
लोकसभा चुनाव 2024 के नतीजे जब सामने आए तो यह साफ हो गया कि देश की जनता ने किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं दिया है और सरकार बनाने के लिए गठबंधन ही एकमात्र रास्ता है. 240 सीटें लाकर सबसे बड़ी पार्टी बनी बीजेपी को भी अपने सहयोगियों की जरूरत पड़ रही है और इंडिया गठबंधन बहुमत के आंकड़े 272 सीटों से काफी दूर है.
2019 में विशाल बहुमत हासिल करने वाली बीजेपी की दोबारा सरकार तो बन रही है मगर विपक्ष के प्रदर्शन का दंश भी पार्टी के बड़े नेताओं पर साफ दिख रहा है. ऐसा ही कुछ 1989 में हुए 9वें लोकसभा चुनाव में हुआ था जब पिछले चुनाव में '400 पार' करने वाली राजीव गांधी की कांग्रेस को विपक्ष ने शिकस्त देकर सरकार बनाई थी.
नवंबर 1989 के चुनाव में पांच ऐसी घटनाएं हुईं, जो 9वीं लोकसभा चुनाव को खास बनाती हैं-
1. जब पिछले लोकसभा चुनाव में 400 पार करने वाली कांग्रेस को सत्ता गंवानी पड़ी

1989 के लोकसभा चुनाव में किसी भी पार्टी को स्पष्ट जनादेश नहीं मिला था और सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने के बावजूद तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस सबसे बड़ी हारी हुई पार्टी थी. सबसे अहम तो यह है कि इसी कांग्रेस ने 1984 के लोकसभा चुनाव में 400 से ज्यादा सीटें जीती थीं. सीटों में इतनी बड़ी गिरावट आने के पीछे वीपी सिंह का विद्रोह, बीजेपी का उभार और मंदिर-मस्जिद की सांप्रदायिक राजनीति कुछ अहम कारण थे. (इस बारे में विस्तार से पढ़ने के लिए क्लिक करें - जब भाजपा और वामदल वीपी सिंह को प्रधानमंत्री बनवाने के लिए साथ आए)
2. सबसे ज्यादा सीटें लाने वाली कांग्रेस ने सरकार बनाने से किया इनकार

1989 के लोकसभा चुनाव में 197 सीटें कांग्रेस को मिली थीं जो 1984 में जीती गईं 404 सीटों की आधी भी ना थी. जैसा प्रावधान है, सरकार बनाने का पहला मौका कांग्रेस को ही दिया गया. मगर पार्टी के नेता राजीव गांधी ने यह स्वीकार किया कि जनता ने कांग्रेस को इस बार जनादेश नहीं दिया है और ऐसे में जोड़तोड़ कर गठबंधन की सरकार बनाना गलत होगा.
इंडिया टुडे मैगजीन के 15 दिसंबर, 1989 के अंक में कांग्रेस नेता कमलनाथ का बयान दर्ज है जिसमें वे कहते हैं, "असली अभियान तो अब शुरू हुआ है. प्रधानमंत्री की इस विडंबनापूर्ण स्थिति के लिए जिम्मेदार कुछ तत्वों का जनता ने सफाया कर दिया है. जहां तक नई सरकार का मामला है, उसके लिए मेरा नारा है - हम उनका साथ देंगे, उनका आदर करेंगे, और फिर उन्हें पछाडेंगे." यह पहला मौका था जब सबसे ज्यादा सीटें जीतने वाली पार्टी के नेता ने स्वीकार किया कि जनादेश उनके पक्ष में नहीं है.
3. बीजेपी का हुआ उभार

