर-धर्मनिरपेक्ष गतिविधियां चल रही थीं.

सबसे बड़ी बात- कोर्ट ने धर्मनिरपेक्षता को संविधान की बुनियादी संरचना का हिस्सा बताया और कहा कि अगर कोई राज्य सरकार धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ काम करती है, तो आर्टिकल 356 लागू हो सकता है. लेकिन कर्नाटक में ऐसा कोई आधार नहीं था.

बोम्मई केस ने सियासत का रुख बदल दिया. 1950 से 1994 तक, यानी 44 सालों में आर्टिकल 356 का 100 बार इस्तेमाल हुआ था. यानी हर दो साल में पांच बार से अधिक! लेकिन 1994 के बाद सुप्रीम कोर्ट की सख्ती ने इस खेल को रोक दिया. 1994 से 2024 तक, पूरे 30 साल में ये सिर्फ 20 बार इस्तेमाल हुआ. यानी हर डेढ़ साल में बस एक बार.

इसका सबसे बड़ा उदाहरण 1999 में आया, जब वाजपेयी सरकार को बिहार में बर्खास्त सरकार बहाल करनी पड़ी. एस.आर. बोम्मई केस की गूंज 2016 में अरुणाचल और उत्तराखंड, 2019 में महाराष्ट्र, और 2021 में पुडुचेरी तक सुनाई दी, जहां फ्लोर टेस्ट को सर्वोपरि माना गया.

आज, 2025 में, ये केस फिर सुर्खियों में है. राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से राज्यपालों के की भूमिका पर जवाब मांगा है और इसके साथ ही 14 और मसलों पर स्पष्टीकरण चाहा है.

बीते कुछ समय से कई राज्यों में राज्यपालों और राज्य सरकारों के बीच टकराव की खबरें सामने आई हैं. वहीं अप्रैल की 8 तारीख को सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपालों के लिए विधेयकों पर एक्शन लेने के लिए समयसीमा तय की थी. जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने अपने इसी फैसले में कहा था कि राज्यपाल की ओर से भेजे गए बिल पर राष्ट्रपति को 3 महीने के भीतर फैसला लेना होगा.

शीर्ष अदालत ने कहा था कि, "इस अवधि से आगे किसी भी देरी के मामले में, संबंधित राज्य को उचित कारण बताते हुए सूचित करना होगा." यह मामला तमिलनाडु की एमके स्टालिन सरकार और राज्यपाल आरएन रवि से जुड़ा है. इसी के बाद 13 मई को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट के नाम एक प्रेसीडेंशियल रेफरेंस जारी किया. जिसमें 14 सवाल पूछे गए हैं.

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