चुनावी वर्ष की सर्दियां खत्म होने पर हैं और सरकार के आखिरी साल में किसान अपने-अपने ट्रैक्टर-ट्रॉलियों में भरकर राजधानी में घुसने की जद्दोजहद में हैं. किसानों को रोकने के लिए पुलिसिया तंत्र सड़कों पर कीलें रोपने के अलावा आसमान से आंसुओं (आंसू गैस के गोले) की वर्षा भी करवा रही है मगर किसान हैं कि पीछे हटने को तैयार नहीं.
इससे पहले 2020 में भी किसानों ने सरकार के कृषि कानूनों के खिलाफ जोरदार प्रदर्शन किया था और नतीजन तीनों कानूनों को वापस लेने की नौबत आ गई थी. इसके अलावा भी एमएसपी जैसे कई वादे थे जिसे सरकार ने अभी तक पूरा नहीं किया है और किसान अब तकादा करने पहुंचे हैं. आंदोलन के इस माहौल में आपको उस किसान आंदोलन के बारे में भी जानना चाहिए जिसे प्रदर्शन कम और शक्ति प्रदर्शन ज्यादा माना गया.
मटमैला कुर्ता-पायजामा पहने एक किसान नेता जब मेरठ में आंदोलन करने उतरा तो उसने शहर और गांव की खाई पाटते हुए सभी को अपनी तरफ खींच लिया. 1988 में हुए इस 'शक्ति प्रदर्शन' के बारे में लिखते हुए पत्रकारों को ताज्जुब सा होने लगा था कि जिस किसान को साल भर पहले तक कोई जानता नहीं था, उसने इतना बड़ा आंदोलन कैसे खड़ा कर दिया! अपनी हुंकार में इस नेता ने आंदोलन की शुरुआत में ही कह दिया था, "यह दीवानों का खेल है. सिर्फ वही आएं जो अंतिम दम तक लड़ने की तैयारी रखते हों." इस किसान का नाम था - महेंद्र सिंह टिकैत. वही टिकैत जिनके बेटे राकेश टिकैत 2020 के किसान आंदोलन के प्रमुख चेहरों में से एक थे.
29 फरवरी, 1988 के इंडिया टुडे मैगजीन के अंक में पंकज पचौरी ने इस आंदोलन पर विस्तृत रिपोर्ट की थी. इसकी शुरुआत ही वो कुछ ऐसे करते हैं, "यह लोगों की शक्ति का सबसे प्रभावशाली प्रदर्शन था. जब वर्षों पुरानी भारतीय किसान यूनियन (बीकेयू) ने 27 जनवरी को मेरठ मंडलायुक्त वीके दीवान के कार्यालय की घेराबंदी करने का फैसला किया, तो बीर बहादुर सिंह सरकार ने अपनी आजमाई हुई रणनीति अपनाई: हड़ताल करने वालों को थका दो. लेकिन सिंह बीकेयू नेता महेंद्र सिंह टिकैत के दबदबे और करिश्मे को भांपने में स्पष्ट रूप से विफल रहे और आंदोलन ने गति पकड़ ली. वामपंथियों को छोड़कर सभी प्रमुख राष्ट्रीय विपक्षी दलों, अन्य राज्यों के किसान संगठनों और मेरठ की जनता ने टिकैत को समर्थन दिया."
कमोबेश 1988 में मेरठ के उस किसान आंदोलन और आज के किसान आंदोलन में कुछ ख़ास अंतर नहीं है. कमोबेश वही मांगें तब थीं जो आज हैं मसलन, फसल (गन्ने) का मूल्य बढ़ाना, आंदोलनरत किसानों से मुक़दमे वापस लेना, किसानों के कर्ज और बिजली के बिल माफ़ करना. और तो और आंदोलन का तरीका भी वही - राजनीतिक पार्टियों से हटकर आंदोलन को किसान के मुद्दों से जोड़े रखना, ट्रक-ट्रॉलियों में भरकर अनाज मंगवाते रहना ताकि आंदोलन लगातार चलता रहे और बड़े-छोटे सभी किसानों की मांग को इकट्ठे उठाना.
