
केंद्रीय संचार मंत्री रामविलास पासवान और नीतीश कुमार बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के जेल में बंद विधायक सुरेश पासी से मिलने पहुंचे, जो अस्पताल में इलाज़ करा रहे थे. देखा कि उनके पुराने साथी और नयके विरोधी लालू प्रसाद यादव पहले ही से वहां मौजूद थे.
होटल पाटलिपुत्र अशोक में ठहरे कांग्रेसी विधायकों से मिलने जब निर्दलीय सांसद पप्पू यादव पहुंचे तो तत्काल वहां लालू भी आ गए. लालू के सामने पड़ने से बचने के लिए वे फौरन बाथरूम में घुस गए. यह मार्च, 2000 की बात है, जब समता पार्टी के नेता नीतीश कुमार पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने थे.
कट टू 2024. नीतीश कुमार ने बिहार में महागठबंधन से किनारा करते हुए मुख्यमंत्री पद से राज्यपाल राजेंद्र विश्वनाथ आर्लेकर को अपना इस्तीफ़ा सौंप दिया. 8वीं बार सीएम पद से इस्तीफ़ा देते हुए नीतीश कुमार ने 24 जनवरी को 9वीं बार इसी पद की शपथ दोहराई. रीजनिंग के किसी उलझा देने सवाल जितना ही उलझाऊ है नीतीश के इस्तीफ़े और शपथ का अंकगणित. सियासी दांव-पेच के साथ इस पद पर नीतीश की उठक-बैठक जितनी नाटकीय रही, उससे कुछ ज़्यादा नाटकीय था उनका पहली बार मुख्यमंत्री बनना.
करीब ढाई दशक पहले, बिहार में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी के शासनकाल को 'जंगलराज' का नाम देकर चुनाव लड़ा. चुनावी मैदान में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और विपक्षी खेमा एनडीए, दोनों के लिए ही चेहरा लालू प्रसाद यादव थे. राजद ने उन्हें 'गरीब-गुरबों का मसीहा' कहकर पेश किया और एनडीए ने 'जंगलराज का नेता' बताकर. लालू यादव ने विरोधियों से मिली इस पहचान को कुछ यूं रंग दिया कि उनके समर्थक गर्व ही करने लगे.

इसकी बानगी इंडिया टुडे हिंदी के 8 मार्च, 2000 के अंक में देखने को मिलती है. इंडिया टुडे से जुड़े फरज़ंद अहमद जब 1 अणे मार्ग स्थित मुख्यमंत्री आवास पर पहुंचे तो लालू-राबड़ी अपने खेत में आलू उखाड़ रहे थे. फरज़ंद अहमद वहां पहुंचकर उनसे 'जंगलराज' के मुद्दे पर सवाल पूछते हैं. वे एकदम उठ खड़े हुए और राबड़ी की ओर देखकर बोले, "जब जंगल हटेगा और वहां से जानवर भागेंगे तो कहां-कहां हमला करेगा, कौन जाने... का हो ठीक बात बा नूं?" ये मतगणना से ठीक एक दिन पहले यानी 25 फरवरी की बात है.
26 फरवरी को बिहार विधानसभा चुनाव-2000 के नतीजे जब आए तो जनमत किसी के हक़ में नहीं था. सबसे बड़ी पार्टी लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल (राजद) बनी थी, 123 सीटों के साथ. राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के खाते में थीं 122 सीटें. कांग्रेस के 23 विधायक चुने गए थे और अन्य के पास 56 सीटें थीं. यानी एक लटका हुआ नतीजा क्योंकि तब 324 विधानसभा सीटों वाले बिहार में सरकार बनाने के लिए 163 सीटें ज़रूरी थीं.
मन मुताबिक नतीजे नहीं आने के बावजूद लालू परिवार, उनकी पार्टी और समर्थक खुश थे. क्योंकि तमाम तिकड़म के बावजूद एनडीए की सीटें राजद से कम रह गई थीं. 26 फरवरी को बढ़ते वक़्त के साथ 1 अणे मार्ग पर लालू समर्थकों की संख्या भी बढ़ती जा रही थी. लालू यादव खुद राघोपुर और दानापुर की सीट से चुनाव लड़ रहे थे. परिणाम आया कि दोनों ही सीटें उनकी झोली में गिर गई हैं. जीत के बाद खुशी में अबीर उड़ाते और पैर छूते समर्थकों से वे बोल पड़े, "जाओ जंगल में सुख से रहो. जंगल में शेरनी और शेर रहते हैं. हमारे वोटर भी शेर हैं, गीदड़ नहीं."
इन सब के बावजूद कुछ समीकरण थे जो लालू के मन में भीतर ही भीतर कौंध रहे थे और छटपटाहट पैदा कर रहे थे. इस बेचैनी को तब और बल मिला जब अगले ही दिन यानी 27 फरवरी को एनडीए ने लालू के पुराने दोस्त रहे नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया. और वो समीकरण जिससे लालू परेशान थे, उनमें पहला था राजभवन का 'रंग'. स्पष्ट बहुमत नहीं होने की स्थिति में सभी की निगाहें इस बात पर टिकी थीं कि राज्यपाल विनोद चंद्र पांडेय सरकार बनाने के लिए किसे न्यौता देंगे.

सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद बुलावा राजद को नहीं मिला, बल्कि एनडीए को मौका मिला. 3 मार्च को राज्यपाल ने नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी. अब नीतीश और एनडीए के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी विधानसभा में बहुमत साबित करने की. और यहीं से शुरू होती है 'द ग्रेट बिहार पॉलिटिक्स'.
कांग्रेस इस चुनाव में राजद के साथ नहीं थी और ना ही वामपंथी पार्टियां. लेकिन लालू यादव को यह भरोसा था कि सेक्यूलरिज्म के मुद्दे पर इन दोनों गुटों के विधायक उनकी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाने के लिए समर्थन देंगे. नीतीश कुमार सियासी गणित के भरोसे थे. एनडीए ये मान कर चल रहा था कि कांग्रेस में टूट होगी और 10 विधायक उनके साथ आ जाएंगे. 10 निर्दलीय विधायकों को लेकर भी वे यही सोच रहे थे. लेकिन अब मानने और सोचने से तो सियासत सधती नहीं है! ख़ासकर बिहार में, जहां आपके सामने लालू जैसे जमीनी नेता खड़े हों.
ऐसे में शुरू हुई जुगत कि कहीं से किसी विधायक को अपने पक्ष में लाया जा सके. एनडीए के बड़े नेता और नीतीश कुमार खुद विधायकों से मेल-जोल करने लगे. कांग्रेसी विधायकों के लालू विरोधी गुट से संपर्क की कवायद होने लगी. दरअसल कांग्रेस का स्थानीय नेतृत्व किसी भी हाल में लालू यादव के समर्थन में नहीं जाना चाहता था. यह गुट बिहार कांग्रेस के 'लालूकरण' का विरोध कर रहा था.
इंडिया टुडे हिंदी मैगज़ीन के 15 मार्च, 2000 के अंक में फरज़ंद अहमद और संजय कुमार झा अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं, "सब कुछ जायज है बिहार की राजनीति में और शायद यही कारण है कि गणित के जाल में राजग (एनडीए) के नेता नीतीश कुमार मुख्यमंत्री तो आनन-फानन में बन गए मगर उनके सिर पर रखे ताज में छुपे कांटे बुरी तरह से चुभ रहे हैं." इसी रिपोर्ट में नीतीश कुमार का बयान है, "छात्र जीवन से मैं इसमें माहिर हूं. 1990 में जब मैंने विपरीत परिस्थितियों के बावजूद लालू प्रसाद यादव के पक्ष में गणित बैठाया था तो अब क्या दिक्कत होगी."

नीतीश कुमार को विधानसभा के साथ-साथ सड़क पर भी लालू यादव के रुआब का सामना करना था. दरअसल जैसे ही राज्यपाल ने नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई लालू यादव ने बिहार बंद का आह्वान कर दिया. राजद समर्थकों ने रेल की पटरी उखाड़नी शुरू कर दी. कई जगहों पर हिंसक प्रदर्शन होने लगे. एक तरफ सड़क पर उनके समर्थक ये सब कर रहे थे, दूसरी ओर लालू यादव कांग्रेस आलाकमान से मिलने दिल्ली पहुंच गए. बिहार में कांग्रेस विधायकों और निर्दलीय विधायकों को लालू के निर्देश पर शिवानंद तिवारी और साधु यादव जैसे नेता 'मैनेज' करने की कोशिश में जुटे थे.
इंडिया टुडे हिंदी मैगज़ीन के 22 मार्च, 2000 के अंक में स्वपन दासगुप्ता और संजय कुमार झा अपनी रिपोर्ट में नीतीश कुमार के एक मंत्री के बयान का जिक्र करते हैं, "लालू को एकदम ख़बर थी कि हम किसे, कहां और कब मिलने की सोच रहे हैं." नीतीश कुमार के लिए इकलौता एडवांटेज ये था कि वो सत्ता में थे, जिसका अर्थ है कि 'तंत्र' उनके हाथ में था. फिर भी लालू ने पुराने वफादार अधिकारियों के बूते नीतीश को सत्ता में होने का जो फायदा मिलता उसे बेअसर कर दिया.
लालू के ठेठपने के उलट 'सौम्य और व्यवहार कुशल' अंदाज़ वाले नीतीश के लिए अपने पूर्व नेता के 'खुफियातंत्र' से पार पाना चक्रव्यूह भेदने से ज्यादा मुश्किल था. नीतीश कुमार या उनके सिपहसालार जिस विधायक को समझाने-बुझाने पहुंचते थे, लालू का लश्कर पहले ही वहां मौजूद रहता था.
प्रबंधन के इस खेल में छल-कपट, धोखाधड़ी, बाहुबल और प्रलोभन सब शामिल था और यहां नीतीश टिक ना सके. जुमा-जुमा सात दिन तक ही वे मुख्यमंत्री रहे. 10 मार्च को विधानसभा में बजट पेश करने के बाद विश्वास मत पाए बिना ही पहली बार सीएम बने नीतीश ने पहली बार इस्तीफा सौंपा. क्योंकि 10 मार्च तक उनके पास 147 विधायकों का ही समर्थन था, जो कि 163 के जादुई संख्या से 16 कम था.
बिहार से "जंगलराज को खत्म करने, विकास की बयार बहाने" जैसी बात कहने वाले नीतीश 7 दिन के कार्यकाल के दौरान बयार सिर्फ अपने पक्ष में करने की जुगत से ज़्यादा कुछ कर नहीं पाए. नीतीश कुमार के इस्तीफे के अगले ही दिन राबड़ी देवी ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी.
करीब-करीब ढाई दशक के अंतराल में नीतीश कुमार पहली बार से 9वीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने तक की यात्रा तय कर चुके हैं. लेकिन तब और अब के बीच गंगा में काफी पानी बह चुका है. मसलन ये कि तब नीतीश कुमार को बिहार का भविष्य समझा जा रहा था और अब उनकी छवि एक 'पलटीबाज़' नेता की हो चुकी है.