
"मेरा ईश्वर भी औरों के भगवान की तरह ही है, मैं केवल उसे राम कहकर पुकारती हूं" - ये कहना था सोनारिन बाई बंजारे का, जब वो इंडिया टुडे मैगजीन के पत्रकार अरुण कटियार से 1992 में बात कर रही थीं.
राम नाम का हल्ला आज खूब है, मगर सोनारिन बाई का संप्रदाय इस मामले में अनोखा है. वो जपता राम है, लिखता राम है, मगर राम की मूर्तियों के बजाय धार्मिक ग्रंथों को अपनी आराधना के केंद्र में रखता है.
इसी संप्रदाय के एक बुजुर्ग बोधराम ने अरुण कटियार से कहा था, "हम मूर्ति पूजा नहीं करते. हम तो अपने धार्मिक ग्रंथों को ही जीवन में उतारने में विश्वास करते हैं." ये बात कहने वाले बोधराम 1992 में छत्तीसगढ़ के अपने गांव ग्वालिंदी के बच्चों को रामचरित मानस का पाठ पढ़ाया करते थे. आज बोधराम कहां हैं, पता नहीं. हैं भी या नहीं, इसकी पुष्टि नहीं हो सकती. मगर जो बचा है वो है उनका संप्रदाय, जिसके तन-मन पर बस एक ही नाम गुदा है - राम.
इस संप्रदाय का नाम ही है रामनामी और वजह साफ है - इनके पूरे बदन पर राम नाम का गोदना. आज जब राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा को लेकर इतनी तैयारियां चल रही हैं तो इस संप्रदाय के बारे में जानना और भी जरूरी हो गया है क्योंकि इनके राम मंदिरों में बसने वाले मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं, बल्कि यातना और मार से बचाने वाले राम हैं. इनके हुलिए के बारे में 1992 के जून अंक में छपी इंडिया टुडे मैगजीन में अरुण कटियार लिखते हैं, "पूरे शरीर, यहां तक कि जीभ और होठों पर भी वे राम नाम गोदवा लेते हैं. ओढ़ने वाली चादर और मोरपंख लगी पगड़ी पर भी इसे छपा लेते हैं. तुलसीदास के आदर्श मर्यादा पुरुषोत्तम राम की भक्ति और गुणगान ही इनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य है."

इतिहास की तह में उतरने पर पता लगता है कि इस आस्था के पीछे कोई भक्तिभाव नहीं बल्कि डर है. डर - यातना का, उत्पीड़न का और हिंसा का. अछूत माने जाने वाले इन वनवासियों के लिए 'राम' एक नाम नहीं, बल्कि सामाजिक बहिष्कार के खिलाफ एक मंत्र बनकर आए. 1890 में चमार जाति के परसराम ने जातिगत हिंसा और मंदिर में प्रवेश ना मिलने जैसे कृत्यों से तंग आकर अपने माथे पर राम गुदवा लिया. लोगों ने राम का नाम देखकर हिंसा करनी बंद कर दी. परसराम के देखा-देखी ही कुछ और लोगों ने भी ऐसा करना शुरू कर दिया और धीरे-धीरे इस आंदोलन ने एक संप्रदाय का रूप ले लिया जिसे आज भी 'रामनामी' ही कहते हैं. यह संप्रदाय छत्तीसगढ़ में निवास करता है. राम का नाम लिखने की वजह से कुछ तथाकथित उच्च जाति के हिन्दुओं ने रामनामियों पर केस किया मगर हार गए.
हिंसा तो रुक गई मगर मंदिरों में प्रवेश तब भी नहीं मिला. पहले जहां जाति के शक पर प्रवेश नहीं मिलता था तो अब वहीं उनका 'गोदना' उनकी जाति बता देता था. अब वो मंदिरों में नहीं जाते और ना अपने मंदिर बनाते हैं. अरुण कटियार अपने आलेख में बताते हैं, "रामनामी मंदिर नहीं बनाते लेकिन गांव में एक सफेद स्तम्भ जरूर होता है, जहां ये लोग इकट्ठे होते हैं. धार्मिक अवसरों पर वे भजन गाते, नाचते, पुस्तकें पढ़ते हुए वह गरिमा पाते हैं, जिससे समाज ने उन्हें वंचित किए रखा." इस संप्रदाय के सदस्यों की संख्या दिन पर दिन घटती जा रही है, फिर भी उनकी सहिष्णुता काबिल-ए-गौर है. बाबरी का विवादित ढांचा ढहाए जाने से पहले जब भाजपा के 'कट्टर रामभक्त' अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के लिए शिलाएं जुटाने के लिए ग्वालिंदी आए, तब रामनामियों ने सहर्ष भाव से एक शिला दी थी.

लोककलाओं में दिलचस्पी लेकर काम करने वाले निरंजन महावर ने 1992 में इंडिया टुडे के अरुण कटियार से बातचीत में कहा था, "रामनामी एक महत्वपूर्ण आंदोलन के हिस्सा हैं क्योंकि ब्राह्मणों की घृणा और तिरस्कार के विरुद्ध महात्मा गांधी की शैली में अहिंसक विद्रोह किया गया." कहा जाता है कि रामनामी अछूत सतनामी समुदाय से संबंध रखते हैं. लेकिन 19वीं सदी के हिन्दू सुधार आंदोलन के दौरान इन लोगों ने ब्राह्मणों के रीति रिवाज अपना लिए. इससे ब्राह्मणों का गुस्सा भड़क उठा और उस गुस्से से त्रस्त रामनामी पहले उन दीवारों के पीछे छिपे जहां राम का नाम था. जब उससे भी कुछ नहीं हुआ तो उन्होंने अपने बदन पर 'राम' गुदवा लिया, इस आस में कि शायद इसी से कोई चमत्कार हो.
जब अरुण कटियार 1992 में इंडिया टुडे के लिए इस संप्रदाय पर लेख लिख रहे थे उस वक्त इन रामनामियों की संख्या 1500 के आसपास थी. आज ये बस 65-70 बचे हैं. छत्तीसगढ़ के ही रहने वाले पत्रकार ओम बताते हैं, "अब इन रामनामियों की दिनचर्या वैसी ही है जैसी किसी मजदूर की होती है. जब कोई इनसे मिलने या इनके बारे में जानने के लिए आता है तो ये अपनी पारम्परिक वेशभूषा धारण करते हैं और तस्वीरें भी खिंचवाते हैं." हालांकि 65-70 सिर्फ उन लोगों की संख्या है जिन्होंने अपने संप्रदाय की परंपरा के अनुसार अपने पूरे बदन पर राम का नाम गुदवा रखा है. ओम बताते हैं कि जब देश आजाद हुआ और भारत सरकार ने सभी के लिए शिक्षा और दलित-आदिवासियों को मुख्यधारा से जोड़ने के प्रयास किए तब इसी संप्रदाय के कई युवाओं ने राम का नाम गुदवाने का विरोध किया और प्रतीकात्मक तौर पर शरीर के किसी हिस्से पर एक-दो जगह गुदवा लेते थे. ये 'एक-दो जगह' भी धीरे-धीरे ख़त्म होता गया. आज इस संप्रदाय के कई लोग बाहर रहते हैं और नौकरी करते हैं.
1992 के इंडिया टुडे के अपने आलेख में अरुण कटियार 34 वर्षीय गजानंद प्रसाद बंजारा का जिक्र करते हैं जिन्होंने उस वक्त तक गोदना नहीं करवाया था. गजानंद का कहना था कि पंखों वाली पगड़ी, और पुरुष तथा महिलाओं द्वारा ओढ़ी जाने वाली रामनामी चादर से उनकी जाति पता चलती है, और इन जातियों के साथ होने वाले दुराग्रह के वे बड़ी आसानी से शिकार बन जाते हैं. उन्होंने कबूल किया, "यह ठीक है कि आज छूतछात का कोई अर्थ नहीं रह गया है, लेकिन अपने ऊंची जाति वाले भाइयों के विश्वास और मान्यताओं को तो हम नहीं बदल पाए हैं."

100 से कम संख्या वाले इस संप्रदाय के लोग अपनी संख्या से बेफिक्र होकर हर साल महानदी के तट पर मिलते हैं जहां विवाह संबंधों के अलावा संप्रदाय के अन्य जरूरी फैसले लिए जाते हैं. इसके अलावा नदी किनारे गूंजता है राम का नाम, मगर वैसे नहीं जैसे आप टीवी चैनलों में सुन रहे हैं. कुछ ऐसे -
राम नाम के भजन बिना तोर जनम वरथा जाई,
जामपुर हाबका खाबे मना,
राम नाम के भजन बिना...