1988 की अपनी रिपोर्ट में इंडिया टुडे के रिपोर्टर पंकज लिखते हैं, "किसानों को थकाने की सरकार की योजना निरर्थक साबित हुई - धरने को कायम रखने के लिए उत्तर प्रदेश के लगभग 20 जिलों से ट्रॉली भर खाद्य सामग्री प्रतिदिन आती थी. प्रशासन द्वारा लाए गए लगभग 6,000 पुलिसकर्मी धीरे-धीरे अपने बैरक में वापस चले गए. बीमारों की देखभाल के लिए चिकित्सा टीमों की एक सेना को तैनात किया गया था, जो अपनी बीमारी के बावजूद पीछे नहीं हटे. एक चिकित्सा अधिकारी ने कहा. 'हम प्रतिदिन लगभग 1,000 लोगों को दवाएं दे रहे हैं.' जिला मजिस्ट्रेट (डीएम) विजय शर्मा ने अपनी दैनिक प्रेस वार्ता में कहा, 'लोगों की गिनती करना मुश्किल है क्योंकि वे सुबह आते हैं और रात को वापस चले जाते हैं; हमारा अंतिम अनुमान 82,000 आंदोलनकारियों का था'.
पहले 10 दिनों में छह किसानों की मृत्यु हो गई: उनके शवों को मुख्य द्वारों पर प्रदर्शित किया गया और सुबह से शाम तक हजारों लोग उनके सामने आते रहे. लेकिन इससे न तो भीड़ और न ही मृतकों के रिश्तेदारों को आंदोलन का समर्थन करने से रोका गया." पंकज की रिपोर्ट के मुताबिक, मेरठ की भीड़ के लिए भोजन के रूप में नैनीताल से तीन तरह का भोजन, ट्रैक्टर-भर सेब और गाजर का हलवा आता था."
इस आंदोलन के ठीक एक साल पहले ही महेंद्र सिंह टिकैत ने अपनी जमीन पक्की करनी शुरू कर दी थी. इसका पहला कारण तो यह था कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इलाके में कोई दूसरा जाट नेता नहीं था और दूसरा कारण था चौधरी चरण सिंह की मृत्यु के बाद उपजा वैक्यूम. खैर इस आंदोलन का चुनाव परिणामों पर असर तो बाद में पड़ता, यूपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह पर यह तुरंत ही दिखने लगा था.
यूपी सीएम ने किसान के मुद्दों को लेकर पहले तो करोड़ों रुपए के खर्चे गिना दिए, जो किसानों की मांगें पूरी करने के बाद होने वाला था. वहीं दूसरी तरफ उन्होंने अपने कैबिनेट सहयोगियों सईदुल हसन और हुकुम सिंह को किसानों से बात करने के लिए कहा था. पंकज इस बारे में बताते हुए लिखते हैं, "उन्होंने (वीर बहादुर सिंह) यह भी कहा है कि किसान अगर बातचीत चाहते हैं तो वे उनसे लखनऊ आकर बात कर सकते हैं. पर एक पूरे शहर पर कब्जा कर लेने के बाद किसान यूनियन के इरादे काफी ऊंचे हैं."
किसान यूनियन के महासचिव हरपाल सिंह ने इस बात पर तब मुस्कराते हुए कहा था, "हमारे लिए दिल्ली लखनऊ से ज्यादा नजदीक है." और हुआ भी ऐसा ही. 1988 में ही अक्टूबर के आखिरी हफ्ते में महेंद्र सिंह टिकैत अपनी मांगों और 5 लाख किसानों के साथ दिल्ली घुस गए थे. संसद के पास डेरा डाले लाखों किसानों की मांगें लुटियंस दिल्ली की सड़कों पर लाउडस्पीकर में गूंजा करती थी. 7 दिनों के धरने के बाद जब केंद्र सरकार से उन्हें आश्वासन मिला, तभी किसान अपने घर लौटे थे.
दिल्ली के बोट क्लब का ये धरना प्रदर्शन एक पूर्ण विराम नहीं बल्कि सरकार के लिए एक उद्धरण था, जिसमें भरे जाने वाले शब्द अभी बोले जाने थे. ठीक वैसे ही जैसे 2020 के आंदोलन के बाद दिल्ली की सीमाओं पर किसान फिर से उग आए हैं - घास की तरह.