1980 में जनसंघ के भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) बनने के बाद 1984 में पार्टी ने पहला लोकसभा चुनाव लड़ा था. इतिहासकार रामचंद्र गुहा अपनी किताब 'इंडिया आफ्टर गांधी' में लिखते हैं कि 1980 के दशक की शुरुआत में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच हिंसा की लहर शुरू हुई थी. अटल बिहारी वाजपेयी की अध्यक्षता बीजेपी ने शुरुआत में अपने पूर्ववर्ती जनसंघ के हिंदू राष्ट्रवादी रुख को व्यापक अपील हासिल करने के लिए नरम किया, और जनता पार्टी और गांधीवादी समाजवाद की विचारधारा से अपने संबंधों पर जोर दिया. मगर यह असफल रहा, क्योंकि इसने 1984 के चुनावों में केवल दो लोकसभा सीटें जीतीं.
1984 की असफलता के बाद लालकृष्ण आडवाणी ने पार्टी की कमान संभाली और वाजपेयी की नरम विचारधारा की जगह पार्टी में हिन्दू राष्ट्रवाद की विचारधारा स्थापित की. बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर बनाने की विश्व हिन्दू परिषद की मांग को आडवाणी ने राम जन्मभूमि आंदोलन में तब्दील कर दिया और 80 के दशक की शुरुआत से ही उबल रहे हिंदू-मुस्लिम तनाव को विस्तार दे दिया. 1989 में नवंबर में होने वाले लोकसभा चुनाव से ठीक एक महीने पहले बिहार के भागलपुर में भयावह सांप्रदायिक दंगे हुए जिसमें करीब 1000 से ज्यादा लोगों की जान गई.
भागलपुर दंगों के तार भी राम जन्मभूमि आंदोलन से ही जुड़ते हैं क्योंकि इसकी जड़ में रामशिला जुलूस था जो विश्व हिन्दू परिषद ने राम मंदिर की मांग करते हुए आयोजित किया था. इसके अलावा 1986 में शाह बानो जजमेंट को पलटने वाले राजीव गांधी के कानून को भी बीजेपी ने तुष्टिकरण की राजनीति बताकर खूब सुर्खियां बटोरी. नवंबर, 1989 में हुए लोकसभा चुनावों में बीजेपी को इन दोनों मुद्दों का खूब फायदा भी मिला. 1984 में केवल दो सीटें जीतने वाली भारतीय जनता पार्टी 1989 में 85 सीटें जीतकर आई थी. तब से लेकर अब तक लगातार बीजेपी का विस्तार ही हुआ है और सदस्यता के मामले में उसका दावा है कि अब वह दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी है.
4. जब लाल-भगवा एक हो गया

1989 का लोकसभा चुनाव इस मामले में भी अनोखा था कि पहली बार बीजेपी और कम्युनिस्ट पार्टियों सीपीआई (एम) और सीपीआई एक साथ आई थीं. इस चुनाव में जनता दल ने 143, भाजपा ने 85, सीपीआई (एम) ने 33 और सीपीआई ने 12 सीटें जीती थीं. इंडिया टुडे मैगजीन की 1989 में छपी रिपोर्ट के मुताबिक, वीपी सिंह की राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार को बीजेपी और सीपीआई (एम) के नेतृत्व में वाम मोर्चा, दोनों ने बाहरी समर्थन दिया था.
भारतीय राजनीति में इसे दुर्लभ मौकों में से एक माना जाता है जब विचारधारा के विपरीत किनारों पर खड़ी पार्टियां सहयोग के लिए एक साथ आईं. तब सीपीआई (एम) के नेता हरिकिशन सिंह सुरजीत और ज्योति बसु, सीपीआई के इंद्रजीत गुप्ता और भाजपा के आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी हर मंगलवार को प्रधानमंत्री आवास पर मिलते, रात्रि भोज करते और सरकार के शासन-प्रशासन पर चर्चा भी किया करते थे.
5. मायावती पहली बार संसद पहुंचीं

भारतीय राजनीति में दलित नेताओं में एक प्रमुख चेहरा मानी जाने वाली मायावती 80 के दशक के शुरुआती वर्षों में आईएएस की तैयारी कर रही थीं. 1984 में जब कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की स्थापना की तो उन्होंने मायावती को पार्टी में शामिल कर लिया. राजनीति के लिए आईएएस छोड़ना मायावती के लिए बड़ा फैसला था. कांशीराम ने उन्हें मनाने के लिए कहा, "मैं तुम्हें एक दिन इतना बड़ा नेता बना सकता हूं कि एक नहीं, बल्कि आईएएस अफसरों की पूरी फौज तुम्हारे आदेश पर खड़ी हो जाएगी."
1984 में अपने पहले चुनाव अभियान में, बसपा ने मुजफ्फरनगर जिले के कैराना की लोकसभा सीट के लिए मायावती को मैदान में उतारा. वे चुनाव हार गईं. 1989 में मायावती को फिर से बसपा ने बिजनौर से टिकट दिया, और इस बार महज 33 साल की मायावती को पहली बार संसद में पहुंचने का मौका मिला. आगे चलकर कांशीराम की विरासत बसपा का नेतृत्व करने वाली मायावती चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं.